मंगलवार, 10 जून 2014

कृषि जगत
जी.एम.बीज और खेती की बर्बादी
वसंत फुटाणे
    पिछली केन्द्र सरकार द्वारा चुनाव की घोषणा हो जाने के पश्चात खुले वातावरण में जीएम फसलों के परीक्षण की अनुमति देना, देश की बर्बादी को न्योता देने जैसा है । विश्वभर में जीएम फसलों पर लगते प्रतिबंधों के बाद हमारे यहां इसकी अनुमति दिए जाना अनेक शंकाओं को जन्म दे रहा है । अब नयी सरकार पर निर्भर है कि वह देश की कृषि को जिंदा रखने के लिए किस प्रकार के कदम उठाती है ।
    खरपतवार नाशी सुरक्षित हैं, मिट्टी के स्पर्श से ये निष्क्रिय हो जाते  हैं । गांव के कृषि सामग्री विक्रेता अक्सर ऐसा कहते हैं और किसान उन पर विश्वास भी करता है । जरूरत हो या न हो आधुनिकता तथा सुविधा के  कारण भी खरपतवारनाशी रसायनों का इस्तेमाल तेजी से फैल रहा है । जी.एम. बीजों के खुले वातावरण में परीक्षण के  लिए केन्द्र से भी हरी झंडी दिखा दी गई है । सवाल उठता है जी.एम. बीजों पर देश-दुनिया में विवाद होने के बावजूद पूर्व केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्री वीरप्पा मोइली जल्दबाजी में ऐसा कदम कैसे उठ ा पाए ? क्या इससे (कृषि रसायनों से होने वाला) प्रदूषण घटेगा और जनता को सुरक्षित भोजन    मिलेगा ?


     अभी-अभी दक्षिण अफ्रीका में विज्ञापन मानक प्राधिकरण ने रेडीओ (७०२) के जीएम बीजों के विज्ञापनों पर रोक लगा दी । `जैव सुरक्षा हेतु अफ्रीकी केन्द्र` की शिकायत पर यह कार्यवाही की गई । मोन्सेंटो अपने स्वयं के वेबसाइट के अलावा किसी अन्य द्वारा स्वतंत्र रूप से अपने दावे की पुष्टि नहीं करा सकी है। दक्षिण अफ्रीका में एक प्रदर्शनकारी ने सवाल पूछा अगर जी.एम. सुरक्षित है तो, हालैंड, ग्रीस, स्विटजरलैंड, मेक्सिको, पुर्तगाल, हवाई, अल्जीरिया, नार्वे, न्यूजीलैंड, मैडीरा, सऊदी अरब, ऑस्ट्रेलिया, हंगरी, बल्गारिया, और दक्षिण ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में इस पर पाबंदी क्यों लगाई गई है ?
    गौरतलब है कि चीन ने छ: माह पूर्व अमेरिका को जी.एम. मक्का खरीदने से मना कर दिया था और फ्रांस ने मोन्सेंटों के मॉन (८१० जीई  मक्का प्रजाति) पर प्रतिबंध कायम रखा है। खरपतवारनाशी रसायनों का प्रयोग सुलभ करने हेतु जी.एम. बीजों का विकास किया जा रहा है । मोन्सेंटो कंपनी द्वारा विकसित राउंडअप उत्पाद में ग्लायफोसेट रसायन का प्रयोग प्रमुख रूप से है । `ग्लायफोसेट का संबंध समय से पूर्व प्रसव तथा गर्भपात, हड्डी तथा अन्य प्रकार के कैंसर व डी.एन.ए. के  नुकसान से जुड़ता है । राऊंडअप के कारण २४ घंटों के भीतर मनुष्य की मांसपेशियां मर जाती हैं । खेती में अल्प मात्रा में उपयोग होने पर भी मानव एवं पशुओं दोनों पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है ।
    ग्लायफोसेट मानवी शरीर की हार्मोन निर्माण और व्यवस्था में तोड़फोड़ करता है । अमेरिकी सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम अवशेष सीमा से ८०० (आठ  सौ) गुणा कम होने पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है । मेंढक, कछुआ, केकड़े जैसे उभयचारी जीवों के लिए राऊंडअप जान लेवा है । कृषि में इस रसायन के  इस्तेमाल के कारण मेंढकों की संख्या ७० प्रतिशत कम हुई है ।
    श्रीलंका सरकार ने भी हाल ही में मोन्सेंटो के `ग्लायफोसेट` खरपतवारनाशी पर प्रतिबंध लगाया    है । खेतीहर मजदूरों में किडनी की बीमारियां बढ़ने के कारण वहां यह कदम उठाया गया । लखनऊ  के विष विज्ञान संस्था के अध्यक्ष के अनुसार खरपतवारनाशी का संबंध कैंसर के साथ जुड़ता है । पंजाब सरकार के सर्वेक्षण के अनुसार भटिंडा तथा आसपास के जिलों में जहां आधुनिक कृषि होती है वहां एक भी कुएं  का पानी  पीने लायक नहीं बचा है ।
    पंजाब के गांव-गांव में कैंसर के मरीज पाए जाते हैं । वहां `कैंसर ट्रेन` भी चलती है । महाराष्ट्र में नागपुर के  पास भी कैंसर  के इलाज हेतु दो बड़े निजी अस्पताल खुलने जा रहे हैं । नागपुर में निजी अस्पतालों की संख्या बहुत है । मध्यप्रदेश के जबलपुर से अमरावती चलने वाली रेलगाड़ी में नागपुर के  अस्पतालों में आने वाले मरीजों की काफी संख्या अधिक होती है । इटारसी होकर मध्य भारत में चलने वाली इस गाड़ी का भविष्य भी कैंसर ट्रेन जैसा ही हो सकता है ।
    गांव-गांव में कंपनियों का अपना प्रचार होता है । गांव का कृषि सामग्री विक्रेता किसानों का मार्गदर्शक, साहुकार तथा उपज खरीददार सबकुछ होता है । बुआई के पिछले मौसम में इन्हीं के माध्यम से मोन्सेंटों ने कपास की नई जी.एम. प्रजाति आर.आर.एफ. पिछले दरवाजे से बेची । इन बीजों को मान्यता न होने के बावजूद बड़े पैमाने पर सब दूर इनका कारोबार चला जिससे राउंडअप खरपतवारनाशी का इस्तेमाल आसान हुआ । आर.आर.एफ. कपास बीज इसी हेतु विकसित किए जा रहे है ं। किसान को इसमें सुविधा दिखती है, खेती में समय पर (उचित दामों में) मजदूर उपलब्ध नहीं होने पर यह अच्छा विकल्प लगता है । किंतु इन रसायनों के काले पक्ष से बिलकुल अनभिज्ञ होना भी इनके प्रयोग में आने का एक महत्वपूर्ण कारण है ।
    सरकार का भी इन कंपनियों पर वरदहस्त है । तभी तो वीरप्पा मोइली ने जल्दबाजी में जीएम बीजों के खुले वातावरण में परीक्षण की अनुमति प्रदान की। पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश तथा श्रीमती जयंती नटराजन ने इसकी अनुमति नहीं दी थी। इस मामले की सुनवाई उच्च्तम न्यायालय में भी चल रही है, इसके बावजूद मंत्रीजी ने यह कमाल कर दिखाया है। उच्च्तम न्यायालय द्वारा गि त विशेषज्ञ समिति तथा संयुक्त  संसदीय समिति दोनों इन परीक्षणों के पक्ष में नहीं हैं । देश के  स्वतंत्र वैज्ञाानिक भी इन परीक्षणों के  प्रति अपनी चिंता प्रधानमंत्री को जता चुके हैं । फिर भी चुनाव घोषणा के बाद यह निर्णय लिया गया ।
    महाराष्ट्र ने इन परीक्षणों के  लिए पहले ही अपनी हरी झंडी दिखा दी किन्तु अभी मध्यप्रदेश का विरोध और छत्तीसगढ़ की अनुकूलता सामने आई है, तो जनता क्या समझे ? क्या राजनीतिज्ञ सुविधा का खेल खेल रहे      हैं ? बी.टी. कपास का जहर सुंडी पर बेअसर साबित हो रहा है । ऐसी बीमारियां जो पहले नगण्य थीं वह भी अब नुकसान पहुंचाने लगी हैं। खरपतवारनाशी रसायनों का भी यही हाल होगा । आगे चलकर इन रसायनों से घास (तण) नियंत्रण भी संभव नहीं हो पाएगा । तब हम क्या रसायनों की मात्रा बढ़ाते  जाएंगे ? अधिक तीव्र रसायनों का इस्तेमाल करेंगे ? अंतत: यह रास्ता हमें कहां पहुंचाएगा ?
    सवाल उठता है विश्व स्तर पर शुद्ध भोजन तथा सुरक्षिण पर्यावरण के लिए जैविक कृषि मान्य होने के बावजूद जी.एम. बीजों का सारी दुनिया में व्यापार फैलाने में मोन्सेंटो तथा अन्य कंपनियां कैसे सफल हो रही हैं ? क्या सरकारें भी लालच के मारे अंधी हो सकती हैं ? जी.एम. बीज अगर आते हैं तो जैविक कृषि चौपट होना अवश्यंभावी है । जी.एम. का प्रदूषण जैविक फसलों मेंे व देशी बीजों में घुसेगा । एक बार का बिगड़ा बीज पुन: सुधारा नहीं जा  सकता । अत: जी.एम. तकनीक अपरिवर्तनीय है । अगर इनसे बचना है तो अभी इसी समय इन्हें रोकना होगा । किंतु यह जानकारी किसानों तक कौन पहुंचाएगा ? गांव का कृषि सामग्री विक्रेता तो कंपनी का एजेंट है । वो जहर का व्यापारी है, तब यह कैसे होगा ।
    लेकिन पढ़ा लिखा ग्राहक यह कार्य जरूर कर सकता है । किसान के  दरवाजे पर वो स्वयं पहुंचे, विष मुक्त  भोजन की मांग करे, उसके साथ मैत्री का नाता जोड़े तथा उसके सुख-दुख में सहभागी होंे । वर्तमान में किसानों तक सही कृषि विज्ञान नहीं बल्कि कंपनी का प्रचार पहुंच रहा है । किसान अपना माल लेकर ग्राहक के दरवाजे पर नहीं जा सकता न ही वह अपना खेत घर छोड़ सकता है। अत: ग्राहक को ही उसे पास जाना    होगा ।
    आज जैविक कृषि चंद किसानों तक सीमित है । ग्राहकों की पहल से ही वह व्यापक रूप ले सकती   है । इसे जनआंदोलन का रूप दिया जाना आवश्यक है तभी जैविक उत्पाद आम आदमी का भोजन बन सकेंगे वरना तो वह निर्यात मॉल तक ही सीमित रहेंगे।

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