विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष
ई-कचरे से बढ़ता पर्यावरण संकट
डॉ. दिग्विजय शर्मा
सब कुछ जानते हुए आज भी देश में पर्यावरण संकट को लेकर लोगों में कोई भी, कैसी भी, किसी भी तरह की जागरूकता नजर नहीं आ रही है । प्रदूषण जैसे मुद्दे आज विकास के नाम पर पीछे छूटते नजर आ रहे हैं । ऐसे में ई-कचरे के बारे में देश अंजान बना बैठा है । भारत सरकार द्वारा कोई कदम नहीं उठाया जा रहा है ।
आज इलैक्ट्रॉनिक उत्पादों से देश के सभी बाजार भरे पड़े हैं । हर रोज हो रहे तकनीकी बदलावों के कारण उपभोक्ताओं के घर नये-नये उत्पादों से भरे पड़े हैं । ऐसे में वह पुराने इलैक्ट्रॉनिक उत्पादों को कबाड़ में बेच देते हैं, और यहीं से आरम्भ होती है ई-कचरे की नई सम्पदा । ई-कचरे से प्रभावित होता भूजल और इस पर भी पर्यावरण का साया मंडरा रहा है । ई-कचरे के रूप में यह अभिशाप आज पृथ्वी के पर्यावरण और उस पर रहने वाले विशाल मानव समुदाय के स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा संकट पैदा कर रहा है।
ई-कचरे से बढ़ता पर्यावरण संकट
डॉ. दिग्विजय शर्मा
सब कुछ जानते हुए आज भी देश में पर्यावरण संकट को लेकर लोगों में कोई भी, कैसी भी, किसी भी तरह की जागरूकता नजर नहीं आ रही है । प्रदूषण जैसे मुद्दे आज विकास के नाम पर पीछे छूटते नजर आ रहे हैं । ऐसे में ई-कचरे के बारे में देश अंजान बना बैठा है । भारत सरकार द्वारा कोई कदम नहीं उठाया जा रहा है ।
आज इलैक्ट्रॉनिक उत्पादों से देश के सभी बाजार भरे पड़े हैं । हर रोज हो रहे तकनीकी बदलावों के कारण उपभोक्ताओं के घर नये-नये उत्पादों से भरे पड़े हैं । ऐसे में वह पुराने इलैक्ट्रॉनिक उत्पादों को कबाड़ में बेच देते हैं, और यहीं से आरम्भ होती है ई-कचरे की नई सम्पदा । ई-कचरे से प्रभावित होता भूजल और इस पर भी पर्यावरण का साया मंडरा रहा है । ई-कचरे के रूप में यह अभिशाप आज पृथ्वी के पर्यावरण और उस पर रहने वाले विशाल मानव समुदाय के स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा संकट पैदा कर रहा है।
ई-कचरा- हमें यह भी जानना आवश्यक है कि ई-कचरा आखिर है क्या ? यह ई-कचरा या ई-वेस्ट आई.टी. कम्पनियों से निकलने वाला वह कबाड़ा है, जो तकनीकी में आ रहे परिवर्तनों और स्टाइलिश इलैक्ट्रॉनिक उत्पादों के बढ़ते प्रयोग के कारण निकलता है । जैसे कुछ समय पहले बडे आकार के कम्प्यूटर, मॉनीटर, टी.वी. आते थे उनका स्थान अब स्लिम/लैट स्क्रीन वाले छोटे मॉनीटरों ने ले लिया है । माउस, कीबोर्ड, लैपटॉप, टेबलेट, सेलफोन, स्मार्टफोन, अन्य उपकरण जो चलन से बाहर हो गए हैंवे सभी ई-वेस्ट की श्रेणी में आते हैं ।
यह मानव स्वास्थ्य के लिए गम्भीर खतरा उत्पन्न कर रहा है। विकसित देशों में अगर अमेरिका की बात की जाए तो वहाँ प्रत्येक घर में प्रति वर्ष छोट-मोटे लगभग २४ नये इलैक्ट्रॉनिक उपकरण खरीदे जाते हैं । पुराने उपकरणों का फिर कोई उपयोग नहीं होता । इन्हें कबाड़े में बेच दिया जाता है । इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि अमेरिका में कितना इलैक्ट्रॉनिक कचरा निकलता होगा ? एक तथ्य यह भी देखने को मिलता है कि केवल अमेरिका में ही ७० प्रतिशत लोग प्रति वर्ष अपना मोबाइल बदल देते हैं । ई-कचरे से आशय उन तमाम पुराने पड़ चुके बिजली से चलने वाले व अन्य दूसरे उपकरणों से है, जिन्हें उपयोग करने वाले खुली हवा में कहीं भी इधर-उधर फेंक देते हैं । ई-कचरा या ई-वेस्ट उन सभी बेकार इलैक्ट्रॉनिक उपकरणों का ही एक सामूहिक नाम है, जो कि अपशिष्ट वस्तुओं में विभिन्न स्त्रोतों से जैसे- टेलिविजन, कम्प्यूटर, टेलिफोन, एयरकंडीशनर, सेलफोन, इलैक्ट्रॉनिक खिलौना आदि के रूप में प्रवेश कर जाते हैं । लेकिन पुराने ई-वेस्ट को जब डस्टबिन में फेंकते हैं उस वक्त हम कभी यह गौर नहीं करते हैं कि यह कबाड़ी वालों तक पहुँचने के बाद यह कबाड़ा कितना खतरनाक साबित हो सकता है ।
आज लोगों में बढ़ते शहरीकरण के चलते इलैक्ट्रॉनिक कचरे के दुष्परिणाम से आम आदमी इतना बेखबर है कि ई-कचरे से निकलने वाले रासायनिक तत्व शरीर के अंग, लीवर, किडनी को प्रभावित करने के अलावा केन्सर, लकवा जैसी बीमारियों का कारण बन रहे हैं । खास तौर से उन इलाकों में रोग बढ़ने के आसार ज्यादा हैं, जहाँ अवैज्ञानिक तरीके से ई-कचरे की रीसाईकिलिंग की जा रही है ।
अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण संगठन (ग्रीन पीस) के एक अध्ययन के अनुसार ४९ देशों से इस प्रकार का ई-कचरा भारत में आयात होता है । राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय पूसा के पूर्व निदेशक डॉ. श्रीवास्तव का कहना है कि ई-कचरे की वजह से पूरी खाद्य श्रृंखला बिगड़ रही है । ई-कचरे के आधे अधूरे तरीके से निस्तारण करने पर मिट्टी में खतरनाक रासायनिक तत्व मिल जाते हैं, जिनका असर पेड़-पौधों और मानव जाति पर पड़ रहा है । पौधों में प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया नहीं हो पाती है, जिसका सीधा असर वायुमंडल में ऑक्सीजन के प्रतिशत पर पड़ रहा है । सरकारी आंकडों के अनुसार २००४ में देश के ई-कचरे की मात्रा एक लाख छियालीस हजार आ ठ सौ टन तक थी, जो २०१२ तक आठ लाख टन होने का अनुमान था । ई-कचरा पैदा करने वाले १० अग्रणी शहरों में दिल्ली, मुम्बई, बैंगलूर, कोलकाता, चैन्नई, हैदराबाद शामिल हैं । जोधपुर विश्वविद्यालय में प्रोजेक्ट पर काम कर रहे 'सेन्टर फॉर क्वालिटी मेनेजमेन्ट सिस्टम` के प्रमुख जाँचकर्ता श्री घोष के अनुसार- 'जिस तेजी से बाजार में इलैक्ट्रॉनिक उपकरणों का विशेष रूप से मोबाइल की धूम मची हुई है । वर्ष २०१५ में इलैक्ट्रॉनिक कचरा बढ़ कर छह हजार टन होने की संभावना हो सकती है। भले ही यह आंकडा कम लग रहा हो लेकिन यह देश के लिए गंभीर चिंता का विषय है ।
स्त्रोत - देश और दुनिया के पर्यावरण संगठन इसके संभावित खतरों पर दो दशक से भी ज्यादा समय से चिंता प्रकट कर रहे हैं । ऐसे कचरे के आयात पर प्रतिबंध लगाने के लिए भारत में चौबीस साल पहले बने 'कचरा प्रबंधन और निगरानी कानून १९८९` को धता बता कर औद्योगिक घरानों ने इसका आयात जारी रखा है । अमेरिका, जापान, चीन और ताइवान सभी देशों में तकनीकी उपकरणों में फैक्स मशीन, मोबाइल, फोटो कॉपियर, कम्प्यूटर, लैपटॉप, टी.वी., बैटरी आदि अनेक प्रकार के कबाड़ होते हैं । इनको ये दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ देशों में ठिकाने लगाते हैं उनमें भारत का नाम सबसे उपर है । अमेरिका के बारे में कहा जाता है कि वह अपना ८० प्रतिशत ई-कचरा अन्य देश चीन, मलेशिया, कीनिया आदि अन्य अफ्रीकी देशों में भेज देता है । अन्य देशों के साथ भारत भी ई-कचरे को निपटाने में लगा है । जैसे आग लगाकर उसमें से आवश्यक धातु को निकाल लेते हैं । इसे जलाने पर जो जहरीला धुआं निकलता है वह काफी घातक होता है, जिससे पर्यावरण के खतरे बढ़ जाते हैं वे और भी गंभीर बीमारियों का स्त्रोत बन जाते हैं ।
सी.एस.ई. के इन्वायरमेंट प्रोग्राम के कोआर्डिनेटर कुशलपाल यादव के अनुसार- 'विकसित देश इण्डिया को 'डोंपिंग ग्राउंड` की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं, क्योंकि उनको अपने यहाँ रीसाईकिलिंग करना काफी महंगा पड़ रहा है । हमारे यहाँ ई-वेस्ट की 'रीसाईकिलिंग` और 'डिस्पोजल` दोनों ही सही तरीके से नहीं हो रहे हैं । इसे लेकर जारी की गई ' गाइड लाईन्स` का भी पालन नहीं हो रहा है । कुल मिलाकर ७९ फीसदी हिस्सा न तो सही तरीके से इकट्ठा किया जा रहा है और न ही उसकी 'रीसाईकिलिंग` सही ढंग से की जा रही है । आम तौर पर सामान्य कूड़े-कचरे के साथ ही इसे जमा किया जाता है और उसी के साथ 'डम्प` भी कर दिया जाता है। ऐसे में इनसे निकलने वाले रेडियोएक्टिव और दूसरे हानिकारक तत्व अंडरग्राउंड वाटर और जमीन को प्रदूषित कर रहे हैं । ऐसे में सरकार को इसके लिए नये कानून बनाने की आवश्यकता है, क्योंकि आने वाले दिनों में खतरा और बढ़ता जायेगा ।
कबाड़ी ई-वेस्ट से महंगे मेटल निकालने के लिए (जैसे- कॉपर, सिल्वर) इसे जलाते हैं या एसिड में उबालते हैं । एसिड का बचा पानी या तो मिट्टी में डाल दिया जाता है या फिर खुले में फेंक दिया जाता है । यह सेहत के लिए काफी नुकसानदेह है । ऐसा इसीलिए होता है क्योंकि भारत में इसके लिए न तो कोई कानून है और न ही कोई अनिवार्यता है । 'इन्वायरमेंट एन.जी.ओ. टॉक्सिक लिंक` के डायरेक्टर रवि अग्रवाल का कहना है कि 'हमारे दश में सालाना तकरीबन ४ से ५ लाख टन ई-वेस्ट पैदा होता है, और ९७ फीसदी कबाड़ को जमीन में गाढ़ दिया जाता है ।` इससे होने वाले नुकसान का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जाता है कि इसमें ३८ अलग-अलग प्रकार के रासायनिक तत्व शामिल हैं, जिनसे काफी नुकसान होता है । जैसे- टी.वी. व पुराने कम्प्यूटर के मॉनीटर में लगी सी.आर.टी.(कैथोड रे ट्यूब) का रीसाईकिल करना मुश्किल होता है । इस कचरे में लेड, मर्क्यूरी, कैडमियम जैसे घातक तत्व भी होते हैं । प्लास्टिक और कई तरह की धातुओं से लेकर अन्य पदार्थ भी होते हैं जिसे जलाने से जहरीला धुआं निकलता है जो काफी घातक होता है । विकासशील देशों में इसका इस्तेमाल तेजाब में डुबोकर या फिर उन्हें जलाकर उनमें से सोना, चांदी, प्लेटिनम, अन्य दूसरी धातुएं निकालने के लिए करते हैं ।
भारत के सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र बैंगलौर में करीब १७०० आई.टी. कम्पनियां काम कर रही हैं । इनमें से हर साल ६ हजार टन से ८ हजार टन इलैक्ट्रॉनिक कचरा निकलता है। सॉटवेयर टेक्नोलॉजी पार्क ऑफ इण्डिया (एस.टी.पी.आई.) के डायरेक्टर जे. पार्थ सारथी का कहना है कि सबसे बडी जरूरत है कि भारी मात्रा में निकलने वाले ई-वेस्ट के सही निपटान की जब तक उसका व्यवस्थित 'ट्रीटमेन्ट` नहीं किया जाता वह पानी, हवा में जहर फैलता रहेगा, और जनजीवन प्रभावित होता रहेगा ।
हानियाँ- ई-कचरे में पाये जाने वाले कुछ जहरीले अपशिष्ट पदार्थो जैसे- लेड (शीशा), कैडमियम, मर्क्यूरी (पारा), बेरियम आदि द्वारा मानव शरीर पर होने वाले हानिकारक प्रभाव निम्न प्रकार हैं -
लेड (शीशा), टेलिविजन और कम्प्यूटरों के मॉनीटरों में काँच के पैनलों पर पाया जाता है । इसकी अत्यधिक मात्रा से मानव शरीर में घातक बीमारी जैसे- उल्टी, दस्त, बेहोशी या मौत के रूप में परिणाम सामने आते हैं । अन्य परिणाम जैसे- भूख की कमी, पेट दर्द, कब्ज, थकान, अनिद्रा, चिड़चिड़ापन, सिरदर्द इत्यादि हैं । शीशा मनुष्य में मध्य और परिधीय तंत्रिकाओं, रक्त संचार प्रणाली, प्रजनन प्रणाली और युवा बच्चें के मानसिक विकास को भारी नुकसान पहुँचाता है ।
कैडमियम, यह चिपों और कैथोड रे ट्यूब को बनाने में प्रयोग किया जाता है । इससे मनुष्य के फेफडों और गुर्दो को गम्भीर क्षति हो सकती है । शरीर क्षीण होने जैसे घातक परिणाम भी हो सकते हैं ।
बेरियम का प्रयोग कैथोड रे ट्यूब स्क्रीन पैनलों पर उन से निकलने वाले विकिरण से लोगों की रक्षा करने के लिए किया जाता है। यह मानव मस्तिष्क में सूजन ला सकता है व माँस पेशियों को कमजोर कर देता है ।
निष्कर्षत: इनसे निकलने वाले रेडिएशन शरीर के लिए घातक होते हैं । इसके प्रभाव से मानव शरीर के महत्वपूर्ण अंग प्रभावित ही नहीं होतेे बल्कि खत्म भी हो जाते हैं ।
सरकार और सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग को इस खतरे से निपटने के लिए अतिरिक्त कार्यवाही करने की आवश्यकता है। 'तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड` का कहना है कि उसने सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़ी कम्पनियों को ई-कचरे का निस्तारण करने के लिए उचित तरीके अपनाये जाने की सख्त हिदायत दी है, लेकिन ज्यादातर कम्पनियाँ इसका पालन नहीं कर रहीं हैं। 'इण्डो-जर्मन स्विस` ई-वेस्ट कम्पनी के सहयोग से बैंगलूर में काम कर रहे स्वैच्छिक संगठन (ई-वेस्ट ऐजेन्सी) ने ई-कचरे के सही निदान के लिए पर्यावरण और वन मंत्रालय को भी सूचित किया है कि इस सम्बंध में कानूनी प्रावधान किया जाना चाहिए, नया एक्ट बनना चाहिए। सरकार को इस संबंध में कड़े कदम उठाने चाहिए ।
यह मानव स्वास्थ्य के लिए गम्भीर खतरा उत्पन्न कर रहा है। विकसित देशों में अगर अमेरिका की बात की जाए तो वहाँ प्रत्येक घर में प्रति वर्ष छोट-मोटे लगभग २४ नये इलैक्ट्रॉनिक उपकरण खरीदे जाते हैं । पुराने उपकरणों का फिर कोई उपयोग नहीं होता । इन्हें कबाड़े में बेच दिया जाता है । इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि अमेरिका में कितना इलैक्ट्रॉनिक कचरा निकलता होगा ? एक तथ्य यह भी देखने को मिलता है कि केवल अमेरिका में ही ७० प्रतिशत लोग प्रति वर्ष अपना मोबाइल बदल देते हैं । ई-कचरे से आशय उन तमाम पुराने पड़ चुके बिजली से चलने वाले व अन्य दूसरे उपकरणों से है, जिन्हें उपयोग करने वाले खुली हवा में कहीं भी इधर-उधर फेंक देते हैं । ई-कचरा या ई-वेस्ट उन सभी बेकार इलैक्ट्रॉनिक उपकरणों का ही एक सामूहिक नाम है, जो कि अपशिष्ट वस्तुओं में विभिन्न स्त्रोतों से जैसे- टेलिविजन, कम्प्यूटर, टेलिफोन, एयरकंडीशनर, सेलफोन, इलैक्ट्रॉनिक खिलौना आदि के रूप में प्रवेश कर जाते हैं । लेकिन पुराने ई-वेस्ट को जब डस्टबिन में फेंकते हैं उस वक्त हम कभी यह गौर नहीं करते हैं कि यह कबाड़ी वालों तक पहुँचने के बाद यह कबाड़ा कितना खतरनाक साबित हो सकता है ।
आज लोगों में बढ़ते शहरीकरण के चलते इलैक्ट्रॉनिक कचरे के दुष्परिणाम से आम आदमी इतना बेखबर है कि ई-कचरे से निकलने वाले रासायनिक तत्व शरीर के अंग, लीवर, किडनी को प्रभावित करने के अलावा केन्सर, लकवा जैसी बीमारियों का कारण बन रहे हैं । खास तौर से उन इलाकों में रोग बढ़ने के आसार ज्यादा हैं, जहाँ अवैज्ञानिक तरीके से ई-कचरे की रीसाईकिलिंग की जा रही है ।
अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण संगठन (ग्रीन पीस) के एक अध्ययन के अनुसार ४९ देशों से इस प्रकार का ई-कचरा भारत में आयात होता है । राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय पूसा के पूर्व निदेशक डॉ. श्रीवास्तव का कहना है कि ई-कचरे की वजह से पूरी खाद्य श्रृंखला बिगड़ रही है । ई-कचरे के आधे अधूरे तरीके से निस्तारण करने पर मिट्टी में खतरनाक रासायनिक तत्व मिल जाते हैं, जिनका असर पेड़-पौधों और मानव जाति पर पड़ रहा है । पौधों में प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया नहीं हो पाती है, जिसका सीधा असर वायुमंडल में ऑक्सीजन के प्रतिशत पर पड़ रहा है । सरकारी आंकडों के अनुसार २००४ में देश के ई-कचरे की मात्रा एक लाख छियालीस हजार आ ठ सौ टन तक थी, जो २०१२ तक आठ लाख टन होने का अनुमान था । ई-कचरा पैदा करने वाले १० अग्रणी शहरों में दिल्ली, मुम्बई, बैंगलूर, कोलकाता, चैन्नई, हैदराबाद शामिल हैं । जोधपुर विश्वविद्यालय में प्रोजेक्ट पर काम कर रहे 'सेन्टर फॉर क्वालिटी मेनेजमेन्ट सिस्टम` के प्रमुख जाँचकर्ता श्री घोष के अनुसार- 'जिस तेजी से बाजार में इलैक्ट्रॉनिक उपकरणों का विशेष रूप से मोबाइल की धूम मची हुई है । वर्ष २०१५ में इलैक्ट्रॉनिक कचरा बढ़ कर छह हजार टन होने की संभावना हो सकती है। भले ही यह आंकडा कम लग रहा हो लेकिन यह देश के लिए गंभीर चिंता का विषय है ।
स्त्रोत - देश और दुनिया के पर्यावरण संगठन इसके संभावित खतरों पर दो दशक से भी ज्यादा समय से चिंता प्रकट कर रहे हैं । ऐसे कचरे के आयात पर प्रतिबंध लगाने के लिए भारत में चौबीस साल पहले बने 'कचरा प्रबंधन और निगरानी कानून १९८९` को धता बता कर औद्योगिक घरानों ने इसका आयात जारी रखा है । अमेरिका, जापान, चीन और ताइवान सभी देशों में तकनीकी उपकरणों में फैक्स मशीन, मोबाइल, फोटो कॉपियर, कम्प्यूटर, लैपटॉप, टी.वी., बैटरी आदि अनेक प्रकार के कबाड़ होते हैं । इनको ये दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ देशों में ठिकाने लगाते हैं उनमें भारत का नाम सबसे उपर है । अमेरिका के बारे में कहा जाता है कि वह अपना ८० प्रतिशत ई-कचरा अन्य देश चीन, मलेशिया, कीनिया आदि अन्य अफ्रीकी देशों में भेज देता है । अन्य देशों के साथ भारत भी ई-कचरे को निपटाने में लगा है । जैसे आग लगाकर उसमें से आवश्यक धातु को निकाल लेते हैं । इसे जलाने पर जो जहरीला धुआं निकलता है वह काफी घातक होता है, जिससे पर्यावरण के खतरे बढ़ जाते हैं वे और भी गंभीर बीमारियों का स्त्रोत बन जाते हैं ।
सी.एस.ई. के इन्वायरमेंट प्रोग्राम के कोआर्डिनेटर कुशलपाल यादव के अनुसार- 'विकसित देश इण्डिया को 'डोंपिंग ग्राउंड` की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं, क्योंकि उनको अपने यहाँ रीसाईकिलिंग करना काफी महंगा पड़ रहा है । हमारे यहाँ ई-वेस्ट की 'रीसाईकिलिंग` और 'डिस्पोजल` दोनों ही सही तरीके से नहीं हो रहे हैं । इसे लेकर जारी की गई ' गाइड लाईन्स` का भी पालन नहीं हो रहा है । कुल मिलाकर ७९ फीसदी हिस्सा न तो सही तरीके से इकट्ठा किया जा रहा है और न ही उसकी 'रीसाईकिलिंग` सही ढंग से की जा रही है । आम तौर पर सामान्य कूड़े-कचरे के साथ ही इसे जमा किया जाता है और उसी के साथ 'डम्प` भी कर दिया जाता है। ऐसे में इनसे निकलने वाले रेडियोएक्टिव और दूसरे हानिकारक तत्व अंडरग्राउंड वाटर और जमीन को प्रदूषित कर रहे हैं । ऐसे में सरकार को इसके लिए नये कानून बनाने की आवश्यकता है, क्योंकि आने वाले दिनों में खतरा और बढ़ता जायेगा ।
कबाड़ी ई-वेस्ट से महंगे मेटल निकालने के लिए (जैसे- कॉपर, सिल्वर) इसे जलाते हैं या एसिड में उबालते हैं । एसिड का बचा पानी या तो मिट्टी में डाल दिया जाता है या फिर खुले में फेंक दिया जाता है । यह सेहत के लिए काफी नुकसानदेह है । ऐसा इसीलिए होता है क्योंकि भारत में इसके लिए न तो कोई कानून है और न ही कोई अनिवार्यता है । 'इन्वायरमेंट एन.जी.ओ. टॉक्सिक लिंक` के डायरेक्टर रवि अग्रवाल का कहना है कि 'हमारे दश में सालाना तकरीबन ४ से ५ लाख टन ई-वेस्ट पैदा होता है, और ९७ फीसदी कबाड़ को जमीन में गाढ़ दिया जाता है ।` इससे होने वाले नुकसान का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जाता है कि इसमें ३८ अलग-अलग प्रकार के रासायनिक तत्व शामिल हैं, जिनसे काफी नुकसान होता है । जैसे- टी.वी. व पुराने कम्प्यूटर के मॉनीटर में लगी सी.आर.टी.(कैथोड रे ट्यूब) का रीसाईकिल करना मुश्किल होता है । इस कचरे में लेड, मर्क्यूरी, कैडमियम जैसे घातक तत्व भी होते हैं । प्लास्टिक और कई तरह की धातुओं से लेकर अन्य पदार्थ भी होते हैं जिसे जलाने से जहरीला धुआं निकलता है जो काफी घातक होता है । विकासशील देशों में इसका इस्तेमाल तेजाब में डुबोकर या फिर उन्हें जलाकर उनमें से सोना, चांदी, प्लेटिनम, अन्य दूसरी धातुएं निकालने के लिए करते हैं ।
भारत के सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र बैंगलौर में करीब १७०० आई.टी. कम्पनियां काम कर रही हैं । इनमें से हर साल ६ हजार टन से ८ हजार टन इलैक्ट्रॉनिक कचरा निकलता है। सॉटवेयर टेक्नोलॉजी पार्क ऑफ इण्डिया (एस.टी.पी.आई.) के डायरेक्टर जे. पार्थ सारथी का कहना है कि सबसे बडी जरूरत है कि भारी मात्रा में निकलने वाले ई-वेस्ट के सही निपटान की जब तक उसका व्यवस्थित 'ट्रीटमेन्ट` नहीं किया जाता वह पानी, हवा में जहर फैलता रहेगा, और जनजीवन प्रभावित होता रहेगा ।
हानियाँ- ई-कचरे में पाये जाने वाले कुछ जहरीले अपशिष्ट पदार्थो जैसे- लेड (शीशा), कैडमियम, मर्क्यूरी (पारा), बेरियम आदि द्वारा मानव शरीर पर होने वाले हानिकारक प्रभाव निम्न प्रकार हैं -
लेड (शीशा), टेलिविजन और कम्प्यूटरों के मॉनीटरों में काँच के पैनलों पर पाया जाता है । इसकी अत्यधिक मात्रा से मानव शरीर में घातक बीमारी जैसे- उल्टी, दस्त, बेहोशी या मौत के रूप में परिणाम सामने आते हैं । अन्य परिणाम जैसे- भूख की कमी, पेट दर्द, कब्ज, थकान, अनिद्रा, चिड़चिड़ापन, सिरदर्द इत्यादि हैं । शीशा मनुष्य में मध्य और परिधीय तंत्रिकाओं, रक्त संचार प्रणाली, प्रजनन प्रणाली और युवा बच्चें के मानसिक विकास को भारी नुकसान पहुँचाता है ।
कैडमियम, यह चिपों और कैथोड रे ट्यूब को बनाने में प्रयोग किया जाता है । इससे मनुष्य के फेफडों और गुर्दो को गम्भीर क्षति हो सकती है । शरीर क्षीण होने जैसे घातक परिणाम भी हो सकते हैं ।
बेरियम का प्रयोग कैथोड रे ट्यूब स्क्रीन पैनलों पर उन से निकलने वाले विकिरण से लोगों की रक्षा करने के लिए किया जाता है। यह मानव मस्तिष्क में सूजन ला सकता है व माँस पेशियों को कमजोर कर देता है ।
निष्कर्षत: इनसे निकलने वाले रेडिएशन शरीर के लिए घातक होते हैं । इसके प्रभाव से मानव शरीर के महत्वपूर्ण अंग प्रभावित ही नहीं होतेे बल्कि खत्म भी हो जाते हैं ।
सरकार और सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग को इस खतरे से निपटने के लिए अतिरिक्त कार्यवाही करने की आवश्यकता है। 'तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड` का कहना है कि उसने सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़ी कम्पनियों को ई-कचरे का निस्तारण करने के लिए उचित तरीके अपनाये जाने की सख्त हिदायत दी है, लेकिन ज्यादातर कम्पनियाँ इसका पालन नहीं कर रहीं हैं। 'इण्डो-जर्मन स्विस` ई-वेस्ट कम्पनी के सहयोग से बैंगलूर में काम कर रहे स्वैच्छिक संगठन (ई-वेस्ट ऐजेन्सी) ने ई-कचरे के सही निदान के लिए पर्यावरण और वन मंत्रालय को भी सूचित किया है कि इस सम्बंध में कानूनी प्रावधान किया जाना चाहिए, नया एक्ट बनना चाहिए। सरकार को इस संबंध में कड़े कदम उठाने चाहिए ।
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