गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

कविता
पारस पत्थर
डॉ. दिनेश देवराज
    कुछ लोग बात करते रहते हैं पारस की,
    जिसको छू कर लोहा कंचन हो जाता है ।
    पह पारस पत्थर कहाँगया इस धरती से,
    यह सोच सोच हर लोलुप मन ललचाता है ।।
    पारस पत्थर तो वह गोफन का ढेला है,
    जिससे किसान की बेटी खेत रखाती है ।
    पारस पत्थर तो उस खुरपी की धार जड़ा,
    जिससे बधुआ की बेटी खेत निराती है ।।
    पारस पत्थर तो वह कुदाल का टुकड़ा है,
    जिससे चट्टानी परतें तोड़ी जाती है ।
    जिसके दम पर पर्वत की चौड़ी छाती से,
    जल धाराएँ नहरों की मोड़ी जाती है ।।
    पारस पत्थर तो हल का है वह फाल जिसे,
    छूकर धरती पर नव फसलें लहराती हैं ।
    पारस पत्थर की भस्म छिपी गोधूली में,
    जो गोधन के खुर से गृह तक उड़ आती हैं ।।
    पारस पत्थर तो वह पत्थर का टुकड़ा है,
    जिस पर हंसिया की धार बनाई जाती है ।
    पारस पत्थर तो वह घूरे का गोबर है,
    जिससे धरती की सेज सजायी जाती है ।।
    पारस पत्थर तो वह माता की छाती है,
    जिसको छूकर हर शिशु पौरूष बल खाता है ।
    पारस पत्थर बैलों के खुर में जड़ा हुआ,
    जो बंजर को खेती योग्य बनाता है ।।
    पारस पत्थर तो वह किसान की गृहणी है,
    जो एक फटी धोती पाकर मुस्काती है ।
    पारस पत्थर तो वह ग्रामीण जवानी है,
    जिसके दम पर यह दुनियाँ रोटी पाती है ।।
    पारस पत्थर तो गाँव-गाँव में खिरा है,
    यह सभ्य नगर के लोग समझ कैसेंपायें ।
    पारस पत्थर तो वह गंवार खेतिहर ही हैं,
    जो छुए न तो ये शहर भूख से मर जायें ।। 

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