शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

जन जीवन
प्रकृति : असहिष्णुता का फैलता दायरा
डॉ. ओ.पी. जोशी
यह आश्चर्य का विषय है कि पेड़, नदियों, पहाडों के अलावा ऋतुओं तक की पूजा करने वाला भारतीय समाज आज इनके विनाश को लेकर बिल्कुल भी चिंतित नहीं है । इसे रोकना हमारी आज की अनिवार्यता  है ।
देश भर में असहिष्णुता पर चर्चाएं जारी हैं । संबंधित लोग इसे अपने अपने ढंग और विचारों से समझाने का प्रयास कर रहे हैं । सभी चर्चाओं एवं विवाद में प्रकृतिऔर पर्यावरण की ओर लालची मानव की बढ़ी हुए असहिष्णुता का कहीं कोई जिक्र नहीं है। वैश्विक, राष्ट्रीय, स्थानीय एवं पारिवारिक तथा व्यक्तिगत स्तर पर मानव ने प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति जो असहिष्णुता बरती है उसी का परिणाम है प्रदूषण एवं पर्यावरण की अन्य समस्याएं । पेड़  पौधों, जीव जंतुआंे, वायु, जल एवं जमीन, किसी के प्रति भी मानव सहिष्णु नहीं है । 
यदि मानव इनके प्रति सहिष्णु होता तो वैश्विक स्तर पर बड़े सम्मेलन व समझौते ग्लोबल वार्मिंग को कम करने, जलवायु परिवर्तन को रोकने तथा जैवविविधता के घटने की चिंता में आयोजित नहीं किये जाते । वैश्विक स्तर की बात छोड़कर यदि हम राष्ट्रीय स्तर का परिदृश्य देखें तो ऐसा लगता है कि प्रकृति या पर्यावरण के सारे भाग हमारी असहिष्णुता के घेरे में आ गये हैं। जल को जीवन का आधार मानने वाले जल के प्रति ही हम इतने असहिष्णु हो गये कि देश की १५० से ज्यादा जीवनदायिनी नदियों के प्रति सहिष्णुता दिखाकर उन्हें साफ एवं शुद्ध करने का ढ़ोल पीटते रहे एवं अंदर ही अंदर असहिष्णु होकर प्रदूषित करते रहे । 
देश के लगभग ९०० शहरों एवं कस्बों का ७० प्रतिशत गंदा पानी बगैर परिष्कृत किये आसपास की नदियों में डाला जाता है । भूजल का स्तर न केवल नीचे जा रहा है अपितु आर्सेनिक एवं नाइेट्रट से प्रदूषित भी हो रहा है। शहरों के विकास का पश्चिमी मॉडल अपना कर हमने अपने वहां के प्राकृतिक जलस्त्रोत समाप्त कर दिये । वर्तमान में चेन्नई में हुआ महाजलप्रलय स्थानीय जलस्त्रोतों के प्रति दर्शायी असहिष्णुता का ही परिणाम था । वट सावित्री एवं आंवला नवमी पर पेड़ों की पूजा करने वाले हमारे देश में पेड़ों एवं वनों के प्रति घोर असहिष्णुता जारी है। इस असहिष्णुता का ही परिणाम है कि देश में जहां उचित प्राकृतिक संतुलन हेतु ३३ प्रतिशत भाग पर वन होना चाहिये परंतु है केवल २२.२३ प्रतिशत भाग पर ही । इनमें भी २ से ३ प्रतिशत सघन वन है, ११ से १२ प्रतिशत मध्यम तथा ९ से १० प्रतिशत छितरे वन है। वनों में ८० प्रतिशत जैवविविधता पायी जाती है, परंतु वनों के घटने से उस पर भी संकट मंडरा रहा है । २० प्रतिशत से ज्यादा जंगली पौधों व अन्य जीवों पर विलुप्ति का खतरा है । 
भारत दुनिया के उन १२ देशों में शामिल है जहां भरपूर जैवविविधता है परंतु बढ़ती असहिष्णुता से इस पर संकट छा गया है । पेड़ों एवं वनों के प्रति असहिष्णुता की पराकाष्ठा सितंबर २०१५ में म.प्र. सरकार ने की जब ५३ प्रजातियों के पेड़ों की लकड़ी को टी.पी (ट्रांजिट पास) से स्वतंत्र करने का आदेश जारी    किया । असहिष्णु मानव ने इस आदेश का सहारा लेकर बेरहमी से पेड़ काटे । इस अधिकृत आदेश के जारी होने से पहले जून-जुलाई में इसके प्रारूप (जो स्वीकृत एवं अधिकृत नहीं था) को ही आदेश मानकर इतने पेड़ काट दिये कि प्रदेश भर के लकड़ी के बाजारों में ४० करोड़ रु. मूल्य की लकड़ी पहंुच गयी थी । सरकार के इस आदेश में लम्बे आयु वाले एवं पूजनीय बड़, पीपल व गुलर भी शामिल हैं । अभी दो तीन माह पूर्व ही इन्दौर शहर के विजयनगर क्षेत्र स्थित बगीचों के पेड़ों उपरी पत्तीयोें वाले भाग केवल इसलिए काट दिये गये कि यातायात व्यवस्थित करने हेतु लगाये कमरे ठीक कार्य कर सकें । यदि पेड़ों के प्रति सहिष्णुता होती तो कमरे के स्थान एवं ऊंचाई बदले जा सकते    थे । वायु के देवता स्वरूप के प्रति तो ऐसी असहिष्णुता दर्शायी कि देश के ज्यादातर शहर वायु प्रदूषण से घिर गये । 
देश के ५० से ज्यादा शहरों में वायु प्रदूषण की समस्या काफी गम्भीर है । देश की राजधानी दिल्ली अब प्रदूषण की भी राजधानी बन गयी है। देश के १८० शहरों में से केवल केरल के  दो शहरों में प्रदूषण खतरनाक स्तर से कम है । वायु के प्रति बरती गयी असहिष्णुता का ही यह परिणाम है कि देश के लोगों की श्वसन क्षमता पश्चिम देशों के लोगों की तुलना में २५ से ३० प्रतिशत कम है । कई शहर कैंसर व अस्थमा के केन्द्र बनते जा रहे हैं । भूमि को मां के समान मानकर भूमि-पूजन करने वाले देश ने मां के प्रति ही ऐसी असहिष्णुता जारी रखी कि १५ करोड़ हेक्टर के लगभग भूमि खराब हो गयी एवं १०-१२ करोड़ हेक्टर में पैदावार कम हो गयी । देश में कृषि भूमि और पशुधन भी असहिष्णुता का शिकार हो चुका है । 
आजादी के समय देश के गांवों में पशुओं की संख्या २० करोड़ के लगभग थी जो अब काफी घट गयी है । देश के कारखानों में लगभग १५०० लाख पशु एवं ३००० लाख पक्षी प्रतिवर्ष काटे जाते हैं। विदेशी में मेढ़कांे की पिछली टांग का आचार लोकप्रिय होने से असहिष्णुता पूर्वक इतने मेढ़कांे का निर्यात किया कि कई क्षेत्रों में ये विलुप्ति की कगार पर पहंुच गये । राष्ट्रीय पक्षी मोर के अवैध शिकार के समाचार हमेशा ही प्रकाशित होते रहते हैं । हाथी दांत एवं गेंडे के सींग का बाजार भाव अधिक होने से उनका शिकार भी लगातार किया जा रहा है जिससे उनकी संख्या धीरे-धीरे घट रही है । लालची मानव की प्रकृति पर विजय प्राप्त करने की लालसा एवं विज्ञान व तकनीकी के माध्यम से उसे बर्बाद करने या जरूरत से ज्यादा दोहन असहिष्णुता को ही दर्शाता है । 

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