गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

सामाजिक पर्यावरण
भौतिक विकास का नैतिक पक्ष
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल

    हम विकास की अविराम दौड़ में शामिल है । हम आर्थिक उन्नति कर रहे है । भौतिक सुविधाआें का (मेरी निगाह में असुविधाआें का) संसार रच रहे है । हमने शहरों का विस्तार किया । गगनचुम्बी इमारते बना रहे है । सड़को का जाल फैलाया और उनकी चौडीकरण किया । वाहन के बाजार में क्रांति है किन्तु सब ओर भ्रांति है क्योंकि आर्थिक उन्नति पाकर भी मन अशांत है । इसका कारण है भौतिक विकास में नैतिक पक्ष की अनदेखी ।
    हमने अपना ध्यान अशुभतापूर्ण समृद्धि की ओर किया । आखिर की कीमत पर कर रहे है   हम आर्थिक विकास ? क्या नहीं तोड़ा है हमने प्रकृति का विश्वास । भौतिक विकास वरणीय है किन्तु हमें ऐसी किसी भी भौतिक उन्नति की सीमा का निर्धारण अवश्य ही करना चाहिए जो प्रकृति एवं पर्यावरण को हानि पहुंचाती हो और अशांति लाती हो । 
     भौतिक सुख-सुविधाएं पाना हर किसी को अच्छा लगता है, उनमें मन रमता है । समृद्धि का पैमाना भी हमें चुनना है । समृद्धि के रूप पर भी हमें विचार करना होगा, हम किस समृद्धि की बात करें । वह समृद्धि जो बड़ी कीमत चुका कर हासिल हुई   हो । वह समृद्धि जो हमें अन्दर से खोखला करती हो । वह समृद्धि जो प्रकृति को लूट कर पाई हो या वह समृद्धि जो अपराध से पोषित होकर आई हा । उत्तर आधुनिकता के साथ समाज के लोगों में भौतिक वस्तुआें का संचयी भाव बढ़ा है । अनुत्पादक व अत्यधिक संग्रह से सामाजिक एवं प्राकृतिक असंतुलन पैदा होता है । पर्यावरण अवनयन होता है । परिवेश में विषमता एवं विषमयता व्याप्त् होती है । हमें आत्मिक रूप से मजबूत रहते हुए प्रमादपूर्ण सुविधाआें से दूर रहना होगा । अपनी सामरिक समृद्धि को और अधिक सुदृढ़ करना होगा । न्यूनतम उपभोग के दर्शन को अपनाना होगा । हम प्रकृति की कद्र करेंगे तो प्रकृति भी हरी भरी रहेगी । मैं यहाँ पर पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के कथन को उद्धरित कर रहा हॅूं -
     मैं यह नहीं मानता कि समृद्धि और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी है या भौतिक वस्तुआें की इच्छा रखना कोई गलत सोच है । उदाहरण के तौर पर, मैं खुद न्यूनतम वस्तुआें का भोग करते हुए जीवन बीता रहा हॅू । लेकिन में सर्वत्र समृद्धि की कद्र करता हॅूं क्योंकि समृद्धि अपने साथ सुरक्षा तथा विश्वास लाती है, जो अंतत: हमारी आजादी को बनाये रखने में सहायक है । आप अपने आस-पास देखेगे तो पाएंगे कि खुद प्रकृति भी कोई काम आधे-अधूरे मन से नहीं करती । किसी बगीचे में जाइए, मौसम में आपको फूलोंकी बाहर देखने को मिलेगी अथवा ऊपर की तरफ ही देखें, यह ब्रह्माण्ड आपको अनंत तक फैला दिखाई देगा । आपके यकीन से भी परे ।  
    यकीनन प्रकृति अपने उपादन हम पर भरपूर लुटाती है । क्षिति जल पावक, गगन और समीर यह पाँचो विभूतियों प्रकृति प्रदत्त ही तो है । परात्पर रहना ही प्रकृति की थाती    है । यहाँमैं महामहिम की बात के सूत्र के साथ अपनी बात भी कहना चाहता हॅूं कि बहारें तभी तो आयेगी जबकि बगीचे होंगे, फूल तभी तो खिलेगे जबकि पेड़-पौधों होंगे । फूलों में परागण तभी तो होगा जब भंवरे कीट एवं तितलियाँ जिन्दा  रहेगी । लहरों के बीच तभी तो मछलियों अठखेलियाँ करेगी जबकि सदानीरा स्वच्छ जल स्त्रोत होंगे । पंछी तभी तो अपने पंख फैलाकर उन्मुक्त उड़ सकेगे जब कि प्रदूषण एवं अवरोध मुक्त स्वच्छंद आकाश मिलेगा । चिंतनीय प्रश्न यही है कि हम प्रकृति के रूप को बिगाड़ रहे हैं । यह तो भारतीय दर्शन नहीं था । भारत सदैव विश्व में सिरमौर रहा क्योंकि यहाँ जीवन बोध है और उसी के बल पर हम विगत दिनों वैश्विक मंदी की मार से उबर सके ।
    आज सम्पूर्ण विश्व शांति की कामना करता है । शांति आती है सत्य, अहिंसा, प्रेम और संग्रह वृत्ति के परित्याग से । इसलिए प्रत्येक को आत्म संयम का परिचय देना    होगा । हम भौतिक सुविधाआें की इच्छा करें, कोई बुराई नहीं, किन्तु इस बात का ध्यान अवश्य रखें कि अपनी इच्छापूर्ति के कारण हम पर्यावरण का अहित तो नहीं कर रहे हैं । हम अपनी मूलभूत आवश्य-कताआें को जाने और तब तक एैश्वर्यपूर्ण आवश्यकताआें की पूर्ति की कामना कदापि न करें जब तक एक भी व्यक्ति उन मूलभूत आवश्यकताआें से वंचित है । सबके सुख में ही हमारा सुख निहित होता है ।
    यदि हम अमीर है तो हमें विचारों से भी अमीर होना चाहिए । हमारे आचार विचार और व्यवहार प्रकृति एवं पर्यावरण को प्रभावित करते हैं । हमें अपने से कमजोर की सहायता करनी चाहिए न कि उनपर अपना अधिपत्य जमाने की । हमारी पर्वोत्सव परम्पराएँ इसी बात की पोषक है कि हम समाज के हर तबके को साथ लेकर कंधे से कंधा मिलाकर चले । अपरिग्रह के दर्शन को चरितार्थ कर पर्यावरण संतुलन बनाने का प्रयास अवश्य करें । छोटे-छोटे पशु-पक्षी तक संचय नहीं करते, कहीं भंडार नहीं भरते है उनके पोषण की व्यवस्था भी प्रकृति करती है ।
    प्रकृति किसी को भूखा नहीं रखती है । उसकी स्वनियामक सत्ता में सबकी पोषण व्यवस्था है । सबकी मूलभूत न्यूनतम जरूरतों की पूर्ति हेतु चक्रान्तरण व्यवस्था है वस्तुत: यही स्वास्तिक चिन्ह का मर्म है । यह स्वास्तिक चिन्ह शुभता का प्रतीक    है । हम शुभता बनाए रखें । शुभस्य शीघ्रम अर्थात शुभ के पालन में देरीन करें । आवश्यकता इस बात की है कि हम स्वयं के साथ समग्र की भी  सोचें । प्रकृतिके चक्र को न तोड़ें । भौतिकता से मुँह मोड़े, प्रकृति परक बने और रूठी हुई प्रकृति को     मनाएं । अपनी उस मनीषा पर हमें नाज हो जिसने हमें गौरवशाली अतीत एवं वर्तमान दिया तथा भविष्य भी हमें गुरूता प्रदान करेंगी । 

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