गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

सामयिक
पर्यावरण विनाश की ओर बढ़ती नीतियां
डॉ. महेश परिमल

    हाल ही मे सरकार ने नई पर्यावरण नीति की घोषणा की है । पर्यावरण और विकास दोनो ही साथ रहें, ऐसी सोच अब तक किसी सरकार में नहीं देखी गई ।
    आम तौर पर सरकार ऐसी नीतियां बनाती हैं, जिससे पर्यावरण का संरक्षण तो कम, विनाश अधिक होता है । कहा यह जाता है कि इन नीतियों से पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ विकास होगा, पर ऐसा होता नहीं है, बल्कि विकास के नाम पर विनाश ही अधिक होता है । एनडीए सरकार पर्यावरण के कारण अटकी परियोजनाओें को आगे बढ़ाना चाहती है । इसलिए पहले पर्यावरण मंजूरी की जो समय सीमा १०५ दिन थी, उसे घटाकर ६० दिन कर दिया गया है । सरकार की यह जल्दबाजी पर्यावरण और वन्य जीवो की सुरक्षा के लिए हानिकारक है । देश की पर्यावरण नीति गलत दिशा में जा रही है । इसके लक्षण अभी से दिखाई दे रहे हैं । 
     कितनी ही परियोजनाये ऐसी होती हैं, जिन्हें पर्यावरणीय अनुमति की आवश्यकता होती है । अनुमति प्राप्त् होने में कई बार देर हो जाती    है । किसी परियोजना से पर्यावरण को किस तरह से हानि हो सकती है, इसकी जानकारी रातों-रात पता नहीं   चलती । उसके लिए पर्यावरणविदों की एक टीम अध्ययन करती है, शोध करती है ताकि पता चल सके कि इस परियोजना से पर्यावरण को किस तरह से हानि होगी । कई परियोजनाओें के खिलाफ पर्यावरणविद्  लामबंद भी होते हैं । सरकार इन विरोधों को गंभीरता से न लेकर आरोप लगाती है कि वे लोग विकास का विरोध कर रहे हैं । कुछ ऐसा ही नई सरकार कर रही है । वह परियोजनाओें को धड़ाधड़ अनुमति देकर विकास के पथ पर तेजी से आगे बढ़ना चाहती है ।
    पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने पद संभालते ही यह संकेत दे दिया कि अब परियोजनाओें  को पर्यावरण अनुमति में विलम्ब नहीं होगा । अभी सरकार के पास पर्यावरण मंजूरी के लिए आने वाले ३५८ परियोजनायें विचाराधीन है । ये परियोजनायें इसलिए विचाराधीन है क्योंकि इस पर विचार चल रहा है ।
    मान लीजिए किसी परियोजना में वन्य जीव अभयारण्य या राष्ट्रीय उद्यान आ रहा हो, तो यह देखना होता है कि परियोजना स्थापित किए जाने के बाद वह वहां के वन्य जीवन को किस तरह से नुकसान पहुंचाएगा, वहां के प्राणियों का संरक्षण किस तरह से किया जाएगा,  संबंधित परियोजना प्राणी संरक्षण के लिए किस तरह का कार्य करेगी वगैरह । अधिकांश मामलों में यही होता है कि पूरे अध्ययन के बाद यह बात सामने आती है कि परियोजना के स्थापित होने से पर्यावरण को नुकसान अधिक होगा, इसलिए उन परियोजना को मंजूरी नहीं मिल  पाती ।
    लेकिन अब सरकार जल्दबाजी में कई परियोजनाओें को मंजूरी देने वाली हैं, जिससे पर्यावरण को नुकसान होगा, यह तय है । नई सरकार की इस तरह की पहल भविष्य में पर्यावरणीय नुकसान के लिए दोषी होगी । नई नीति में परियोजना स्थापित करने की इच्छुक कंपनी हो यह तय करेगी कि उसके परियोजना के असर का पर्यावरणीय अध्ययन कौन करेगा । यानी यदि ए नाम की कोई कंपनी पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाली परियोजना स्थापित करना चाहती है, तो वही तय करेगी कि कौन सी कंपनी पर्यावरण पर होने वाले असर का अध्ययन करेगी । यह तो वही बात हुई कि अपराधी से कहा जाए कि चार ऐसे इंसानों को सामने लाओ, जो तुम्हें निर्दोष बताएं । तय है कि इसमें भ्रष्टाचार होगा । कंपनी उन्हीं संस्थाआें को चुनेगी, जो उसके समर्थन में रिपोर्ट देने को तैयार हो ।
    पिछली सरकार ने यह नियम रखा था कि परियोजना की फाइल आने के १०५ दिनों के अंदर उसे पर्यावरणीय मंजूरी देनी है या नहीं, यह तय किया जाए । यानी परियोजना प्रस्तुत करने वाली कंपनी को कम से कम १०५ दिन तक तो इंतजार करना ही होता था । इसके बाद भी यह इंतजार काफी लंबा हो जाता था, इसलिए प्रस्ताव ताक पर रख दिए जाते थे ।
    नई सरकार ने १०५ दिन की इस समय सीमा को ६० दिन कर दिया है । इस समय सीमा का सख्ती से पालन करना होगा । यदि पालन नहीं किया गया, तो संबंधित अधिकारी को दण्ड दिया जाएगा, ऐसा प्रावधान भी किया गया है । यह काम सरलता से हो, इसके लिए कई काम ऑनलाइन करने की सुविधा भी दी जाएगी ।
    हकीकत यह है कि तमाम परियोजनाओं के पर्यावरण असर का अध्ययन ६० दिनों में संभव नहीं    है । मान लीजिए किसी पक्षी अभयारण्य के आसपास कोई परियोजना स्थापित किया जाना है । कंपनी इसके लिए सरकार को ग्रीष्म ऋतु मेंफाइल देती है । इसके बाद ६० दिन के नियम के अनुसार उस परियोजना के लिए हां या ना कह दिया जाता है । किंतु पक्षी अभयारण्य में कई प्रवासी पक्षी केवल शीत ऋतु में ही आते हैं । यह तथ्य अध्ययन मं नहीं आ  पाएगा । शीत ऋतु में जब यायावर पक्षी वहां पहुंचेंगे, उन्हें वहां पता चलेगा कि जहां वे अमूमन अंडे देते हैं, वहां तो फैक्टरी बन रही है । इस तरह से जल्दबाजी में निर्णय ले लिया जाता है, तो पक्षी अभयारण्य का क्या होगा ?
    अतीत में नर्मदा बांध, कुदनकुलम परमाणु संयंत्र, निरमा परियोजना, नियमगिरी में पॉस्को स्टील कारखाना आदि का काफी विरोध हुआ । कितने ही विरोध सही होने के कारण परियोजना बंद भी हुई है । यह सही है कि कुछ स्थानों पर गलत इरादे से विरोध भी होता आया है । सरकार ने इस मुद्दे को भी ध्यान में रखा है । नए नियम के अनुसार परियोजना की घोषणा होने के दो महीने के अंदर यदि किसी संगठन या व्यक्ति द्बारा विरोध नहीं किया जाता, तो यह माना लिया जाएगा कि इस परियोजना से किसी को भी किसी तरह का नुकसान नहीं हो रहा है ।
    सरकार यहीं नहीं रूकी है । अतीत में रद्द हो चुके परियोजनाआें को भी सरकार पर्यावरणीय मंजूरी देना चाह रही है । यह भी पर्यावरण के संदर्भ में एक नुकसानदेह कदम साबित होगा । पर्यावरण के नुकसान के चलते पॉस्को की योजना धराशायी हो गई । यदि इसे मंजूरी मिल गई होती, तो आडिशा में स्थापित होने वाला यह सबसे बड़ा स्टील प्लांट होता । गोवा में खनन कार्य बंद हो गया है । नई सरकार ये सब फिर से शुरू करना चाहती है । यदि यह सब होता रहा, तो किस तरह से पर्यावरण का सरंक्षण हो पाएगा ? इस समय सरकार के पास पर्यावरणीय मंजूरी के लिए लंबित परियोजनाआें की संख्या ३५८ है । इनमें से १३७ औघोगिक, ६९ इंफ्रांस्टक्चर, ३६ कोयले की खानें, ६३ अन्य खानें, २१ नदी घाटी, १७ नए निर्माण और १४ थर्मल परियोजना हैं ।

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