बुधवार, 20 जून 2018

ज्ञान विज्ञान
अंतरिक्ष की तऱ्जपर हिमालयी जुड़वां अध्ययन
पिछले वर्ष अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने एक जुड़वां अध्ययन किया था । इसके अंतर्गत दो हूबहू एक-से जुड़वां भाइयों में से एक (स्कॉट केली) ने पूरा एक साल अंतरिक्ष मेें बिताया था जबकि दूसरा भाई (मार्क केली) पृथ्वी पर ही रहा था । इस प्रयोग के शुरु में दोनों की शरीर क्रिया संबंधी कई जानकारियों के अलावा उनके डीएनए के नमूने लिए गए थे और फिर प्रयोग के अंत में नमूने लेकर उनकी तुलना की गई थी ।
अब दो-दो भाइयों की दो जोड़ियों के साथ ऐसा ही अध्ययन पर्वतारोहण के संदर्भ में भी किया जाता है । जहां दो भाई एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ने की कोशिश कर रहे है, वहीं उन दोनों के जुड़वां भाई समुद्र तल पर बैठे इन्तज़ार कर रहे है । चारों भाइयों के रक्त, लार, पेशाब और मल के नमूने इकट्ठे किए जा रहे है । जहां समुद्र तल पर बैठे भाइयों के नमूने डॉक्टर वगैरह ले रहे है वही पर्वतारोही भाइयों को स्वयं अपने नमूने एकत्रित करना पड़ेंगे ।
दोनो पर्वातारोही भाइयों को पहाड़ चड़ने का काफी अनुभव है । इनमें से एक है डार्टमाउथ कॉलेज के २०-वर्षीय छात्र मैट मोनिज़ और दूसरे है पेशेवर पर्वतारोही ४९ वर्षीय विली बेनेजेस । बेनेजेस ११ मर्तबा एवरेस्ट के शिखर पर पहुंच चुके है जबकि मोनिज़ने १९ वर्ष से कम उम्र में ही ८००० मीटर की कई चोटियों पर चढ़ाई की है । दोनों इस वक्त बीच रास्ते में समुद्र तल से ७.३ किलोमीटर की उंचाई पर है ।
इस हिमालयी अध्ययन की प्रेरणा नासा के जुड़वां अध्ययन से ही मिली है । हालांकि हिमालयी अध्ययन नासा नहीं करवा रहा है । नासा के अध्ययन में पता चला था कि अंतरिक्ष में १ वर्ष रहने वाले भाई स्कॉट के हज़ारों जीन्स की अभिव्यक्ति में परिवर्तन आया था । हालांकि कुछ मीडिया रिपोर्ट में इस बात को यह कहकर प्रचारित किया गया था कि इन जीन्स में परिवर्तन हुए है किन्तु सच्चई यह थी कि जीन्स नहीं बदले थे, उनकी अभिव्यक्ति बदल गई थी । इनमें प्रतिरक्षा कार्य, डीएनए की मरम्मत, हडि्डयों के निर्माण से संबंधित जीन्स थे । और पूरे ६ महीने बाद तक ये अपनी सामान्य अवस्था में नहीं लोटे थे ।
अलबत्ता, वील कॉर्नेल विश्व-विद्यालय के जेनेटिक वैज्ञानिक क्रिस्टोफर मैसन का मत था कि जरुरी नही कि जीन्स की अभिव्यक्ति में ऐसे परिवर्तन अंतरिक्ष यात्रा की वजह से हों । ये तो मात्र तनावपूर्ण परिस्थिति में जीने की वजह से भी हो सकते है । इसी बात को जांचने के लिए उन्होने पर्वतारोहण का यह अध्ययन शुरु किया है । हालांकि एवरेस्ट अंतरिक्ष नही है, किंतु ऑक्सीजन का न्यून स्तर, बर्फीलतापमान और अलग-थलग रहने का एहसास दोनों में एक सा है ।
यह सही है कि मैट मोनिज़और केली मोनिज़हूबहू एक समान जुड़वां नहीं है जबकि विली बेनेजेस और डैमियन बेनेजेस हूबहू एक समान जूड़वा है, किंतु मैसन का विचार है कि प्रयोग के शुरु और अंत मेंइनकी तुलना से काफी कुछ पता चलेगा ।
एवरेस्ट प्रथम आधार शिविर (५३६४ मीटर) पर दोनो पर्वतारोही भाइयों ने विभिन्न नमूने एकत्रित कर लिए है । कम से कम आधार शिविर-३ तक तो वे ऑक्सीजन का उपयोग नहीं करेंगे मगर एवरेस्ट पर चढ़ाई के अंतिम चरण में वे ऑक्सीजन लेंगे । इसका मतलब है कि एवरेस्ट शिखर (८८५० मीटर) पर लिए गए उनके रक्त के नमूनोंकी सीधी-सीधी तुलना उससे पहले लिए गए नमूनों से नहीं की जा सकेगी ।
बहरहाल, वैज्ञानिक इस अध्ययन के नतीजों की प्रतीक्षा कर रहे है क्योंकि इससे हमें यह समझने में मदद मिलेगी कि प्रतिकूल परिस्थितियों में मानव शरीर और उसका डीएनए कैसी प्रतिक्रिया देतो है ।

एक तिहाई आरक्षित क्षेत्र बरबाद हो रहे हैं
दुनिया भर में लगभग २ लाख आरक्षित क्षेत्र है । इन क्षेत्रों को प्रकृतिकी खातिर, वन्य जीवों की खातिर आरक्षित किया गया है । इन क्षेत्रों का कुल क्षेत्रफल लगभग १८० लाख वर्ग कि.मी है । किंतु एक ताजा सर्वेक्षण से पता चला है कि इसमें से ३२.८ प्रतिशत भूमि कठोर मानवजनित दबाव में है । सर्वेक्षण का नेतृत्व ऑस्ट्रेलिया के क्वीसलैंड विश्वविद्यालय के जेम्स वॉटसन ने किया है । उनका कहना है कि इसी वजह से आरक्षित क्षेत्र में वृद्धि के बावजूद जैव विविधता में लगातार कमी आ रही है ।
१९९२ में रियो डी जेनेरो में हुई जैव विविधता संधि के अंतर्गत जो लक्ष्य निर्धारित किए गए थे उनके मुताबिक सदस्य राष्ट्रोंको २०२० तक अपनी भूमि का १७ प्रतिशत हिस्सा आरक्षित क्षेत्रों में तबदील करना है । अलबत्ता पता यह चला है कि जिन १११ राष्ट्रों ने यह लक्ष्य पूरा करने का दावा किया है उनमें से ७४ ने वास्तव में ऐसा नही किया है । इन ७४ देशों में हालत यह है कि आरक्षित क्षेत्रों में मानव अतिक्रमण के चलते प्रकृति का हयास जारी है ।
वॉटसन और उनके साथियोंने प्रत्येक आरक्षित क्षेत्र में मानव पदचिंहों की छानबीन की । इसके लिए उन्होनें प्रत्येक आरक्षित क्षेत्र को १-१ वर्ग किलोमीटर के चौखानों में बांटा और फिर यह नापा कि इंसान वहां ८ तरीकों से प्रकृति को प्रभावित करते है । जैसे सड़क निर्माण सघन खेती और पथ प्रकाश वगैरह । इसके आधार पर उन्होनें प्रत्येक चौखाने में मानव पदचिंह की गणना की । यह देखा गया कि आरक्षित क्षेत्रों में मानव पदचिंह वैश्विक औसत से आधा थे किंतु चिंताजनक बात यह है कि १९९२ के बाद से स्थिति बदतर होती गई है । वॉटसन की टीम ने पाया कि आरक्षित क्षेत्रोंकी सबसे बुरी स्थिति पश्चिमी युराप दक्षिण एशिया और अफ्रीका में है ।
अच्छी बात यह पता चली है कि ४२ प्रतिशत भूमि मानव दखलंदाजी से लगभग मुक्त है । टीम ने कुछ आदर्श स्थल भी चिंहित किए है । इन्में से एक है कंबोडिया का किओ सीमा वन्यजीव अभ्यारण्य और दूसरा है बोलिविया का मादिदी राष्ट्रीय उद्यान । टीम का कहना है कि अभ्यारण अथवा राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना कर देना एक बात है किं तु उसके लिए संसाधन जुटाना और उसका प्रबंधन करना ज्यादा महत्वपूर्ण है ।

शोध पत्रिकाएं अनुमोदित सूची से हटाई गइंर्
विश्वविद्यालयों और उच्च् शिक्षा संस्थानों में शिक्षकों व अन्य अकादमिक कर्मियों की भर्ती व पदोन्नति के आकलन हेतु उनके द्वारा प्रकाशित शोध पत्र एक कसौटी होती है । यूजीसी ने ऐसी लगभग ३०,००० शोध पत्रिकाआें की सूची प्रकाशित की थी जिनमें प्रकाशित शोध पत्रों को इस आकलन हेतु स्वीकार किया जाता था ।
मगर अब यूजीसी ने इनमें से ४,३०५ शोध पत्रिकाआें को सूची से बाहर कर दिया है । अब इनमें प्रकाशित शोध पत्रों को आकलन में शामिल नही किया जाएगा । यह निर्णय यूजीसी की जर्नल अधिसूचना सम्बंधी स्थायी समिति ने हाल ही में लिया है । दरअसल स्थायी समिति ने कई शोध पत्रिकाआें की विश्वसनीयता को लेकर आई शिकायतों के जवाब में शोध पत्रिकाआें का मूल्यांकन किया था । इससे पहले मार्च में भारत और कनाडा के शोधकर्ताआें ने मिलकर करंट साइन्स में एक शोध पत्र प्रकाशित किया था जिसका निष्कर्ष था कि विश्वविद्यालयों द्वारा अनुशंसित कई शोध पत्रिकाएं निम्न गुणवत्ता की है ।
अकादमिक संस्थान इस सूची के आधार पर शोधकताआें और शिक्षकों का मूल्यांकन किया करते थे । यूजीसी ने इस पर्चे के प्रकाशन के बाद अप्रेल में जो समीक्षा प्रकिया शुरु की उसमें देखा गया कि सूची में सम्मिलित कई शोध पत्रिकाएं भुगतान के बदले शोध पत्र प्रकाशित करती है । इनमें से कई पत्रिकाआें में संपादकों के बारे में पर्याप्त् जानकारी नहीं दी जाती है और यह भी नही बताया जाता है कि किसी शोध पत्र के प्रकाशन से पूर्व समीक्षा की प्रक्रिया क्या है ।
करंट साइन्स में प्रकाशित शोध पत्र के लेखकों में सावित्रिबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय के जीव वैज्ञानिक भूषण पटवर्धन तथा कनाडा के ओटावा हॉस्पिटल रिसर्च इंस्टीट्यूट के चिकित्सा शोधकर्ता डेविड मोहर शामिल है । समीक्षा के दौरान इन्होनें२०० तथाकथित परभक्षी शोध पत्रिकाआें में प्रकाशित लगभग २००० शोध पत्रों का विश्लेषण किया था । उन्होनें पाया कि ऐसी पत्रिकाआें में सबसे ज्यादा शोध पत्र भारत से ही छपते है (यूएसए दूसरे नंबर पर है) ।
पटवर्धन और मोहर ने विश्व-विद्यालयों द्वारा अनुशंसित १००९ शोध पत्रिकाआें के विश्लेषण में पाया कि इनमें से मात्र ११२ (११.१ प्रतिशत) ही अच्छे प्रकाशन की कसौटी पर खरे उतरते है । लगभग एक तिहाई शोध पत्रिकाआें में मूलभूत सूचनाएं तक नहीं दी गई थी - जैसे पता, वेबसाइट, पत्रिका के संपादक वगैरह । अन्य पत्रिकाआें में विषयवस्तु तथा समीक्षा प्रक्रिया को लेकर खामियां पाई गई ।
इस पर्चे के सह लेखक और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के प्राणि वैज्ञानिक सुभाष लखोटिया का मत है कि यूजीसी को चाहिए कि वह शोध पत्रिकाआेंकी सूची को पूरी तरह समाप्त् कर दें और मूल्यांकन के सामान्य दिशानिर्देश तैयार करें । कुछ लोगो का मत है कि इस मामले में मुख्य समस्या यह है कि अकादमिक व्यक्तियों के मूल्यांकन में शोध पत्रों की संख्या को अत्यधिक महत्व दिया जाता है । २०१३ में यूजीसी ने यह नियम बनाया था कि शोध छात्रों को शोध प्रबंध प्रस्तुत करने से पहले कम से कम दो शोध पत्र प्रकाशित करना अनिवार्य होगा । ऐसे नियमों के चलते यह दबाव बनता है कि येन केन प्रकारेण शोध पत्र प्रकाशित किए जाएं । इसलिए ऐसी संदेहास्पद शोध पत्रिकाआें की बाढ़ आ जाती है । इसके अलावा भुगतना के बदले प्रकाशन की ऑनलाइन व्यवस्था ने भी इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है क्योंकि यह कमाई को साधन बन गई है । लिहाज़ा इस मामले में कुछ सख्त कदम उठाना जरुरी लगता है ।                ***

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