मंगलवार, 26 जून 2007

५ जीव-जंतु

५ जीव-जंतु
विलुप्त होते जीव जन्तु और पर्यावरण
डॉ. भोलेश्वर दुबे
करोडो वर्ष पूर्व संयोगवश जीवन की उत्पत्ति संभव हुई। तब से आज तक अनेक जीवों का विकास हुआ है और यह सिलसिला जारी है। पृथ्वी ने अनेक जीव जन्तुआें और वनस्पतियों को आश्रय दिया तथा कई वातावरणीय, भूगर्भीय व जैविक परिवर्तनों की साक्षी रही। करोडो वर्षो की अवधि में अनेक जीव समुदाय अस्तित्व में आए और उनमें से कई इस भूलोक से विदा भी हो गए। प्रथम जीव की उत्पत्ति से वर्तमान काल तक लाखों प्रकार के जीव जन्तुआें और वनस्पतियों का विकास हुआ किन्तु आज उनके कुछ चुनिंदा प्रतिनिधि ही शेष बचे है।
भूगर्भीय अन्वेषण से स्पष्ट होता है कि अधिकांश प्रारंभिक व मध्यकालिक पादप और जन्तु समूह कुछ लाख साल तक धरती पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर विलुप्त हो गए। लगभग तेईस करोड तथा चौदह करोड वर्ष पूर्ण कुछ ऐसी प्राकृतिक घटनाएं घटित हुई जिनके कारण अधिकांश जैव प्रजातियां एक साथ विलुप्त हो गई। इसी काल में दैत्याकार डॉयनासौर के साम्राज्य का भी अंत हुआ। करोडो वर्ष पूर्व विलुप्त हुए उन जीवों की उपस्थिति के प्रमाण के रूप में अब हमारे समक्ष उनके जीवाश्म ही शेष हैं।
जीव शास्त्रियों का मत है कि पृथ्वी पर आज तक जितने भी जीव विकसित हुए उनका मात्र एक प्रतिशत ही आज अस्तित्व में हैं, शेष ९९ प्रतिशत जीव अब पूरी तरह लुप्त हो चुके हैैं । जीवों का विलुप्त्किरण सहज प्राकृतिक घटना है, जिससे बच पाना मुश्किल है ।
जैव विकास की प्रक्रिया में अक्षम प्रजातियां प्राकृतिक चयन के दौरान नकार दी जाती हैं, क्योंकि वे अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष नहीं कर पाती और बदली हुई परिस्थितियों में अनुकूलित भी नहीं होती । ऐसी जैव प्रजातियां जिनका सीमित वितरण हो तथा वे प्राकृतिक और मानवीय प्रतिकूल प्रभावोंसे लगातार जूझ रही हों, उनकी संख्या घटने लगती है । तथा उनकी विलुप्त्किरण की प्रक्रियातीव्र हो जाती हैं । इन संकटग्रस्त प्रजातियों की प्रजनन क्षमता भी घट जाती है । विलुप्त्किरण में पर्यावरणीय परिवर्तनों की प्रमुख भूमिका है । जो प्रजातियां बदले हुए माहौल के लिए अनुकूलित नहीं होती उनकी तादात घटती जाती है और अन्तत: उनका सफाया हो जाता है ।
जीव-जन्तुआें के आवास में प्रतिकूल परिवर्तन जीवों को पलायन के लिए प्रेरित करते हैं। कई बार आवासीय स्थितियां अचानक अत्यंत विषम हो जाने पर वहां की जैव प्रजातियां समाप्त् हो जाती हैं । आवास विनाश के लिए भूकम्प, ज्वालामुखी, तूफान, बाढ, भूस्खलन जैसे प्राकृतिक कारणोंके साथ-साथ नगरीकरण, वन-विनाश, बांध निर्माण, औद्योगिकीकरण, खनिज उत्खनन व प्रदूषण जैसी मानवीय गतिविधियाँ भी जिम्मेदार हैं ।
जैव तंत्र से एक प्रजाति का विलुप्त् होना पूरे तंत्र को प्रभावित करता है और वहां की भोजन श्रृंखला गडबडा जाती है । विलुप्त्किरण का सर्वाधिक प्रभाव उन प्रजातियों पर होता है जो स्थानिक और सीमित वितरण वाली हैं। ऐसी प्रजातियां विषम परिस्थितियों में अपने मूल आवास को छोड नए आवास की ओर प्रवास नहीं कर पाती और न बदली हुई परिस्थितियों से समझौता कर पाती हैं।
दुनियाभर में अब तक लगभग पचास हजार वनस्पति प्रजातियां स्थानिक पाई गयी हैं । ये पूरी धरती पर चिहि्न्त अट्ठारह आवास स्थलों पर ही सीमित है। भारत भी ऐसे कई पौधों और जीव जन्तुआें का आवास क्षेत्र है जो विश्व में कहीं ओर नहीं पाए जाते । उत्तर-पूर्व के वन क्षेत्र, पश्चिमी घाट, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह क्षेत्रफल के लिहाज से बहुत छोटे हैं, मगर यहां फूलधारी पौधों की २२० प्रजातियां और १२० प्रकार की फर्न पाई जाती हैं। यहां के समुद्र में फैली मूंगे (कोरल) की चट्टानें जैव विविधता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । उत्तर-पूर्वी वन में १५०० स्थानिक पादप प्रजातियां पाई जाती हैं । पश्चिमी घाट अनेक दुर्लभ उभयचरों, सरीसृपों व विशिष्ट पादप समूहों के लिए प्रसिद्ध है ।
जैव विनाश की प्राकृतिक प्रक्रिया को मानवीय गतिविधियों ने कई गुना बढा दिया है । प्राकृतिक संसाधनों के अविवेकपूर्ण, अनियोजित दोहन ने जन्तुआें और वनस्पतियों के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न् लगा दिया है । अनुमान है कि यदि प्रकृति में इसी गति से मानवीय हस्तक्षेप होता रहा तो सन् २०५० तक लगभग एक करोड जैव प्रजातियां विलुप्त् हो जाएंगी ।
वर्तमान में पूरे विश्व में लगभग अट्ठारह लाख वनस्पतियों और जन्तुआें की प्रजातियां ज्ञात हैं । ऐसा अनुमान है कि यह संख्या इससे दस गुना अधिक हो सकती है, क्योंकि अभी भी कई जैव प्रजातियों की जानकारी वैज्ञानिकों को नहीं है । एक आकलन के अनुसार वर्तमान दर जारी रही, तो प्रति वर्ष दस से बीस हजार प्रजातियों के विनाश की संभावना है । यह प्राकृतिक विलुप्त्किरण की दर से कई हज़ार गुना अधिक है ।
विकास के नाम पर पर्यावरण का भारी नुकसान होता है । शहरों का विस्तार, सडक निर्माण या सिंचाई और ऊर्जा के लिए बांध निर्माण अथवा औद्योगिकीरण, इन सब का खामियाजा तो मूक प्राणियों और वनस्पतियों को ही चुकाना पडता है। मानव की शिकारी प्रवृत्ति ने भी जीवों के विलुप्तीकरण की दर में वृद्धि की है । वन्य प्राणियों की खाल, हडि्डयों, दांत, नाखून आदि के व्यापारिक महत्व के चलते इनके अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है । क्षणिक सुख और कुछ धन के चक्कर में इन जीवों की हत्या की जाना चिंता का विषय है । शिकार के ही परिणामस्वरूप मॉरिशस का स्थानिक पक्षी डोडो दुनिया से सदा के लिए कूच कर गया और अनेक जीव संकटग्रस्त प्रजातियों की श्रेणी में आ खडे हुए हैं । इनमें प्रमुख हैं बाघ, सिंह, गेंडा, भालू, हाथी, पांडा, चिंकारा, कृष्ण मृग, कस्तूरी मृग, बारहसींगा, कई वानर प्रजातियां, घडियाल, गंगा में पाई जाने वाली डॉल्फिन आदि । कृषि क्षेत्र में कीटनाशकों के उपयोग से कई पक्षी संकट में है । विगत कुछ वर्षो में चौपायों के उपचार में इस्तेमाल की जाने वाली दर्दनिवारक औषधि डिक्लोेफेनेक के दुष्परिणाम सफाई कामगार गिद्धों पर इस हद तक हुए कि आज यह प्रजाति विलुिप्त् के कगार पर पहुंच गई है।
मशीनीकृत नावों के द्वारा मत्स्याखेट ने मछलियों के साथ समुद्री कछुआें और अन्य जीवों को भारी नुकसान पहुंचाया है । पौधों की भी कमोबेश यही स्थिति है । अत्यधिक दोहन के कारण भारत में ही १५०० पादप प्रजातियां विलुिप्त् की कगार पर हैं ।
इस निराशाजनक परिदृश्य में कुछ आशा की किरणें भी हैं । मानव को जहां प्रकृति विनाश के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाता है वहीं मनुष्य ने प्राचीन काल से ही प्रकृति संरक्षण के उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं । ये प्रयास चाहे उनकी मूलभूत आवश्यकताआें, धार्मिंक, सामाजिक मान्यताआें या आस्था के तहत ही क्यों न किए गए हों, इनसे जैव संरक्षण में मदद मिली हैं । चीन और जापान के बौद्ध मठों में गिंकलो बाईलोबा नामक वृक्ष उगाया जाता था । धार्मिक आस्था के कारण यह वृक्ष आज भी जीवित है और जीवित जीवाश्म के रूप में जाना जाता है । वन और वन्य प्राणियों, विशेष रूप से खेजडी और हिरण के संरक्षण के साथ राजस्थान के विश्नोई समाज का नाम जुडा है ।
उत्तराखंड का चिपको आंदोलन, बीज बचाआें आंदोलन, कर्नाटक के छोटे से गांव काक्कारे वेलुर के निवासियों का पेलिकन पक्षी प्रेम प्रकृति संरक्षण के आदर्श उदाहरण हैं । काक्कारे वेलुर के ग्रामीण तो प्रवासी पेलिकन पक्षियों की न केवल प्रतीक्षा करते हैं वरन् उनके आवास और प्रजनन की समुचित व्यवस्था भी जुटाते हैं ।
विगत कुछ वर्षो में सामाजिक और शासकीय स्तर पर प्रकृति संरक्षण की चेतना जागृत हुई है । कई स्वयंसेवी संगठन, शासकीय विभाग, विश्व प्रकृति निधि, अन्तर्राष्ट्रीय प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधन संरक्षण संगठन, जैव विविधता बोर्ड जैसी संस्थाआें ने उल्लेखनीय कार्य किये है। विश्व स्तर पर संकटग्रस्त प्रजातियों का लेखा-जोखा रखा जा रहा है तथा उनके संरक्षण के समुचित प्रयास हो रहे हैं।आज अनेक अभयारण्य,वन्यजीव संरक्षण उद्यान, संकटग्रस्त जीवों के सरंक्षण और प्रजनन के विशेष क्षेत्र बनाए गए हैं जहां इन लुप्त्प्राय जीवों को बचाने के प्रयास जारी हैं ।
संरक्षण के प्रयास की पूरी ज़िम्मेदारी शासन पर छोड देना बडी भूल होगी । इस हेतु समन्वित प्रयासों की आवश्यकता है जिसमें गैर सरकारी संस्थाआें व समाज की भी बराबरी की भूमिका होनी चाहिए ।
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