मंगलवार, 10 जून 2014

ज्ञान विज्ञान
पॉवर लाइनें जानवरों को डराती हैं
    कई जानवर हाई टेंशन पॉवर लाइन्स से कतराते हैं । इनमें रेनडीयर जैसे कुछ स्तनधारी जीव और पक्षी भी शामिल हैं । अब कुछ वैज्ञानिकों ने इसकी व्याख्या के लिए एक परिकल्पना पेश की है । युनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन के नेत्र संस्थान के ग्लेन जेफ्री और उनके साथियों का मत है कि ये जानवर पॉवर लाइनों से निकलने वाली पराबैंगनी किरणों की वजह से उनसे दूर-दूर रहते  हैं । 


     वैसे तो गावों, शहरों और खेतों के बीच से गुजरने वाली ये वॉवर लाइनें पूरे नजारे को बिगाड़ती हैं मगर इनमें से जो पराबैंगनी रोशनी निकलती है वह हम इंसानों के लिए अदृश्य ही रहती हैं । मगर जो पराबैैंगनी प्रकाश को देख सकते हैं, उनके लिए तो ये पॉवर लाइनें भयानक खतरे का संकेत होती हैं ।
    कंजर्वेशन बायोलॉजी नामक पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र में जेफ्री व उनके साथियोंने कहा है कि रेनडीयर कुतरने वाले जंतु और पक्षी पराबैंगनी रोशनी को देख सकते हैं । इस वजह से इन्हें पॉवर लाइनों के आसपास एक आभामंडल नजर आता है । इस आभामंडल को देखकर वे समझ जाते हैं कि यह इलाका सुरक्षित नहीं है ।
    वैसे रेनडीयर की आंखों में पराबैंगनी किरणों को ग्रहण करने के लिए उपयुक्त प्रोटीन नहीं पाए जाते मगर फिर भी उनकी आंखें पराबैंगनी प्रकाश के प्रति संवेदी होती हैं ।
    यदि जेफ्री के दल की यह परिकल्पना सही है तो इसका ध्यान वन्य जीव संरक्षण मेंरखना होगा । यदि ये पॉवर लाइनें सचमुच इन जानवरों के लिए एक बाधा का काम करती हैं तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं । जैसे पॉवर लाइनों के दो तरफ की आबादियों में मेल-मिलाप में रूकावट आ सकती है और कई प्रजातियों के प्रवास में दिक्कत आ सकती है । ऐसे में पॉवर कंपनियों को और ज्यादा ध्यान देना होगा कि लाइनें कहां डालें ।
    वैसे अभी इस परिकल्पना की पुष्टि नहींं हुई है । जैसे कुछ दृष्टि विशेषज्ञोंका कहना है कि यह तो सही है कि रेनडीयर जैसे प्राणी पराबैंगनी के प्रति संवेदनशील होते हैं और इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि वे रात के समय पॉवर लाइनों से दूर रहेंगे । मगर ये प्राणी तो दिन के समय उजाले में भी पॉवर लाइनों से बचने की कोशिश करते हैं, जबकि दिन में चारों और पराबैंगनी प्रकाश फैलाहोता है ।
    ऐसे सवालों को लेकर जेफ्री अपने साथियों के साथ आगे ज्यादा व्यवस्थित अध्ययन की योजना बना रहे हैं । इसके लिए उन्होंने एक मशीन विकसित की है जो ठीक पॉवर लाइन के समान पराबैंगनी प्रकाश का आभामंडल पैदा करती है । इसे लेकर वे आक्र्टिक क्षेत्र में प्रयोग करने जा रहे हैं ।

मनुष्य तीन खरब गंध पहचान सकते हैं

    आम तौर पर यह माना जाता है कि मनुष्यों में गंध पहचानने की क्षमता बहुत कमजोर होती हैं । १९२० के दशक में मोटी-मोटी गणनाआें के आधार  पर निष्कर्ष  निकाला गया था कि मनुष्य अधिक से अधिक १०,००० गंधों के बीच अंतर कर सकते हैं । मगर हाल ही में किए गए प्रयोगों से पता चला है कि मनुष्य लगभग तीन खरब अलग-अलग गंधों के बीच भेद कर पाते हैं । 


    हमारी नाक में कई ग्राही होते हैं । जब हम सांस लेते हैं तो हवा में मौजूद गंधवाले अणु इन ग्राहियों से जुड़ जाते हैं । जैसे ही गंधयुक्त अणु ग्राही से जुड़ता है, दिमाग को एक संदेश पहुंचता है । अधिकांश गंध एक से अधिक रासायनिक अणुआें के मेल से बनती है । मसलन चॉकलेट की खूशबू सैकड़ों ऐसे अणुआें का परिणाम होती    है । जब इतने विविध प्रकार के अणु अलग-अलग ग्राहियों से जुड़ते हैं, तो मस्तिष्क को काफी पेचीदा संदेश पहुंचाते हैं । यह समझना अपने-आप में एक पहेली रही है कि मस्तिष्क इतने सारे संदेशों में से गंध को कैसेपहचान पाता है ।
    मनुष्यों में गंध को पहचानने की क्षमता का आकलन करने के लए रॉकफेलर विश्वविद्यालय की लेसली वोशाल और उनके साथियों ने १२८ ऐसे रासायनिक पदार्थ लिए जिनके विभिन्न सम्मिश्रण अलग-अलग गंध पैदा करते हैं। वोशाल के दल ने इन १२८ रसायनों के कई अलग-अलग मिश्रण बनाए - किसी मिश्रण में १० तो किसी में २० रसायनों को मिलाया गया था ।
    अब कुछ वालंटियर्स को भर्ती किया गया । ये वालंटियर्स पेशेवर शराब या कॉफी या चाय को चखने वाले लोग नहीं थे बल्कि साधारण लोग थे । हरेक वालंयिटर को एक बार में तीन-तीन मिश्रण सूंघने को दिए गए । इनमें से दो मिश्रण हूबहू एक जैसे ही थे जबकि तीसरा अलग था । वालंटियर्स को यह पहचानना था कि कौन-सा मिश्रण अलग गंध वाला है । यह प्रयोग कई मिश्रणों के साथ किया गया ।
    औसतन जब दो मिश्रणों के रसायनों में ५० प्रतिशत का अंतर था तो वालंटियर्स उनके बीच भेद कर    पाए । जब वोशाल के दल ने यह गणना की कि १२८ रसायनों के कितने अलग-अलग मिश्रण बन सकते हैं और उस संख्या पर अपने प्रयोग के आंकड़ों को लगाया तो निष्कर्ष निकला कि औसतन हर वालंटियर तीन खरब मिश्रणों के बीच भेद कर पाएंगे ।
    वैसे इस मामले में काफी विविधता भी है । जैसे उक्त प्रयोग मेंसबसे खराब प्रदर्शन करने वाले व्यक्ति के आंकड़े दर्शाते हैं कि वह ८ करोड़ अलग-अलग गंधों के बीच भेद कर पाएगा जबकि सबसे बढ़िया सूंघनेवाले के मामले में यह संख्या हजार खरब तक हो सकती है । वैसे हमारे पर्यावरण में इतनी खुशबुएं होती ही नहीं हैं कि हमें अपनी इस पूरी क्षमता का उपयोग करने का मौका मिले या जरूरत पड़े । मगर वोशाल को लगता है कि इस जानकारी के आधार पर इत्र, परफ्यूम्स बनाने वालें को नए अवसर मिलेंगे ।

रेशम के स्क्रू से हडि्डयों को जोड़ेंगे

    रेशम जितना मुलायम दिखता है उतना है नहीं । यदि रेशत और स्टील के बराबर मोटाई के तार लिए जाएं तो रेशम की उोर की ताकत लगभग स्टील के बराबर निकलती     है । अब वैज्ञानिकों ने इसी रेशम को ढालकर स्क्रू बनाने की तकनीक विकसित कर ली है । इन रेशमी स्क्रू का उपयोग टूटी हुई हड्डी को जोड़कर रखने में किया जा सकेगा । 
     आम तौर पर टूटी हड्डी को जोड़कर रखने के लिए मिश्र धातु (एलॉय) की प्लेट्स और स्क्रू का उपयोग किया जाता है । दिक्कत यह होती है कि यदि धातु की प्लेट पर जंग लग जाए तो आपरेशन करके इन्हें निकालकर नई प्लेट लगाना पड़ती है । एक विकल्प जैव-विघटनशील पदार्थोंा का है । ये ऐसे पदार्थ होते हैं जो सजीवों के शरीर में समय के साथ विघटित हो जोत  हैं । मगर इनके उपयोग में एक समस्या यह आती है कि सूजन पैदा होती है । दूसरी दिक्कत यह होती है कि पदार्थ आम तौर पर काफी मुलायम होते हैं और इनसे बने स्क्रू को हड्डी में कसने के लिए पहले हड्डी में सुराख करके उस सुराख मेंचूड़ियां बनानी पड़ती हैं जिसमें बहुत ज्यादा समय लगता है ।
    इन समस्याआें से निपटने के लिए टफ्ट्स विश्वविद्यालय (मैसाचुसेट्स) के डेविड कैप्लान और हार्वर्ड मेडिकल स्कू ल के सेमुअल लिन ने रेशम का इस्तेमाल करने पर विचार किया । रेशम एक किस्म का प्रोटीन होता है । सबसे पहले उन्होंने रेशम को अल्होकल में घोल लिया । इस घोल को एक सांचे में डाला । सांचा एक स्क्रू के आकार का था । घोल भरने के बाद सांचे को तपाया गया । अल्कोहल तो वाष्पित हो गया और रेशम का स्क्रू प्राप्त्   हुआ ।
    अब बारी थी इन स्क्रू को हडि्डयों में कसने की । जब कैप्लान और लिन ने रेशमी स्क्रू को चूहोंकी हडि्डयों में कसा तो पाया कि ये स्क्रू इतने सख्त हैं कि हड्डी में बने सुराख में खुद ही चूड़ियां बनाकर आगे बढ़ जाते हैं । ये स्क्रू समय के साथ विघटित हो जाते हैं और अन्य जैव-विघटनशील पदार्थोंा   के समान सूजन भी पैदा नहीं       करते ।
    इस तकनीक का इंसानों पर परीक्षण जल्दी ही शुरू होने की उम्मीद की जा रही है ।

कोई टिप्पणी नहीं: