वानिकी जगत
बूढ़े पेड़ ज्यादा तेजी से बढ़ते है
विनिता विश्वनाथन
हमारे मन में पुराने/बूढ़े पेड़ों की एक छवि बनी है । ऊंचे, विशाल, हल्की से झुकती हुई डालें और उनके पत्तों की धीमी-सी सरसराहट । ये वयस्क जीव हमें बुढ़ापे की ओर धीरे-धीरे बढ़ते हुए समझ में आते हैं । इस छवि की एक वजह हमारी यह मान्यता है कि कुछ सालों की तेज वृद्धि के बाद जैसे-जैसे पेड़ों की उम्र बढ़ती है, उनकी वृद्धि दर कम होती जाती है ।
विश्व में ६ महाद्वीपों के उष्ण-कटिबंधी और समशीतोष्ण क्षेत्रों की ४०३ प्रजातियों के करीब ७ लाख पेड़ों के अध्ययन से पता चला है कि आकार में जितना बड़ा पेड़, उतनी ही अधिक उसकी वृद्धि दर होती है । यह शोध यू.एस. जिओलॉजिकल सर्वे के निक स्टीफेन्सन और साथियों ने १०० से भी ज्यादा शोधकर्ताआें की मदद से किया है । उनके शोध से यह समझ में आता है कि सबसे ज्यादा उम्र के पेड़ सबसे अधिक तेजी से और आश्चर्यजनक दर से बढ़ रहे हैं । उदाहरण के लिए एक साल में किमी १०० से.मी. व्यास के पेड़ का द्रव्यमान उतना ब़़ढ जाता है जैसे कि १०-२० से.मी. व्यास के पेड़ की वृद्धि दर ५० से.मी. व्यास के पेड़ से तीन गुना ज्यादा पाई गई ।
बूढ़े पेड़ ज्यादा तेजी से बढ़ते है
विनिता विश्वनाथन
हमारे मन में पुराने/बूढ़े पेड़ों की एक छवि बनी है । ऊंचे, विशाल, हल्की से झुकती हुई डालें और उनके पत्तों की धीमी-सी सरसराहट । ये वयस्क जीव हमें बुढ़ापे की ओर धीरे-धीरे बढ़ते हुए समझ में आते हैं । इस छवि की एक वजह हमारी यह मान्यता है कि कुछ सालों की तेज वृद्धि के बाद जैसे-जैसे पेड़ों की उम्र बढ़ती है, उनकी वृद्धि दर कम होती जाती है ।
विश्व में ६ महाद्वीपों के उष्ण-कटिबंधी और समशीतोष्ण क्षेत्रों की ४०३ प्रजातियों के करीब ७ लाख पेड़ों के अध्ययन से पता चला है कि आकार में जितना बड़ा पेड़, उतनी ही अधिक उसकी वृद्धि दर होती है । यह शोध यू.एस. जिओलॉजिकल सर्वे के निक स्टीफेन्सन और साथियों ने १०० से भी ज्यादा शोधकर्ताआें की मदद से किया है । उनके शोध से यह समझ में आता है कि सबसे ज्यादा उम्र के पेड़ सबसे अधिक तेजी से और आश्चर्यजनक दर से बढ़ रहे हैं । उदाहरण के लिए एक साल में किमी १०० से.मी. व्यास के पेड़ का द्रव्यमान उतना ब़़ढ जाता है जैसे कि १०-२० से.मी. व्यास के पेड़ की वृद्धि दर ५० से.मी. व्यास के पेड़ से तीन गुना ज्यादा पाई गई ।
हम तो मानकर चल रहे थे कि पेड़ों की वृद्धि दर उम्र के साथ कम होती जाती है । तो पेड़ों की वृद्धि दर को लेकर हम इतना गलत क्योंनिकले ? कुछ लोग कह सकते हैं कि मनुष्य के रूप में हमारे अपने अनुभव की वजह ये यह गलती हुई होगी । मनुष्यों में तो हम देखते आए हैं कि बुजुर्गोंा में वृद्धि धीमी हो जाती है । इसे परिस्थिति पर मनुष्यों के मानकों को थोपना अर्थात मानवीकरण कहते हैं । मगर अब लगता है कि पेड़ों को लेकर यह गलतफहमी मात्र मानवीकरण का नतीजा नहीं थी ।
दरअसल, गलतहमी का कारण इस विषय पर आज तक हुए कुछ शोध भी हैं । जैसे कि प्लान्टेशन (जिनमें एक ही प्रजाति के लगभग एक ही उम्र के पेड़ होते हैं) और कुछ जंगलोंपर हुए शोध के आधार पर हमारा निष्कर्ष था कि बढ़ती उम्र के साथ उनकी वृद्धि कम हो जाती है । यह निष्कर्ष इसलिए निकला कि उनकी उत्पादकता या नेट प्रायमरी प्रोडक्टिविटी कम हो जाती है । इसका मतलब है कि जैसे-जैसे किसी प्लान्टेशन के पेड़ बड़े होते हैं, उनमें पहले से कम कार्बन पुड़ता है । वनस्पतियों में प्रकाश संश्लेषण की क्रियाकी वजह से कार्बोहाइड्रेट के निर्माण के चलते उनमें कार्बन जुड़ता जाता है । चूंकि बड़े पेड़ों की नेट प्रायमरी प्रोडक्टिविटी कम होती हैै, इसलिए आज तक विश्व भर में वन अधिकारी और वन संवर्धकों ने जंगलों और प्लान्टेशन में कम उम्र के पेड़ों की संख्या को बनाए रखने पर ज्यादा ध्यान दिया है ।
बढ़ती उम्र के साथ कम उत्पादकता का एक कारण यह माना जाता है कि उम्र के साथ पत्तियों की कार्यक्षमता, उनकी प्रकाश संश्लेषण की क्षमता कम होती जाती है । पत्ती के प्रति वर्ग से.मी. क्षेत्रफल में प्रकाश संश्लेषण के कारण जो कार्बोहाइडेट बनता है, वह पहले से कम हो जाता है । तो ऐसे में पेड़ की वृद्धि कम होना लाजमी है । बढ़ती उम्र के साथ घटती वृद्धि का एक और कारण यह भी माना जाता है कि बड़े होने पर पेड़ों को अपनी ऊर्जा का उपयोग वृद्धि में कम और प्रजनन में ज्यादा करना होता है ।
एक दिक्कत यह है कि ज्यादातर शोध प्लान्टेशन में या समूचे जंगल के स्तर पर हुए हैं । अकेले पेड़ों पर काम कम हुआ है । जब पूरे जंगल या प्लान्टेशन को नापा जाता है तो मृत्यु दर अक्सर छिप जाती है । वृद्धि नापने के लिए एक बार पेड़ों को नापकर कुछ समय बाद उनको दोबारा नापा जाता है । तो इस अंतराल मेंप्लान्टेशन या जंगल के कुछ पेड़ो की मृत्यु तो हुई होगी । अगर आकलन में ये पेड़ छूट जाते हैं, तो जंगल या प्लान्टेशन के स्तर पर वृद्धि कम ही दिखेगी । दूसरी बात, अगर उम्र और वृद्धि के रिश्ते को समझने के लिए बराबर क्षेत्रफल के दो ऐसे प्लान्टेशन की तुलना करते हैं जिनमें सिर्फ पेड़ों की उम्र में फर्क है तो भी गड़बड़ हो सकती है । यह इसलिए कि बराबर क्षेत्रफल के होने के बावजूद, अक्सर प्लान्टेशन में आप कम उम्र के छोटे पेड़ों को ज्यादा संख्या में लगे पाएंगे और अधिक उम्र के कम पेड़ पाएंगे ।
ऐसी परिस्थिति में पेड़ों को नापकर नतीजा सुनाना गलत साबित हो सकता है । अक्सर ऐसा भी होता है कि अध्ययन के लिए चुना गया प्लान्टेशन या जंगल बहुत ही विशाल है और नमूने के तौर पर कुछेक पेड़ों को नापा जाता है । जरूरी नहीं है कि जिन पेड़ों को पहले नापा था, उन्हीं पेड़ों को एक समय अंतराल के बाद फिर से नापा जाए उतनी ही संख्या के किन्हीं अन्य पेड़ों को नापा जा सकता है । कहने का मतलब है कि प्लान्टेशन या जंगल के स्तर पर शोध होता है तो दिक्कतेंभी हो सकती हैं ।
अब ऐसा भी नहीं था कि उम्र के साथ घटती वृद्धि पर पूरी सहमति थी । एक मुख्य सिद्धान्त, जो मेटाबॉलिक स्केलिंग थ्योरी के नाम से जाना जाता है, के मुताबिक पेड़ों के द्रव्यमान में वृद्धि के साथ उनकी वृद्धि दर भी लगातार बढ़ती जानी चाहिए । और वृद्धि दर में यह बढ़ोतरी उम्र के साथ पेड़ों की घटती कार्यक्षमता के बावजूद संभव है । होता यह है कि उम्र के साथ, पत्तियों की मात्रा भी बढ़ जाती है, और इतनी बढ़ती है कि उस पेड़ की पत्तियों की सतह का कुल क्षेत्रफल उम्र के साथ बढ़ता है । पत्तियों का कुल क्षेत्रफल बढ़ने के साथ ही बढ़ता है उनका प्रकाश संश्लेषण, कार्बोहाइड्रेट का उत्पादन और द्रव्यमान में वृद्धि । तो इस विरोधाभास को सुलझाने की दृष्टि से स्टीफेन्सन और साथियों ने अपना शोध किया ।
अपने शोध में स्टीफेन्सन और अन्य शोधकर्ताआें ने उन पेड़ों को चुना जो कम से कम १० से.मी. के व्यास के थे, और किसी भी जंगल मेंउन प्रजातियों के पेड़ों को नापा जिनके कम से कम ४० पेड़ उनको मिले । उन्होंने जमीन से ऊपर एक निर्धारित ऊंचाई पर तने पर पेड़ों के व्यास को दो बार नापा, कम से कम एक साल के अंतराल मेंऔर कहीं कहीं पांच से दस साल के अंतराल में । फिर सिद्ध समीकरणों के जरिए व्यास को लेकर हर प्रजाति के पेड़ों के सूखे द्रव्यमान का आकलन किया । इन आंकड़ों को लेकर फिर उन्होंने व्न्ृिद्ध दर से आकलन किए । इस प्रकार १२ देशों के जंगली इलाकोंसे शोधकर्ताआें ने डैटा स्टीफेन्सन को भेजा और काफी विश्लेषण के बाद अपने उपरोक्त नतीजोंपर पहुंचे ।
खैर, अब तो कह सकते हैं कि कार्बन जोड़ने के लिए वयस्क, विशाल पेड़ों को बचाने की भी जरूरत है । यह तो कहा नहीं जा सकता है कि जंगलों में छोटे पेड़ कम और बड़े पेड़ ज्यादा होने चाहिए, क्योंकि बराबर क्षेत्रफल में कार्बन जोड़ने में कम कुशलछोटे पेड़ बड़े पेड़ों की तुलना में काफी ज्यादा लगाए जा सकते है । लेकिन वायुमण्डल से कर्बन डाईऑक्साइड के अवशोषण में बड़े पेड़ कही ज्यादा अच्छा काम करते हैं और इस कारण इनाके प्लान्टेशन और जंगलों में ज्यादा सुरक्षा मिलनी चाहिए । ये बड़े पेड़ गिनती में तो जंगलों के कुल पेड़ों का २ प्रतिशत होते हैं, लेकिन जंगल के जीवित द्रव्यमान को देखें तो उसमें इन बड़े पेड़ों का योगदान २५ प्रतिशत तक होता है ।
अलबत्ता, बड़े पेड़ों को बचाए रखना आसान काम नहीं होगा क्योंकि जंगलों या प्राकृतवास का विखण्डन जो जंगलों और जैव विविधता के लिए कई दशकों से सबसे बड़े खतरों में से एक रहा है, इन पेड़ों को अनुपातहीन रूप से प्रभावित करता है । प्राकृतवास के विखण्डन की बात को यूं समझते हैं । किसी भी जंगल की परिधि पर कुछ पेड़ होंगे । बाहर के दबाव, जैसे हवा-आंधी का जोर, रोगाणु, लकड़ी का काटना, मवेशियों का चरना, ये सब अंदर के पेड़-पौधों-जीवों को कम और परिधि के पेड़ों को ज्यादा प्रभावित करते हैं । यदि इसी जंगल को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट दिया जाए, तो परिधि पर लगे पेड़ों की संख्या ज्यादा हो जाएगी । अगर सारे खंडों का क्षेत्रफल कुल मिलाकर उस बड़े जंगल जितना भी हो तब भी, सीमा पर रहने का प्रभाव तो दिखेगा और विखंडित परिस्थिति में परिधि पर ज्यादा पेड़ हैं । जितने ज्यादा खण्ड, उतना ज्यादा दबाव पेड़ों और जंगल के अन्य जीवों पर । स्टीफेन्सन और साथियों के इस शोध के कई निहितार्थ हैं । हमें एक और कारण तो मिलता है पुराने, बूढ़े पेड़ों को बचाकर रखने का । साथ में इस बहस को सुलझाने में यह शोध हमारी मदद कर सकता है कि बढ़ते कार्बन डाईऑक्साइड प्रदूषण के चलते, पेड़ों में अधिक कार्बन जोड़ने के लिए कम उम्र के पेड़ ज्यादा मददगार हैं या बड़े पेड़ ।
दरअसल, गलतहमी का कारण इस विषय पर आज तक हुए कुछ शोध भी हैं । जैसे कि प्लान्टेशन (जिनमें एक ही प्रजाति के लगभग एक ही उम्र के पेड़ होते हैं) और कुछ जंगलोंपर हुए शोध के आधार पर हमारा निष्कर्ष था कि बढ़ती उम्र के साथ उनकी वृद्धि कम हो जाती है । यह निष्कर्ष इसलिए निकला कि उनकी उत्पादकता या नेट प्रायमरी प्रोडक्टिविटी कम हो जाती है । इसका मतलब है कि जैसे-जैसे किसी प्लान्टेशन के पेड़ बड़े होते हैं, उनमें पहले से कम कार्बन पुड़ता है । वनस्पतियों में प्रकाश संश्लेषण की क्रियाकी वजह से कार्बोहाइड्रेट के निर्माण के चलते उनमें कार्बन जुड़ता जाता है । चूंकि बड़े पेड़ों की नेट प्रायमरी प्रोडक्टिविटी कम होती हैै, इसलिए आज तक विश्व भर में वन अधिकारी और वन संवर्धकों ने जंगलों और प्लान्टेशन में कम उम्र के पेड़ों की संख्या को बनाए रखने पर ज्यादा ध्यान दिया है ।
बढ़ती उम्र के साथ कम उत्पादकता का एक कारण यह माना जाता है कि उम्र के साथ पत्तियों की कार्यक्षमता, उनकी प्रकाश संश्लेषण की क्षमता कम होती जाती है । पत्ती के प्रति वर्ग से.मी. क्षेत्रफल में प्रकाश संश्लेषण के कारण जो कार्बोहाइडेट बनता है, वह पहले से कम हो जाता है । तो ऐसे में पेड़ की वृद्धि कम होना लाजमी है । बढ़ती उम्र के साथ घटती वृद्धि का एक और कारण यह भी माना जाता है कि बड़े होने पर पेड़ों को अपनी ऊर्जा का उपयोग वृद्धि में कम और प्रजनन में ज्यादा करना होता है ।
एक दिक्कत यह है कि ज्यादातर शोध प्लान्टेशन में या समूचे जंगल के स्तर पर हुए हैं । अकेले पेड़ों पर काम कम हुआ है । जब पूरे जंगल या प्लान्टेशन को नापा जाता है तो मृत्यु दर अक्सर छिप जाती है । वृद्धि नापने के लिए एक बार पेड़ों को नापकर कुछ समय बाद उनको दोबारा नापा जाता है । तो इस अंतराल मेंप्लान्टेशन या जंगल के कुछ पेड़ो की मृत्यु तो हुई होगी । अगर आकलन में ये पेड़ छूट जाते हैं, तो जंगल या प्लान्टेशन के स्तर पर वृद्धि कम ही दिखेगी । दूसरी बात, अगर उम्र और वृद्धि के रिश्ते को समझने के लिए बराबर क्षेत्रफल के दो ऐसे प्लान्टेशन की तुलना करते हैं जिनमें सिर्फ पेड़ों की उम्र में फर्क है तो भी गड़बड़ हो सकती है । यह इसलिए कि बराबर क्षेत्रफल के होने के बावजूद, अक्सर प्लान्टेशन में आप कम उम्र के छोटे पेड़ों को ज्यादा संख्या में लगे पाएंगे और अधिक उम्र के कम पेड़ पाएंगे ।
ऐसी परिस्थिति में पेड़ों को नापकर नतीजा सुनाना गलत साबित हो सकता है । अक्सर ऐसा भी होता है कि अध्ययन के लिए चुना गया प्लान्टेशन या जंगल बहुत ही विशाल है और नमूने के तौर पर कुछेक पेड़ों को नापा जाता है । जरूरी नहीं है कि जिन पेड़ों को पहले नापा था, उन्हीं पेड़ों को एक समय अंतराल के बाद फिर से नापा जाए उतनी ही संख्या के किन्हीं अन्य पेड़ों को नापा जा सकता है । कहने का मतलब है कि प्लान्टेशन या जंगल के स्तर पर शोध होता है तो दिक्कतेंभी हो सकती हैं ।
अब ऐसा भी नहीं था कि उम्र के साथ घटती वृद्धि पर पूरी सहमति थी । एक मुख्य सिद्धान्त, जो मेटाबॉलिक स्केलिंग थ्योरी के नाम से जाना जाता है, के मुताबिक पेड़ों के द्रव्यमान में वृद्धि के साथ उनकी वृद्धि दर भी लगातार बढ़ती जानी चाहिए । और वृद्धि दर में यह बढ़ोतरी उम्र के साथ पेड़ों की घटती कार्यक्षमता के बावजूद संभव है । होता यह है कि उम्र के साथ, पत्तियों की मात्रा भी बढ़ जाती है, और इतनी बढ़ती है कि उस पेड़ की पत्तियों की सतह का कुल क्षेत्रफल उम्र के साथ बढ़ता है । पत्तियों का कुल क्षेत्रफल बढ़ने के साथ ही बढ़ता है उनका प्रकाश संश्लेषण, कार्बोहाइड्रेट का उत्पादन और द्रव्यमान में वृद्धि । तो इस विरोधाभास को सुलझाने की दृष्टि से स्टीफेन्सन और साथियों ने अपना शोध किया ।
अपने शोध में स्टीफेन्सन और अन्य शोधकर्ताआें ने उन पेड़ों को चुना जो कम से कम १० से.मी. के व्यास के थे, और किसी भी जंगल मेंउन प्रजातियों के पेड़ों को नापा जिनके कम से कम ४० पेड़ उनको मिले । उन्होंने जमीन से ऊपर एक निर्धारित ऊंचाई पर तने पर पेड़ों के व्यास को दो बार नापा, कम से कम एक साल के अंतराल मेंऔर कहीं कहीं पांच से दस साल के अंतराल में । फिर सिद्ध समीकरणों के जरिए व्यास को लेकर हर प्रजाति के पेड़ों के सूखे द्रव्यमान का आकलन किया । इन आंकड़ों को लेकर फिर उन्होंने व्न्ृिद्ध दर से आकलन किए । इस प्रकार १२ देशों के जंगली इलाकोंसे शोधकर्ताआें ने डैटा स्टीफेन्सन को भेजा और काफी विश्लेषण के बाद अपने उपरोक्त नतीजोंपर पहुंचे ।
खैर, अब तो कह सकते हैं कि कार्बन जोड़ने के लिए वयस्क, विशाल पेड़ों को बचाने की भी जरूरत है । यह तो कहा नहीं जा सकता है कि जंगलों में छोटे पेड़ कम और बड़े पेड़ ज्यादा होने चाहिए, क्योंकि बराबर क्षेत्रफल में कार्बन जोड़ने में कम कुशलछोटे पेड़ बड़े पेड़ों की तुलना में काफी ज्यादा लगाए जा सकते है । लेकिन वायुमण्डल से कर्बन डाईऑक्साइड के अवशोषण में बड़े पेड़ कही ज्यादा अच्छा काम करते हैं और इस कारण इनाके प्लान्टेशन और जंगलों में ज्यादा सुरक्षा मिलनी चाहिए । ये बड़े पेड़ गिनती में तो जंगलों के कुल पेड़ों का २ प्रतिशत होते हैं, लेकिन जंगल के जीवित द्रव्यमान को देखें तो उसमें इन बड़े पेड़ों का योगदान २५ प्रतिशत तक होता है ।
अलबत्ता, बड़े पेड़ों को बचाए रखना आसान काम नहीं होगा क्योंकि जंगलों या प्राकृतवास का विखण्डन जो जंगलों और जैव विविधता के लिए कई दशकों से सबसे बड़े खतरों में से एक रहा है, इन पेड़ों को अनुपातहीन रूप से प्रभावित करता है । प्राकृतवास के विखण्डन की बात को यूं समझते हैं । किसी भी जंगल की परिधि पर कुछ पेड़ होंगे । बाहर के दबाव, जैसे हवा-आंधी का जोर, रोगाणु, लकड़ी का काटना, मवेशियों का चरना, ये सब अंदर के पेड़-पौधों-जीवों को कम और परिधि के पेड़ों को ज्यादा प्रभावित करते हैं । यदि इसी जंगल को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट दिया जाए, तो परिधि पर लगे पेड़ों की संख्या ज्यादा हो जाएगी । अगर सारे खंडों का क्षेत्रफल कुल मिलाकर उस बड़े जंगल जितना भी हो तब भी, सीमा पर रहने का प्रभाव तो दिखेगा और विखंडित परिस्थिति में परिधि पर ज्यादा पेड़ हैं । जितने ज्यादा खण्ड, उतना ज्यादा दबाव पेड़ों और जंगल के अन्य जीवों पर । स्टीफेन्सन और साथियों के इस शोध के कई निहितार्थ हैं । हमें एक और कारण तो मिलता है पुराने, बूढ़े पेड़ों को बचाकर रखने का । साथ में इस बहस को सुलझाने में यह शोध हमारी मदद कर सकता है कि बढ़ते कार्बन डाईऑक्साइड प्रदूषण के चलते, पेड़ों में अधिक कार्बन जोड़ने के लिए कम उम्र के पेड़ ज्यादा मददगार हैं या बड़े पेड़ ।
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