शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

सामाजिक पर्यावरण
पर्यावरण, धर्म तथा विकास के अर्न्तसंबंध
डॉ. भारतेन्दु प्रकाश

भारत में पर्यावरण व धर्म को अत्यन्त व्यापक स्वरूप प्रदान किया गया है । इन दोनों की व्यवस्थित समझ से ही विकास संभव है। परंतु आधुनिक योजनाकारों ने इन तीनों की अलग-अलग व्याख्या कर पूरी मानवता को ही संकट में डाल दिया है ।
भारत मंे पर्यावरण, धर्म तथा विकास इन तीनों के आपसी संबंध अधिकांश लोगों के लिये पहेली बने हुए हैं । इसीलिये उन्हंे एक दूसरे का पूरक समझने में तकलीफ होती है। विकास की गलत समझ के कारण सरकारें भी विकास का आकर्षण दिखाकर पर्यावरण को पहंुचने वाले नुकसान को तथा उससे उत्पन्न होने वाली भावी आपदाओं को नज़र अन्दाज कर देती हैं । धर्म को अंग्रेजी के शब्दों रिलीज़न या फेथ का पर्यायवाची मानकर उसका पर्यावरण के साथ जो रिश्ता है उसे पूरी तरह नकारने का अभ्यास सभी के लिये एक आम बात हो गई है । आइये इन्हे समझने का प्रयास करें :
पर्यावरण : हमारे चारोें ओर जो कुछ भी हमें दिखाई या सुनाई देता है वही सब पर्यावरण कहलाता है। इसकी सीमा पृथ्वी से आकाश तक है। हमारे घर के अन्दर परिवारजन, गांव, नगर तथा पास पड़ोस के लोग, पशु, पक्षी, पेड़-पौधे, जंगल, नदी, पहाड़, कुएं, तालाब, हवा, शोरगुल, चांद, सूरज तथा आकाश आदि सभी कुछ पर्यावरण के दायरे में आता है। अत: यह मानना कि केवल प्रकृति अर्थात जल, जंगल, पहाड़ और जमीन ही पर्यावरण है यह अधूरी समझ है। मनुष्य प्रकृति का एक घटक होने के कारण पर्यावरण का ही एक हिस्सा है, उससे अलग उसकी कोई सत्ता नहीं । 
धर्म : जीवन के सुचारु निर्वाह के लिये व्यक्ति को उपरोक्त पर्यावरण यानी व्यक्ति, समाज एवं  प्रकृति तथा दैवी शक्ति (परमेश्वर)  के प्रति तथा सबके साथ पारस्परिक संबंधों मंे जो स्वस्थ संतुलन बनाने का काम है, वही धर्म है । प्रकृति के  हर घटक का एक धर्म होता है जैसे पानी का धर्म शीतलता, प्यास बुझाने वाला, धरती को नम बनाने तथा उसमें या शरीर में पैदा होने वाले जहरीले तत्वों को अपने में घोलकर बाहर निकालने वाला आदि है । अग्नि का धर्म अपनी गर्मी के माध्यम से ठंडक को दूर करने वाला, जल को सोखकर उसे वाष्प में बदलने वाला, वस्तुआंे को पकाने वाला एवं वातावरण को शुद्ध करने वाला आदि है । इसी तरह प्रकृति के सभी घटकों वायु, धरती, जंगल, पहाड़, पेड़-पौधे, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र आदि को उनके विशेष धर्मों से समझा जा सकता है। मनुष्य प्रकृति का महत्वपूर्ण घटक है जिसका धर्म सद्भाव के साथ पारस्परिक रक्षा करते हुये संतुलन बनाये रखने का है। प्रकृति ने उसे बुद्धि, मन, ज्ञानेन्द्रियां तथा कर्मेन्द्रियां सौंप कर एक सक्षम घटक बनाया है। जंगली पशुओं को अपनी सुरक्षा के लिये सींग, दांत तथा नाखून आदि दिये पर मनुष्य को ऐसा कुछ अंग न देकर उसे एक शान्तिप्रिय, सद्भावपूर्ण तथा सबके साथ संतुलन बना कर पारस्परिक सुरक्षा का दायित्व दिया है। इसी को पूरा करने के लिये मनुष्य ने आपस में मिल कर समाज बनाया, सघन बस्तियाँ, गांव तथा नगर आदि बसाए तथा सामाजिक व्यवस्थायें तथा कर्तव्य निर्धारित हुए । 
इस बात का दु:ख है कि धर्म की आज जो समझ है वह केवल विश्वास (मान्यता) अथवा सम्प्रदाय के दायरे मंे आती है । सामान्यतौर पर व्यक्ति अपने वर्ग की मान्यताओं तथा सम्प्रदाय को धर्म मान कर आपस में अपने संबंधों को तनावपूर्ण बनाता रहता है और इस प्रक्रिया मे वास्तविक धर्म की अवहेलना करता रहता है । धर्म केवल आरती या पूजा करने में नहीं है, न ही केवल नमाज अदा करने या प्रार्थना करने में है । ये सब कुछ तो परमेश्वर की शक्ति के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के माध्यम हैं। धर्म तो सभी के साथ कैसे संबंध रखें जैसे आसपास के वातावरण को स्वस्थ रखते हुये, सबके प्रति प्रेम व्यवहार एवं सद्भाव निभाते हुये, प्रकृति या किसी प्राणी को किसी भी प्रकार का नुकसान न पहुंचाते हुए, सदैव परमपिता परमेश्वर का ध्यान करते सादगी भरा जीवनयापन करने में है । 
विकास : मनुष्य समाज में मानवीय गुणों का समावेश तथा ऊपर बताये अनुसार धर्म की समुचित व्यवस्था को ही विकास कहा  जायेगा । विकसित  अवस्था में संतुलित जीवन, सबको  ज्ञान, सभी घटकों के प्रति परस्पर सम्मान, सबको सुख तथा सबकी सुरक्षा सुनिश्चित होना अनिवार्य है। बाहरी दिखावे की वस्तुएं, सड़क, भवन, मशीनरी, सुविधाओं का निर्माण या फैलाव इन सबको मानवीय विकास मानना एक अधूरी समझ का परिणाम है जो समाज तथा शासन व्यवस्था सभी को बरगलाता है । यदि मनुष्य के समाज में पारस्परिक भाईचारा, सद्भाव, प्रेम, विश्वास तथा सम्मान का ही अभाव हो तो सड़क, भवन, बाजार, रेल, हवाईजहाज, अस्पताल, विद्यालय तथा व्यवस्था को विकास का नाम देना क्या पूरी तरह भ्रामक नहीं है ? 
पर्यावरण, धर्म तथा विकास इन तीन शब्दों की उपरोक्त समझ के आधार पर यह स्पष्ट है कि ये तीनों आपस मे अभिन्न हैं, ये एक दूसरे के पूरक तथा सहयोगी हैं अत: किसी एक के मूल्य पर दूसरे को बढ़ावा देने की बात करने का कोई अर्थ ही नहीं है । हमंे सम्प्रदायों की सीमा को समझना होगा । किसी भी मान्यता को मानना अनुचित नहीं है पर मान्यताओं एवं कर्मकाण्डों को ही धर्म मान लेना, मानवीय संबंधों को तनावपूर्ण करते हुये, प्रकृति तथा आसपास रहने वाले पशुपक्षी, वनस्पति तथा समाज के लोगों को नुकसान पहुंचाते हुए, जंगल, पहाड़, नदी, कुओं तथा तालाबों को नष्ट करते हुए जो भी कार्य किया जायेगा वह विकास नहीं है, यह ध्यान रखना होगा । मानवीय व्यवस्था मेंसभी के कर्तव्य परस्पर पूरकता में निहित होते हैं । 

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