बुधवार, 20 जून 2018

हिमालय
पर्वतीय क्षेत्रों में जल संरक्षण की चुनौतियां
कुलभूषण उपमन्यु
हिमालयी पर्वतीय क्षेत्र, तेज ढलानों और विविधता से भरपूर भौगोलिक संरचना के कारण जल संरक्षण की दृष्टि से बहुत ही पेचीदा और चुनौती पूर्ण क्षेत्र है ।
पर्वतीय क्षेत्रों मे जल संरक्षण की ओर उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा है, जबकि यहीं सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरुरत है । तेज ढलानों और वनस्पति की कमी के चलते बारिश के पानी का भू जल मेंसंचय की चुनौती के साथ सतही जल को रोकना और प्रयोग कर पाना दूसरी बड़ी चुनौती है ।
मैदानी क्षेत्रों में तेज ढलानों और भौगोलिक विविधता इतनी अधिक होती है कि एक दो किलोमीटर के भीतर ही प्रयोग की जाने वाली तकनीकों को बदलना पड़ सकता है । पर्वतीय भूजल भंडारों की बनावट भी विविधतापूर्ण और पैचीदा होती है । इसलिए इन क्षेत्रों में जल संरक्षण कार्य भिन्न-भिन्न तरीके अपना कर ही किया जा सकता है ।
पिछले दो तीन दशकों से पर्वतीय क्षेत्रों की नदियों मे जल की मात्रा कम होती जा रही है, जो छोटे खड्डोंऔर नालों में तो स्पष्ट दृष्टि गोचर हो जाती है । पुराने कई नाले सूख गए है, कुछ सूखने के कगार पर है । सदा बहार खड्डे नाले मौसमी बनते जा रहे है जिनमें केवल बरसात में ही पानी आता है । इसलिए गर्मियां आते ही पेयजल और सिंचाई की समस्या सामने आ जाती है । पूरे गंगा और सिंध के मैदान की सिंचाई हिमालय से निकलने वाली नदियोंऔर खड्डों और नालों से ही होती है ।
ग्लेशियर कम होने के चलते और बर्फ के पीछे हटते जाने से बड़ी नदियों में जल की मात्रा कम हो रही है तो छोटे खड्डे और नाले भी सूखते जा रहे है, जिसका प्रभाव बड़ी नदियोंके जल स्तर पर पड़ना भी स्वाभाविक ही है । इस तरह यह संकट पर्वतीय और मैदानी दोनों ही क्षेत्रों के लिए एक समान चिंता का कारण बनता जा रहा है । आबादी के बढ़ने के साथ-साथ औघोगिक क्षेत्र की जलमात्र की मांग मेंभी लगातार बढ़ोत्तरी हो रहे है । इसके अंतरराष्ट्रीय स्तर तक विस्तार को भी नकारा नहीं जा सकता है । हालांकि मैदानी क्षेत्रों में जल संरक्षण के पुराने समय से ही कुछ प्रयास किए जाते रहे है । तालाब, कुएं, बावडियां आदि बना कर सतही और भूजल भरण की व्यवस्थाएं विकसित की गई है ।
आज भी उन पारंपरिक विधियोंकी प्रासंगिकता को समझकर कई संगठन जल संरक्षण कार्य के महत्व को समझ कर संरक्षण कार्य में लगे हैं, किंतुपर्वतीय क्षेत्रों में इस ओर उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा है । जबकि यहीं सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरुरत है । तेज ढलानों और वनस्पति की कमी के चलते बारिश के पानी का भू जल में संचय की चुनौती के साथ सतही जल को रोकना और प्रयोग कर पाना दूसरी बड़ी चुनौती है । ग्लेशियर जल में होती कमी के चलते बारिश के पानी को अन्य तरीकोंसे रोकना जरुरी है ।
बड़े बांध बनाकर पानी को रोकने की अपनी सीमाएं है और इस विधि के कारण होने वाले विस्थापन और पर्यावरणीय दुष्प्रभावोंको देखते हुए इस विधि का विस्तार नहीं हो सकता । इसलिए सतही जल को भू जल में संरक्षित करने पर ही ज्यादा जोर देने की जरुरत है । ऐसा संरक्षण बड़े भूजल भंडारों को भरने के अलावा स्थानीय स्तर पर छोट छोटे भूजल भंडारों को भर कर भी हो सकता है । उत्तराखंड के उफरेखाल में स्वामी सच्च्दिानंद भारती ने स्थानीय स्तर पर छोटे नाले को पुनर्जीवित करने का सुंदर प्रयोग करके दिखाया है, किंतु कही ऐसा प्रयोगों का विस्तृत प्रयोग देखने को नही आया है ।
जलागम विकास कार्यक्रमों में जल संरक्षण एक महत्वपूर्ण पहलू था, किन्तु ऐसे कार्यक्रमोंके क्रियान्वयन के बाद कोई दिखने लायक प्रदर्शन क्षेत्र तैयार नहींहुआ । पर्वतीय क्षेत्रों में जलागम विकास के सिद्धांत पर ही जलसंरक्षण कार्य हो सकता है, चाहे आप उसे किसी भी नाम से पुकार लें । हिमरेखा से नीचे के क्षेत्रों में जलागम कार्यक्रम को गंभीरता से चलाने की जरुरत है । क्योंकि बर्फ घटने के बाद इसी क्षेत्र से संरक्षित जल से बड़ी नदियों के पानी को कुछ हद तक बनाए रखा जा सकेगा और स्थानीय जरुरतों को भी पूरा किया जा सकेगा ।
आज तक जलागम विकास कार्यक्रम विशेषज्ञतापूर्ण दृष्टि से नहीं चलाए गए । क्रियान्वयन कार्य आप चाहे जलागम समिति से करवाएं या पंचायत से, जरुरत तो विशेषज्ञता की है । क्रियान्वयन करने वाली इकाइयों को विशेषज्ञ सलाह उपलब्ध करवाना सरकार की जिम्मेदारी बनती है । न केवल सलाह बल्कि कार्यक्रम का नियन्त्रण भी विशेषज्ञ सलाह के अंतर्गत ही होना चाहिए । स्थानीय स्तर पर जन भागीदारी का अपना महत्व है किन्तु भागीदारी, कार्य की गुणवत्ता के साथ समझौते का कारण नहीं बननी चाहिए और न ही दीर्घकालीन जिम्मेदारी से बचने का माध्यम ही बननी चाहिए ।
पिछले अनुभवों से यह सामने आया है कि अच्छे सफल कार्य भी परियोजना समािप्त् के बाद संभाल की कमी के कारण नष्ट हो जाते है । इसलिए उपचारित जलांगम क्षेत्र को बाद में संभालने की जिम्मेदारी किसी स्थाई व्यवस्था के हवाले की जानी चाहिए जो उसके रख रखावच के लिए स्थाई तौर पर जवाब देह हो । इसके लिए एफ.आर.ए. के तहत बनाई गई वन प्रबंधन समिति, वन विभाग वन पंचायत आदि कोई व्यवस्था खड़ी की जा सकती है ।
पर्वतीय क्षेत्रों में जलागम विकास कार्यक्रमों को चलाने के लिए विशेषज्ञ विभाग बनाया जाना चाहिए जिसमेंभूविज्ञानी, वानिकी के जानकार, पर्वतीय आजीविका के जानकार, सिविल इंजीनियर और समाजशास्त्री होने चाहिए जो एक ही छत के नीचे सब तरह की वांछित विशेषज्ञता उपलब्ध करवा सकें और उनमें कोई अंतर विभागीय प्रतिस्पर्धा भी न हों । कार्यक्रम परिस्थितियों के अनुसार उपचार योजना बनाने की छूट दी जानी चाहिए ।
कागजी खानापूर्ति पर उतना ध्यान देने के बजाए पांच वर्ष की असली उपलब्धि और स्थाई प्रबंध व्यवस्था खड़ी करने पर जोर दिया जाना चाहिए । वन विभाग और नोडल विभाग का टकराव भी जलागम कार्यक्रम की उपलब्धि में न्यूनता का कारण बनता रहा है । नोडल विभाग का कार्य सामुदायिक विकास विभाग को दिया गया था किन्तु वन विभाग उन्हें अपने क्षेत्रों में वन रोपण की अनुमति ही नहीं देता रहा है । जलागम विकास के वनरोपण के लक्ष्य पूरा करने के लिए निजी भूमियोंपर वृक्षारोपण करवा कर जबरदस्ती लक्ष्य पूरे किए जाते रहे है । बिना वन भूमि को उपचारित किए पर्वतीय क्षेत्रों के जलागम विकास का अर्थ ही नही रहता क्योंकि इन क्षेत्रों में वन भूमि ६० प्रतिशत से ज्यादा है ।               ***

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