बुधवार, 20 जून 2018

पर्यावरण दिवस २
पर्यावरण के बजाय स्वयं को बचाने की जरुरत
डॉ. अनिल प्रकाश जोशी
पिछले कुछ दशकों से प्रकृतिके साथ लगातार हो रहे मनुष्य के व्यवहार ने कई अनुत्तरित प्रश्न खड़े कर दिये है । धीरे-धीरे हमारे बीच से पानी गायब होता जा रहा है, क्योंकि नदियां ही विलुिप्त् के कगार में है ।
वनों के आकड़ें ठीक-ठाक नहीं है और यह सब विकास के नाम पर ही हुआ है । पर्यावरण के साथ अब ऐसा व्यवहार ज्यादा दिन नहीं चलने वाला है । शायद प्रकृति अब अपने अपमान को ज्यादा नहीं झेल सकेगी । पर्यावरण की चिन्ता को तो हम नकार ही रहे है, पर अपने जीवन को तो संकट में डालने में भी हम पीछे नहीं । इसलिये पर्यावरण दिवस का नारा पर्यावरण बचाने से बेहतर स्वयं के जीवन को बचाने वाला होना चाहिए ।
पर्यावरण पृथ्वी के आवरण का दूसरा नाम है और इसलिये पृथ्वी के हमारे शास्त्रोंमें सबसे पहले नमन किया गया है । इसका मतलब एक बेहतर पर्यावरण से भी जुड़ा है । वैसे भी हमारे कर्मकाण्ड में शुरुआत में ही पृथ्वी जल, वायु, अग्नि को देवता मानकर स्तुति की जाती है । और क्यों ना हो, क्योंकि इन्हीं से जीवन पैदा हुआ है और पलता है ।
पर्यावरण के विभिन्न तत्वों को हमेशा से भारतीय संस्कृति में पूजनीय माना गया है । भारतीय संस्कृति दर्शन में प्रकृति व उसके उत्पादों का उल्लेख जमकर किया गया है । हमारे यहां प्रभु स्तुति से भी पहले प्रकृति का पूजन किया जाता है । पृथ्वी का सृजन व उसके उपरान्त जीवन की उत्पत्ति को करोड़ों वर्ष हो चुके है और यह महान अखण्ड भू-भाग निरन्तर सेवा में लीन है । इसने कई सदियां, संस्कृति व समाज को बदलते देखा है । शायद इसलिए प्रकृति के नमन को पहला स्थान मिला है ।
पर पिछले हजारों सालों में प्रकृतिके साथ यह नहीं हुआ, जो पिछले १००-२०० वर्षोंा में हुआ है । अजीब-सी बात है कि करोड़ों वर्षोंा में प्रकृतिने लगातार अपने सन्तुलन को बनाने और बचाने के जो भी रास्ते तैयार किए हमने एक-एक करके सब धवस्त कर दिए । उदाहरण के लिये एक बड़े बांध की योजना अपने १० वर्षोंा के निर्माण के दौरान ही लाखों-करोड़ो वर्षोंा में पनपे स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को स्वाहा कर देती है । नदियां मार दी जाती है । वनों को झील लील होती है । धरती को गहरे जख्म मिल जाते है ।
लाखों सालों से पली पलाई व्यवस्था तहस-नहस हो जाती है । पहाड़ डूब जाते है । नदी, झील बन जाती है । गांव गायब हो जाते है । यह तो एक उदाहरण है । आज प्रकृति के प्रतिकूल हजारों योजनाएं दुनियाभर में एक जुट इसे समाप्त् करने में तुली है । मनुष्य जिसे इसको संरक्षण देना था, वो ही इसे भक्षण करने में लगा है ।
पर्यावरण के साथ अब ऐसा व्यवहार ज्यादा दिन नहीं चलने वाला है । टुकड़ों - टुकड़ों में प्रकृति ने ये संकेत दे दिये है । तमाम तरह की आपदाआें ने हमें घेरना शुरु कर दिया है । शायद प्रकृति अब अपने अपमान को ज्यादा नहीं झेल सकेगी । क्योंकि यह समग्र प्राकृतिक संसाधनों का केन्द्र है । नदी, वन, मिट्टी एवं वायु इसके हिस्से है । प्रकृति के साथ छेड़छाड़ के मायने इन सभी को खोना भी है ।
पिछले कुछ दशकोंसे प्रकृति के साथ लगातार हो रहे मनुष्य के व्यवहार ने कई अनुत्तरित प्रश्न खड़े कर दिये है । धीरे-धीरे हमारे बीच से पानी गायब होता जा रहा है, क्योंकि नदियां ही विलुिप्त् के कगार में है । वनोंके आंकड़े ठीक नही है य् भोजन में मिट्टी की जगह रसायनों ने ले ली है । और यह सब विकास के नाम पर ही हुआ है । बढ़ती आबादी की आवश्यकताएं तो नहीं नकारी जा सकती पर विलासिता के लालच ने ज्यादा खेल बिगाड़ दिया है । अंधाधुंध शहरीकरण, वाहनों की आवाजाही, औद्योगिकीकरण ने मनुष्य को श्रम रहित तो किया ही पर साथ में पर्यावरण पर अत्यधिक दबाव पैदा कर दिया । दुनिया भर की खबरें अच्छी नहीं है । पृथ्वी का पर्यावरण भारी खतरे में पड़ चुका है । हमारे पृथ्वी के साथ दुर्व्यवहार के कारण ही तापमान में वृद्धि व जलवायु परिवर्तन जैसे बवंडर व तूफान आदि गंभीर संकट खड़े हो गये है ।
अप्रैल में वर्षा व तापक्रम का वर्तमान रुप इसी का संकेत है । इन परिस्थितियोंमें मानसून भी लंगड़ा हो जाता है और वह भी तब आयेगा जब उसकी उतनी आवश्यकता नहीं होगी । और ये अपने देश में नहीं बल्कि अब चीन, जापान, इंग्लैण्ड व अमेरिका सब ही जगहों से मौसम के अजीब व्यवहार की खबर आ रही है ।
अब राष्ट्र संघ की अन्तर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन की ताजा रिपोर्ट को ही देख ले । इसका विमोचन गत वर्षोंा में याकोमा जापान में आईपीपीसी द्वारा किया गया । इसमें साफ इंगित है कि पृथ्वी के दिन बुरे होने की शुरुआत हो चुकी है । इसमें जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसानों का पूरा जिक्र है । इसके अनुसार वायुमण्डल बढ़ती कार्बन की मात्रा भूख, संसाधन, विवाद, बाढ़, पलायन जैसी बड़ी विषमताआें को जन्म देगी । इससे होने वाले नुकसान खरबों में तो होगा ही पर इसकी भरपाई भी मुश्किल से होगी, क्योंकि जिसमें मलहम लगाने की क्षमता है यानि कि प्रकृति उसे ही हम बर्बाद कर रहे है ।
देश की आजकल सबसे बड़ी चर्चाआें में बवंडर भी एक है, ऐसा नहीं है कि पहले तूफान नहीं आते रहे होंगे पर अब इनके नये रुप निश्चित रुप से डराने वाले है । ऐसा ही नहीं बल्कि इनकी आवृत्ति से लेकर गति आश्चर्यजनक रुप से तेजी से बढ़ी है । इसका सीधा सा कारण स्वीकार कर लीजिये कि ये हमारी ही गतिविधियों की देन है । हाल में उत्तर भारत के कई इलाकों मसलन उत्तर प्रदेश व राजस्थान की भारी तबाही जिसमें १०० से ज्यादा लोगों की मौत हुई और आनन फानन में सरकारों ने अलर्ट जारी करने का भी काम कर दिया । वैसे इस तूफान की खबर १० घण्टे पहले मौसम विभाग ने दी थी पर इसके दुष्परिणामोंमसलन महा खतरे का आभास विभाग नहीं दिला पाया । अब इसके लिये किसी को भी दोषी ठहराने से पहले कुछ सामूहिक मंथन की भी आवश्यकता है कि परिस्थितियां क्योंइतनी विषम होती जा रही है ।
ये तो मानना ही पड़ेगा कि सब कुछ अब वैसा नहींहै जैसा आज से ५ दशक पहले की परिस्थितियां थी । हमने दुनिया में विकास के कई तरह के नये मापदण्ड तय किये होंऔर इसे चमकाने में कोई कसर न छोड़ी हो पर अब इसके दुष्परिणाम की टुकड़े टुकड़ों में बिगड़ते पर्यावरण के रुप में हमारे सामने है । पर्यावरण अब नये सुर में हमारे बीच में है अब वो चाहे बवंडर हो, वायु प्रदूषण की आई हुई नई खबरें । अपने देश में एक नये भय के रुप में ये उपस्थित है । इन संकेतों को गम्भीरता से समझने का समय आ चुका है ।
हमारी मनमानी ज्यादा समय नहीं चलने वाली । प्रकृति किसी न किसी रुप में हमारे व्यवहार के लिये हमें दंडित तो करेगी ही । पर्यावरण की चिन्ता को तो हम नकार ही रहे है, पर अपने जीवन को तो संकट में डालने में भी हम पीछे नहीं । इसलिये पर्यावरण दिवस का नारा पर्यावरण बचाने से बेहतर स्वयं के जीवन को बचाने वाला होना चाहिए । क्योंकि हमेशा हम स्वयं के लिये ज्यादा चिंतित रहते है । और इसी का ही परिणाम है कि प्रकृति ने ऐसी ही परिस्थितियां पैदा कर दी है कि हमें अपने जीवन के लिये ही जूझना पड़े और बचने का रास्ता पर्यावरण संरक्षण के उपायों से होकर गुजरे ।
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