मंगलवार, 26 जून 2007

४ वातावरण

४ वातावरण
भारत ग्लोबल वॉर्मिंग का सामना कैसे करे ?
सुश्री रेशमा भारती
हाल के समय में हुए कई वैज्ञानिक अध्ययन-अनुसंधानों और विश्व के कई भागों में प्रकट जलवायु परिवर्तन की विकट स्थितियों ने ग्लोबल वॉर्मिंग के संकट की गंभीरता को प्रकट किया है और इसका सामना करने के लिए बिना विलंब के ठोस व अहम कदम उठाने की जरूरत पर बल दिया है ।
विश्व भर में इस संकट का सामना करने के लिए ग्रीन हाऊस गैसोंके बढते उत्सर्जन को कम करने की बुनियादी जरूरत को महसूस किया जा रहा है । औद्योगीकरण, मशीनीकरण वाली दुनिया में इसे एक गंभीर चुनौती माना गया है ।
तेजी से विकसित होती भारत की अर्थव्यवस्था भी काफी ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन की स्थिति पैदा कर रही है । कार्बन डायॉक्साइड के उत्सर्जन में भारत विश्व के चार-पाँच प्रमुख देशों में से एक है ।
इंटरगर्वंमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आई.पी.सी.सी ) के अध्यक्ष डॉ. आर.के. पचौरी का मानना है कि जलवायु परिवर्तन का सामना करने के संदर्भ में भारत को एशिया में प्रमुख सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए ।
सवाल उठता है कि ग्लोबल वॉर्मिंग का सामना करने के लिए भारत कौन-सा मार्ग अपनाएगा ? क्या वह आकर्षक दिखने वाले उस गैर टिकाऊ व विसंगतिपूर्ण विकास को अंधाधुंध अपनाएगा जिस पर चलकर स्वयं कई विकसित देश आज थके हुए व हताश मालूम होते हैं? तब तो शायद वह भी स्वयं को महज कुछ ग्रीन व ईको फैं्रडली दिखाकर फील गुड करके संतुष्ट हो लेगा ! अथवा क्या भारत कई अन्य देशों की स्थिति व स्वयं अपने अतीत के अनुभवों से ठोस सबक लेता हुआ वैकल्पिक विकास की नई राहें तलाशेगा ? ग्लोबल वॉर्मिंग का सामना करने में कई विकसित देशों की दोहरी नीतियों पर भारत का क्या रूख होगा ?
बेलगाम बढता औद्योगिकरण, मशीनीकरणण, शहरीकरण बिजली की खपत को बेइंतहा बढा रहा है । जहां एक ओर कोयला तेल जैसे जीवाश्म इंर्धनों की खपत को कम करना जरूरी है; वहीं दूसरी ओर यह समझना भी जरूरी है कि ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोतों की भी अपनी कई सीमाएं हैं ।
बडी पनबिजली योजनाआें से जुडे पर्यावरण संबंधी नुकसानों, विस्थापन, बाढ की बढती समस्या, दुर्घटनाआें की संभावना, अपेक्षित लाभ न मिल पाना, सिकुडते ग्लेशियरों के चलते इनके अनिश्चित भविष्य ने इनपर कई सवाल खडे किए हैं। कई वैज्ञानिकों-पर्यावरणविदों ने बांधों के जलाशय की सतह से व पनबिजली सयंत्र संचालन के दौरान होने वाले ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन की समस्या पर भी ध्यान दिलाया है ।
परमाणु ऊर्जा में रेडियोएक्टिव कचरे से होने वाले प्रदूषण की गंभीर समस्या है जो भूमिगत जल में भी फैल सकता है और शेष पर्यावरण में भी । परमाणु ऊर्जा सयंत्रों में दुर्घटना व चोरी की संभावना भी मौजूद रहती है । परमाणु इंर्धन की मौजूदगी अधिकाधिक हिंसक होती दुनिया में अपने आप में खतरा तो उपस्थित करती ही हैं ।
ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोतों के रूप में सौर व पवन ऊर्जा को भी महत्त्वपूर्ण माना गया है । बिजली की बचत करने वाली तकनीकों को भी प्रोत्साहन मिल रहा है ।
हर संभव तरीके से बिजली की बचत करने वाली तकनीकों को भी प्रोत्साहन मिल रहा है ।
हर संभव तरीके से बिजली की बचत करना आज की जरूरत है । अधिक बिजली खींचने वाले उपकरणों जैसे ए.सी., फ्रिज (जो ओजोन परत को भी नुकसान पहुँचाते हैं), कम्प्यूटर आदि का उपयोग यथासंभव सीमित किया जाए । इसके प्रति विशेष सजग रहा जाए कि जब जरूरत न हो तब बिजली के उपकरण अवश्य बंद रहें। बिजली की जरूरतों को कम करना प्राथमिकता होनी चाहिए । विकल्पों को भी अंधाधुंध नहीं अपनाया चाहिए और वैकल्पिक वस्तुआें को अपनाते हुए इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि क्या समाज में मेहनतकश गरीबों के लिए वैकल्पिक रोजगार भी पनप रहे हैं या नहीं।
बढती कार्बन डायॉक्साइड को एकत्र कर भूमिगत या समुद्र की गहराईयों में छोड देना धरती व समुद्र की प्रकृतिपर बोझ तो होगा ही; साथ ही इस प्रक्रिया के दौरान भी कार्बन डायॉक्साइड वातावरण् में छूट सकती हैं और यह खतरा पैदा करती हैं ।
बायोइंर्धन के अंधाधुंध प्रसार पर भी सवाल उठे हैं । इसके कच्च्े माल की खेती के अंधाधुंध प्रसार से पर्यावरण, जैव विविधता, सीमित भूमि संसाधन पर पडते दबावों और इसकी रसायनयुक्त खेती के प्रसार से मोनोकल्चर को मिलता बढावा सवालों के घेरे में है । बायोइंर्धन निर्माण प्रक्रिया व ट्रांसपोर्ट में होते ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन पर भी चिंता प्रकट हुई है । वस्तुत: इंर्धन की खपत ही कम करना प्राथमिकता होनी चाहिए ।
वाहनों के संदर्भ में अपेक्षाकृत कम प्रदूषण करने वाली तकनीकों व इंर्धनों को कई जगह बढावा दिया जा रहा है । सार्वजनिक वाहनों की गुणवत्ता में सुधार व उनको बढावा दिया जाना चाहिए । साथ ही, बेलगाम बढते निजी वाहनों पर नियंत्रण बहुत जरूरी है । कुछ पश्चिमी देशों में सुव (डणत) जैसे बडे व काफी प्रदूषण करने वाले वाहनों पर कुछ सीमाएं लगायी जा रही हैं । हमें भी इससे सबक लेना चाहिए। एक विरोधाभास देश की राजधानी दिल्ली में यह देखा जा रहा है कि सडके चौडी करने व बेहतर सार्वजनिक वाहन सेवा की व्यवस्था के नाम पर बडी संख्या में पेड काटे जा रहे है ! इस तरह के दोहरे मापदण्डो से अंतत: पर्यावरण् की क्षति ही होती है ।
वायुयानों से होने वाला काफी ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन सीधा वायुमण्डल की ऊपरी सतहों को प्रदूषित करता है, ओजोन परत को नुकसान पहुँचाता है वायुमण्डल का रेडियोएक्टिव संतुलन बिगाडता है । बेइंतहा बढती हवाई यात्राआें को सीमित करना प्राथमिकता होनी चाहिए।
साईकिल, साईकिल रिक्शा व पैदल चलने वालों को प्रोत्साहन मिलना चाहिए । घर व कार्यस्थल की दूरियों को यथासंभव कम करने की दिशा में भी सोचा जा सकता है । इसके अतिरिक्त निजी मोटर वाहनों का सोच समझकर किया गया सीमित उपयोग ठीक रहेगा जैसे सामान्य कम दूरी के कामों के लिए मोटर वाहन का उपयोग न करना, अपने वाहनों में यथासंभव परिचितों के साथ मिलकर यात्रा करना आदि सुलभ उपाय हैं।
हर तरह से जल-संरक्षण को बढावा देना जरूरी है । वर्षा जल संचयन की पद्धतियों को बढावा मिलना चाहिए और परम्परागत जल संरक्षण विधियों से भी सीखा जाना चाहिए। परम्परागत जल स्त्रोतों की देखरेख व वृक्षारोपण को प्रोत्साहन मिलना चाहिए।
कार्बन ट्रेडिंग वस्तुत: ग्लोबल वॉर्मिंग का सामना करने के नाम पर भ्रमपूर्ण स्थिति ही अधिक पैदा करती है और कुछ संकीर्ण हितों की पूर्ति करती है। जहां एक ओर महज कार्बन क्रेडिट में निवेश करके विकसित देश अपना ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन बढाते रहते है; वहीं दूसरी ओर विकासशील देशों में इस ट्रेडिंग के अंतर्गत होने वाले प्रोजेक्ट भी ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन में काई वास्तविक व उल्लेखनीय कटौती करने के स्थान पर कई बार कुछ नई समस्याएं ही पैदा कर देते हैं (जैसे परम्परागत जंगलों को काटकर किसी नए किस्म के पेड-पौधे का प्रसार अथवा मोनोकल्चर को मिलता बढावा)।
गांवों में जलवायु परिवर्तन की मार झेलते कृषकों व अन्य ग्रामवासियों को विशेष सहायता की जरूरत है। परम्परागत जल स्त्रोतों के उत्थान और बिजली-पानी की बचत की ओर ध्यान देना होगा। गैर रसायनिक, गैर मशीनीकृत, गैर जी.एम., परम्परागत खेती की ओर लौटना होगा और जलवायु परिवर्तन की नई चुनौतियों का सामना करने के अनुरूप कदम खेती में उठाने होंगे। जलवायु बदलाव व प्राकृतिक आपदाआें के दौर में गांवों से बढते पलायन को कम करने के लिए गांवों में छोटे स्तर के श्रम प्रधान, उत्पादनात्मक, रचनात्मक व गांवों की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति में आत्मनिर्भरता लाने वाले रोजगारों का सृजन करना होगा।
यह सब तभी संभव है जब भूमण्डलीकरण की ताकतों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट व उसके चलते गांववासियों को उनके जल-जंगल-जमीन से वंचित किए जाने का अन्यायपूर्ण सिसलिता थमेगा।
बढते उपभोक्तावाद, बढती विषमता, बेलगाम बढते औद्योगिकरण-मशीनीकरण और प्राकृतिक संसाधनों की अन्यायपूर्ण लूट की प्रक्रिया प्राकृतिक असंतुलन और ग्लोबल वॉर्मिंग को बढाएगी ही। ग्लोबल वॉर्मिंग की प्रकट होती गंभीर चुनौती विकास के इस प्रचलित रास्ते पर प्रश्नचिह्र लगाती है और संतोष, सादगी, समता व प्राकृतिक जीवन शैली के महत्व को उभारती है। ***

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