मंगलवार, 26 जून 2007

३ प्रवासी पक्षी

३ प्रवासी पक्षी
अब के बरस भी न आए सारस
डॉ. चन्द्रशीला गुप्त
प्रावासी पक्षियों का ज़िक्र आते ही भरतपुर, राजस्थान के केवलादेव अभयारण्य के सुहावने साइबेरियाई सारस याद आते हैं लेकिन अब कुछ सुहावना नहीं हैं ।
भारत ही नहीं वरन् दुनिया भर के पक्षी प्रेमी यह सुनकर मायूस होंगे । सर्दियों में भ्रतपुर के इस अभयारण्य में इन विदेशी मेहमानों का बसेरा शायद अब हमेशा के लिए खत्म हो गया है । दरअसल गत ५-६ वर्षो से ये सारस केवलादेव नहीं आ हैंं । अत: अब इनके आने की उम्मीद करना व्यर्थ है । वर्ल्ड वाइड फाउण्डेशन फॉर नेचर का भी यही कहना है कि इस पक्षी ने भारत से मुंह मोड लिया है ।
सन् १९८१ में इस अभयारण्य को राष्ट्रीय उद्यान घोषित कर इसे केवलादेव उद्यान नाम दिया गया था । वैसे इसे घाना पक्षी विहार भी कहते हैं । कुल २८.७३ वर्ग कि.मी. में फैले इस उद्यान में एक समय देशी पक्षियों की ३६६ प्रजातियां पाई जाती थीं जिन्हें निहारने हर साल लगभग एक लाख से ज़्यादा पर्यटक आते थे ।
शिकारगाह :- राजाआें के ज़माने में भरतपुर एक बेहतरीन शिकारगाह हुआ करता था । महाराजा वायसराय जैसी बडी-बडी हस्तियों को पक्षियों के शिकार के लिये आमंत्रित करते थे ।
आज यह अभयारण्य मनुष्यों से सुरक्षित है, कोई भी यहां वन्य जीवों के सिर्फ दर्शन कर सकता है । इनमें चीतल, नीलगाय, उदबिलाव और सारस, बतख, लकदक व मानस राजहंस की ३ प्रजातियां समेत प्रवासी विदेशी पक्षियों की करीबन १०२ प्रजातियां शामिल हैं ।
साइबेरियन सारस एशिया का सबसे प्रसिद्ध व दुर्लभ पक्षी है । काले किनारे वाले धवल पंख और लाल गर्दन निसंदेह इसे समस्त भारतीय सारसों में खूबसूरत बना देते हैं । यह खुशमिज़ाज पक्षी जब प्रसन्न होता है तो अपने पंख फैलाकर गर्दन ऊपर कर सीना आगे करते हुए नृत्य करता है । आसमान की ओर चोंच उठाए यह ज़ोर-ज़ोर से आवाज लगाता है - टर्र-टर्र । यह प्रात: अभिवादन है । जब भी पास की झील से कोई मित्र उनके पास आता है, वे खुशी से लम्बी किलकारी भरते व नाचते हैं। लडते वक्त उनकी आवाज़ अलग होती है ।
ये सारस क्रिसमस से पहले भरतपुर आते हैं और जब किसान फागुन में फाग गा रहे होते हैं तब ये भारत भर में अपनी एकमात्र पसंदीदा जगह से वापस चले जाते हैं । उनका यह मौसमी आना-जाना हज़ारों साल से चल रहा है ।
इतिहास - भारतीय संग्रहालय कोलकाता में रखी सत्रहवीं शताब्दी की एक पेंटिग में साइबेरियन सारस को दर्शाया गया है । यह पेंटिंग मुगल-शासक जहांगीर के दरबारी कलाकार उस्ताद मंसूर की है । भारतीय साहित्य में इसे सफेद सारस कहा गया है । जर्मन प्रकृतिविद् पीटर पलास ने अठारवीं सदी में इसका वैज्ञानिक विवरण प्रस्तुत कर वैज्ञानिक नाम ग्रूस ल्यूकोजिरेनस दिया ।
प्रख्यात राजनीतिज्ञ ओ, ह्यूम, जिन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की थी, के लेखन में भी इस सारस का जिक्र आता है । दरअसल वे प्रकृतिविद भी थे । उ.प्र. के इटावा में ज़िला मजिस्ट्रेट के पद पर पदस्थ थे तब सर्दियों में आने वाले इस मेहमान को उन्होंने देखा था ।
इस लम्बे, छरहरे सारस की संख्या कभी ज़्यादा नहीं रही, ओ. ह्यूम के समय भी नहीं । उन्होंने १८६७ में आइबिस नामक एक ब्रिटिश जनरल में इसका विस्तृत विवरण दिया था । ह्यूम के अनुसार यह अन्य भारतीय सारसों से भिन्न है । यह प्राकृतिक जलीय वनस्पति खाता है, खेतों या मैदानों में चरने नहीं जाता है। इसका मुख्य भोजन नदी या तालाब किनारे की जमीन में पैदा होने वाले सायपैरस नामक पौधे का कन्द होता है जिसका छिलका कडा होता है । यह पौष्टिक कन्द है, इसे जंगली सूअर से लेकर अन्य जंगली जानवर भी खाते हैं ।
भरतपुर की झीलों में ये कन्द मिट्टी में दबे रहते हैं व सारस ज़्यादातर समय इनको निकालने में गुजारते हैं । ये जब कन्द खोदते है तब इनके सिर, गर्दन व पैर पूरी तरह डूबे होते हैं । झील में मात्र इनकी सफेद पीठ ही पानी में तैरती नज़र आती है। यह दृश्य बेहद मनोहारी होता है ।
यहां आने वाले साइबेरियाई सारस सहित सभी विदेशी मेहमान शुद्ध शाकाहारी होते हैं जबकि देशी पक्षी मांसाहारी होते हैं। जलीय वनस्पतियां, मछलियां, कीट, मोलस्क, प्लवक का भोजन और साथ में झील के चारों ओर फैली झाडियां पक्षियों के बसने के लिए इस उद्यान को आदर्श बनाते हैं ।
सारस ज़्यादातर ५-६ के झुण्ड में रहते हैं, कुछ जोडे में रहते हैं । हरेक जोडा अपने इलाके निर्धारित कर लेता है व किसी भी घुसपैठिए को रोकने के लिये ये एक स्वर में चिल्लाकर चेतावनी देते हैं । नर पहले शुरू करता है व अपना सिर व गर्दन तेज़ी से झटके से साथ आगे पीछे ले जाता है । जैसे सफेद लिली अचानक खिलती है, उसी तरह यह अपने पंख फैला देता है । इसी बीच मादा भी साथ हो लेती है । दोनों अपना सिर हिलाकर ऊंचे व नीचे स्वर में आवाज़ देते हैं । भरतपुर में पौ फटने के समय ये आवाज़ें सुनी जा सकती है ।
सारस की अपने साथी के प्रति वफादारी अदभुत है । साथी के बिछुड जाने पर ये आजीवन अकेले रहते हैं।अनेक जोडी के साथ एक तीसरा प्राणी-उनका ४-६ माह का शावक - भी हो सकता है, जिसका जिसका जन्म टूण्ड्रा में हुआ था, जहां उसके लिए काई-लाइकेन आदि पर्याप्त् भोजन था । वहीं इसे पंख का पहला जोडा मिलता है जो इसे अपने माता-पिता के साथ उडाकर यहां लाया है ।शावक भोजन के लिए अपने माता-पिता पर निर्भर करते हैं।
मेहमानों ने मोडा मुंह - साइबेरियन सारसों के संरक्षण के लिए स्थापित मास्को स्थित अंर्तराष्ट्रीय संस्था साइबेरियन क्रेन फ्लाइवे कोआर्डिनेशन की रिपोर्ट के अनुसार, घाना में १९६० की सर्दियों में ६० सारस देखे गए थे । प्रसिद्ध विशेषज्ञ वाल्किनशा ने अनुसार १९६४-६५ में इनकी संख्या २०० थी और १९६८ में १०० । उद्यान के उपमुख्य वन्य जीव प्रतिपालक के अनुसार १९९१ में २३ सारस अपने शीतकालीन प्रयास पर यहां आए थे । सन २००२ की सर्दियों में केवल एक साइबेरियन सारस का जोडा यहां आया था और उसके बाद से ही इस पक्षी ने केवलादेव की ओर रूख नहीं किया है ।
साइबेरियन सारस के संरक्षण विशेषज्ञों का कहना है कि घना में निरंतर हो रही पानी की कमी इन सारसों की यहां से विदाई की प्रमुख वजह है । इस अभयारण्य का एक बडा क्षेत्र कभी एक विशाल झील के रूप में था जिसे सडकों, पुलों, बांधो आदि द्वारा अनेक छोटी-बडी उथली झीलों में बांट दिया गया है जिनमें पानी का आवागमन चेकगेट द्वारा नियंत्रित किया जाता है । राजस्थान के कारोली ज़िले में स्थित पांचना बांध का पानी अजान बांध के ज़रिए घाना को दिया जाता रहा है । लेकिन पिछले कुछ वर्षो से राजनैतिक कारणों से पांचना बांध से घाना को पानी मिलना बंद हो गया है ।
पानी की कमी से मात्र साइबेरियाई सारस ने ही मुंह नहीं मोडा है बल्कि पूरा पक्षी विहार बर्बादी की कगार पर पहुंच गया है । इन सारसों के यहां न पहुंचने की एक वजह इनका शिकार भी है । अंतर्राष्ट्रीय क्रेन फाउण्डेशन सहित कई संस्थाआें का मानना है कि साइबेरियाई सारस अपनी जन्मभूमि साइबेरिया और शीतकालीन आवास घाना में तो सुरक्षित रहते हैं लेकिन रास्ते में इनके निरंतर शिकार ने इन्हें विलुिप्त् की कगार पर ला खडा किया है ।
इनके शीतकालीन प्रवास के ३ रास्ते हैं, पश्चिमी, मध्य और उत्तरी । सारसों की एक प्रजाति पश्चिमी मार्ग से सर्दियां बिताने ईरान जाती है जबकि मध्य मार्ग से दूसरी प्रजाति भारत आती हैं । उत्तर पूर्व साइबेरिया की प्रजाति उत्तरी मार्ग से चीन की प्योंग झील के किनारे सर्दियां बिताती हैं । भारतीय मेहमान रूस, कज़ाकिस्तान, उजबेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में सुरक्षित नहीं हैं और यहां इनका जमकर शिकार हुआ है। सन १९९८ में एक साईबेरियाई सारस के जोडे व उसके बच्च्े पर ट्रांसमीटर बांधकर परीक्षण करने से भी इस बात की पुष्टि हुई हैं।
अंर्तराष्ट्रीय क्रेन फाउण्डेशन का मानना है कि मध्य मार्ग से आने वाली प्रजाति का पूरी तरह विनाश हो चुका है, हमारे देश में सारसों का आना बंद होने के पीछे यही वजह मानी जा रही है । उत्तर पूर्वी साइबेरियाई सारस शिकारियों से अभी बचे हुए हैं, लिहाजा चीन के प्योंगे झील के किनारे आज भी इन्हें सर्दियां बिताते देखा जा सकता है ।
ऐसा नहीं है कि साइबेरियाई सारस को बचाने के प्रयास नहीं हुए हैं । तीस वर्ष पूर्व स्थापित इन्टरनेशनल क्रेन फाउण्डेशन से लेकर अब तक कई संस्थाए इस काम में लगी हैं । वहीं संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रयासों से ९० के दशक के आरंभ में ११ देशों ने इस पक्षी को बचाने के लिए एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए थे ।
रूसी प्राणी वैज्ञानिकों ने चीन से अण्डे इकट्ठे कर इन्टरनेशनल क्रेन फाउण्डेशन को भेजे थे व इनसे चूज़े निकालने में भी सफलता हासिल की । चीन व रूस में इनके आवास की सुरक्षा, जनन क्षेत्र की पहचान, प्रवास के रास्तों की पहचान व शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध व इसके प्रति जागरूकता आदि की अनेक योजनाएं बनाई गई हैं। इसी प्रकार भारत में भी अण्डे प्राप्त् कर चूज़े पालने की योजना बनाई जाए तो चूज़ों को लद्दाख की दलदली झील में स्थापित किया जा सकता है। यहां एक अन्य दुर्लभ सारस चा-थुंग सदियों से प्रजनन कर रहा है; साईबेरियन सारस के लिए भी यह उपयुक्त आवास होगा ।
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