शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

पर्यावरण परिक्रमा
ब्रिटेन के भोजन का ग्रीन हाउस प्रभाव विदेशोंमें

यूरोप के कई देशोंऔर खासकर युनाइटेड किंगडम में कई वर्षो से एक नया रूझान देखा जा रहा है । ये देश जितने भोजन का उपभोग करते हैं उसका एक बड़ा हिस्सा अन्य देशों में उगाया जाता    है । इन अन्य देशों में इसकी वजह से जो ग्रीनहाउस गैसे वायुमण्डल में फैलती हैं उनका हिसाब पहली बार किया गया है । मसलन, युनाइटेड किंगडम की भोजन खपत से संबंधित ग्रीनहाउस गैसों में से ६४ प्रतिशत का उत्सर्जन अन्य देशों में हुआ । 
युनाइडेट किंगडम आजकल अपना लगभग आधा भोजन बाहर से आयात करता है । सन १९८६ से २००९ के दरम्यान युनाइटेड किंगडम के लोगों के लिए भोजन पैदा करने हेतु जमीन में २३ प्रतिशत वृद्धि हुई जिसमें से ७४ प्रतिशत विदेशों में हुई थी । 
इसी प्रकार से पशु चारे के रूप में इस्तेमाल किया जाने वाला सोयाबीन, कोको तथा गेहूं भी अधिकांशत: विदेशी भूमि पर उगाए गए थे । इनके अलावा युनाइटेड किंगडम ने उपभोग के लिए फल-सब्जियां भी बढ़ती मात्रा में व स्पैन व अन्य देशों से आयात की जा रही है । 
२००८ मे युनाइटेड किंगडम की खाद्य आपूर्ति की वजह से २१.९ मेगाटन ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन हुआ । इस उत्सर्जन में से १८ प्रतिशत दक्षिण अमेरिका में और १५ प्रतिशत युरोपीय संघ के देशों में हुआ । 
जनरल ऑफ रॉयल सोसायटी इंटरफेस में प्रकाशित अध्ययन से पता चलता है कि अन्य यूरोपीय देश भी युनाइटेड किंगडम के नक्शे कदम पर चल रहे हैं । इस रिपोर्ट के एक लेखक एबर्डीन विश्वविद्यालय के हेनरी डी रूइटर का मत है कि इन रूझानों के मद्देनजर अब इन देशों के लिए सिर्फ अपनी भूमि पर होने वाले उत्सर्जन को नहीं बल्कि इनकी वजह से अन्यत्र हो रहे उत्सर्जन को भी हिसाब में लिया जाना चाहिए । ये देश जो कुछ खाते हैं उसका असर अन्य देशों में हो रहा    है । 

बीस साल की मेहनत से खेसारी का नया अवतार
जिस खेसारी दल को जहरीली बताकर ५५ साल पहले (१९६१) प्रतिबंधित कर दिया गया था, अब वह फिर से थाली में लौटने की तैयारी में है, वह भी बदले स्वरूप में । दरअसल जहरीली खेसारी का ये उन्नत रूप होगा, जिसमें जहर यानी विषाक्त ओपेड (बीटा-एन-ओक्सालिल- एल- बीटा - डाइएमीनो प्रोप्रिओनिक अम्ल) रसायन की मात्रा पहले की तुलना में बिल्कुल नगण्य है । कृषि वैज्ञानिकों का दावा है कि वह उन्नत रूप पूरी तरह सुरक्षित होगा । भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (आईसीएआर) के साथ छत्तीसगढ़ के इंदिरा गांधी कृषि विवि और कानुपर स्थित पल्स (दाल) शोध संस्थान ने २० सालों की कड़ी मेहनत के बाद ये सफलता हासिल की है । शोध के बाद रतन, प्रतीक और महातेओरा नाम की तीन उन्नत प्रजातियां विकसित की गई है । दावा किया गया है कि इनमें ओडेप मात्रा अब ०.०७ से ०.१ प्रतिशत ही बची है, जो नुकसानदेह नहीं होती । 
कृषि मंत्रालय की रिसर्च विंग के एडिशनल डायरेक्टर (आयल एण्ड पल्स) डॉ. बी.बी सिंह के अनुसारविकसित की गई प्रजातियों को खेती और खाने की क्लीयरेंस देने से पहले कृषि वैज्ञानिकों ने इस पर सैकड़ों टेस्ट किए और ये सभी में उन्नत साबित हुई । 
मंत्रालय के अधिकारियों के अनुसारइन उन्नत प्रजातियों को परीक्षण के बाद आईसीएआर ने इस्तेमाल के लिए प्रस्तावित किया   है । मंत्रालय अन्य विभागों से भी राय ले रहा है । जैसे ही इसके उत्पादन और इस्तेमाल को लेकर क्लीयरेंस मिलती हैं, सभी राज्यों को उन्नत किस्मों के बीज सप्लाई किए    जाएंगे । 
खेसारी का सबसे ज्यादा उत्पादन छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में होता है । बिहार और पश्चिम बंगाल में भी लगभग ४-५ लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में बुवाई होती है । वही पड़ोसी देश बांग्लादेश, भूटान में भी बड़े पैमाने पर इसकी खेती होती है । 

साढ़े ४ लाख हेक्टयेर वन क्षेत्र पर अतिक्रमण
मध्यप्रदेश के साढ़े लाख हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र पर अतिक्रमण है । यह आंकड़ा कम होने के बाजय बढ़ रहा है । जो जहां रह रहा है, उसे उस जमीन का मालिकाना हक दिया जाएगा । सरकार के मुखिया शिवराज सिंह चौहान के इस ऐलान के बाद कब्जे के मामले बढ़ गए है । बीते पांच साल में १६ हजार ५१८ हेक्टेयर वन क्षेत्र पर अतिक्रमण कर लिया गया । यह सरकारी आंकड़ा है । असल में यह दोगुना से ज्यादा है । 
प्रदेश का ३,०८,२४५ वर्ग किलोमीटर भौगोलिक क्षेत्र हैं । इसमें करीब ३१ फीसदी क्षेत्र (९४६८९ वर्ग किलोमीटर) वन क्षेत्र है । वन विभाग खुश हो सकता है कि देश में सर्वाधिक वन क्षेत्र वाले पांच राज्यों में मध्यप्रदेश शामिल है, लेकिन इससे इतर लगातार वन क्षेत्र में अतिक्रमण तेजी से बढ़ रहा है । इसे रोक पाने में वन महकमा असहाय है । सूत्रों के अनुसार , वर्ष २०१० से पहले सरकारी रिकॉर्ड में ४.३७ लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र में अतिक्रमण था । अब इसमें १६ हजार हेक्टेयर से अधिक की बढ़ोतरी हो गई है । वर्ष २०१३ के बाद से इसमें ज्यादा वृद्धि हुई । वन विभाग के अनुसार राज्य सरकार ने जब से, जो जहां रह रहा है, उसे वहां का पट्टा देने की घोषणा की है, नए अतिक्रमण के मामले बढ़ गए है । 
प्रदेश में अतिक्रमणधारियों के हौसले इतने बुलंद है कि उन्होनें नेशनल पार्को तक को नहीं बख्शा । सर्वाधिक अतिक्रमण के मामले संजय टाइगर रिजर्व सीधी में सामने आए । यहां वर्ष २०१० से २०१४ के बीच २२२ हेक्टेयर में कब्जा कर लिया । पन्ना टाइगर रिजर्व में वर्ष २०१४ में दस हेक्टेयर में अतिक्रमण किया गया, जबकि इससे पहले वर्ष २०११ और २०१२ में विभाग ने अतिक्रमण की कोशिश करने पर १० प्रकरण पंजीबद्ध किए थे । कुनो वन्य प्राणी वन मण्डल श्योपुर में भी आठ हेक्टेयर और बाधवगढ़ टाइगर रिजर्व एवं सतपुड़ा टाइगर रिजर्व में भी एक-एक हेक्टेयर में अतिक्रमण किया गया । 
वर्ष २०१०-१४ तक कहां कितना अतिक्रमण :- 
सर्कल वनक्षेत्र 
इन्दौर ३६७
खण्डवा २४६४
उज्जैन २३१
छतरपुर १७६६
सागर १५६५
ग्वालियर १२५०
भोपाल ११८६
शहडोल ६५६
जबलपुर ४०३
शिवपुरी ४४२२
होशगाबाद २४२
रीवा १२५७
बैतूल २२०
छिदवाड़ा १२२
सिवनी ८०

धरती का बढ़ता तापमान और नया साल  
उत्तर भारत में लोगों ने नववर्ष का स्वागत असामान्य मौसम के बीच किया । इस भू-भाग में घने कोहरे और कड़ाके की ठंड के बीच रोमन कैलेंडर का साल बदलता रहा है, लेकिन २०१५ ने खुले आसमान, गरमाहट भरी धूप और हलकी सर्दी के बीच हमसे विदाई ली । ब्रिटेन के मौसम विशेषज्ञ इयन कुरी ने दावा किया कि इतिहास का सबसे गर्म दिसम्बर था । अमेरिका से भी ऐसी ही खबरे आई । 
संयुक्त राष्ट्र पहले ही कह चुका था कि २०१५ अब तक का सबसे गर्म साल रहेगा । भारतीय मौसम विभाग के मुताबिक उत्तर-पश्चिम और मध्य भारत में आने वाले दिनों में तापमान ज्यादा नहीं बदलेगा । यानी आने वाले दिनों में भी वैसी सर्दी पड़ने की संभावना नहीं हैं, जैसा सामान्यत: वर्ष के इन दिनों में होता है । दरअसल, कुछ अंतरराष्ट्रीय जानकारों का अनुमान है कि २०१६ में तापमान बढ़ने का क्रम जारी रहेगा और संभवत: नया साल पुराने वर्ष के रिकार्ड को तोड़ देगा । इसकी खास वजह प्रशांत महासागर में जारी एल निनो परिघटना है, जिससे एक बार फिर दक्षिण एशिया में मानसून प्रभावित हो सकता है । इसके अलावा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से हवा का गरमाना जारी है । इन घटनाक्रमों का ही सकल प्रभाव है कि गुजरे १५ वर्षो से धरती के तापमान में चिंताजनक स्तर तक वृद्धि हुई है । इसके परिणामस्वरूप हो रहे जलवायु परिवर्तन के लक्षण अब स्पष्ट नजरह आने लगे है । आम अनुभव है कि ठंड, गर्मी और बारिश होने का समय असामान्य हो गया है । गुजरा दिसम्बर और मौजूदा जनवरी संभवत: इसी बदलाव के सबूत है । 
जलवायु परिवर्तन के संकेत चार-पांच दशक पहले मिलने शुरू  हुए । १९९० आते-आते वैज्ञानिक इस नतीजे पर आ चुके थे कि मानव गतिविधियों के कारण धरती गरम हो रही है । उन्होंने चेताया था कि इसके असर से जलवायु बदलेगा, जिसके खतरनाक नतीजे होगे, लेकिन राजनेताआें ने उनकी बातों की अनदेख की । हालांकि, जलवायु परिवर्तन रोकने की पहली संधि १९९२ में हुई, लेकिन खासकर विकसित देशों ने अपनी वचनबद्धता के मुताबिक उस पर अमल नहीं किया । 

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