बुद्धिमान नहीं थे मानव के पूर्वज !
अब तक मनुष्यों के पूर्वजों यानी बंदरों के बारे माना जाता रहा है कि वे काफी बुद्धिमान रहे होंगे, लेकिन दो करोड ९० लाख साल पुरानी एक खोपडी के विश्लेषण से पता चला है कि बुद्धिमत्ता में वे वर्तमान मनुष्यों से कम ही थे ।
अति आधुनिक तरीकों से संभालकर रखी गई मनुष्यों के पूर्वज माने जाने वाले एजिप्टोपाइथेकस ज्यूजियस की खोपडी के अवशेषों का अध्ययन करने के बाद वैज्ञानिकों ने विस्तृत रिपोर्ट तैयार की है, जिसका सबसे मुख्य बिंदु यह है कि मनुष्यों और बंदरों के पूर्वज यानी वानर ज्यादा बुद्धिमान नहीं होते हैं । माना जाता है कि ये पूर्वज २ करोड ९० लाख साल पहले मिस्र के अति गर्म जंगलों में पेडों की पत्तियाँ और फल खाकर विचरण किया करते थे । वैज्ञानिकों का कहना है कि पूर्व में मनुष्यों का मस्तिष्क काफी छोटा होता था, जो समय के साथ-साथ धीरे-धीरे बडा होता गया और इस प्रकार उनकी अगली पीढियों में समझबूझ और ज्ञान का विकास होता गया ।
ड्यूक यूनिवर्सिटी के प्राइमेटोलॉजिस्ट और अध्ययनकर्ता दल के प्रमुख डॉ. एल्विन सिमोन्स कहते हैं कि यह बडा आर्श्चयजनक तथ्य है कि हमारे पूर्वजों का मस्तिष्क अत्यंत छोटा होता था । वे कहते हैं कि एक मादा बंदर की यह खोपडी वर्ष २००४ में कैरों के नजदीक पाई गई थी ।
अति प्राचीन इस खोपडी का अध्ययन करने के लिए माइक्रो कम्प्यूटराइज्ड वैज्ञानिकों ने स्कैनिंग पद्धति का सहारा लिया। यह एक प्रकार की कम्प्यूटराइज्ड एक्स-रे तकनीक है, जिसे माइक्रो-सीटी भी कहा जाता है । इसके जरिए जानवरों की खोपडी के बारे में जानकारियाँ जुटाई जा सकती हैं ।
दुनिया में सबसे तेज चलते हैं सिंगापुरी
क्या आप जानते हैं कि दुनिया में सबसे चाल कहां के निवासियों की है ? इस मामले में सिंगापुर के लोग अन्य देशों से आगे है जबकि पिछले एक दशक में न्यूयार्क वासियों की चाल में १० फीसदी का इज़ाफा हुआ है ।
दुनिया के ३२ शहरों को एक नमूने के तौर पर चुनकर यहां के बाशिंदो की औसत चाल का अध्ययन किया गया। इस मामले में सिंगापुर के लोग सबसे आगे हैं । इस शहर को सुस्त चाल चलना पसंद नहीं है । तेज चाल चलने के मामले में कोपेनहेगन, मेड्रिड और गुआनझाऊ शहर के लोगों का भी शीर्ष स्थान है, लेकिन इस मामले में न्यूयार्क आठवें स्थान पर हैं । भारत के किसी भी शहर को इस अध्ययन में शामिल नहीं किया गया । ब्रिटिश काउंसिल द्वारा कराए गए इस अध्ययन के मुताबिक हमेशा अधिक तेज चलना भी स्वास्थ्य के लिए लाभदायक नहीं है ।
ब्रिटेन में यूनिवर्सिटी ऑफ हाईफोर्डशायर में मनोविज्ञान विभाग के प्रोफेसर रिचर्ड वाइजमैन के मुताबिक तेज चाल और खान-पान में पर्याप्त् तारतम्य या समन्वय न होने से कई नुकसान है । जो लोग अधिक तेज चलते हैं, वे व्यायाम के प्रति उदासीन हो जाते है । ऐसे लोगों को अपने दोस्तों और परिजनों की उपेक्षा करने की आदत हो जाती है । जो लोग तेज चलते हैं उन्हें तेज बोलने और तेज खाने की भी आदत हो जाती है जो स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है ।
ऐसे लोग हमेशा अधीर बने रहते है और कई बार गलतियां कर बैठते हैं । तेज चलने वाले लोगों को जल्दबाजी में घडी बांधने की आदत होती है । ऐसे लोग अधीर किस्म के व्यक्ति होते है जिन्हें न बैठने में मन लगता है न ट्रैफिक जाम की स्थिति उन्हें सुहाती है ।यहां तक कि वे कतार में खडे होने के बाद अस्थिर नजर आते है । इस तरह से ये लोग अस्थिरता के शिकार हो जाते है ।
गैस सोख नहीं पा रहा दक्षिणी महासागर
वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण अंटार्कटिक के चारों और फैले दक्षिणी महासागर में कार्बन डाईऑक्साइड सोखने की क्षमता खतरे में है ।
पत्रिका साइंस में छपे एक शोध में ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे, यूनिवर्सिटी ऑफ इंस्टीट्यूट फॉर बायोजियोकेमिस्ट्री के वैज्ञानिकों का कहना है कि दक्षिणी महासागर कार्बन डाईऑक्साइड से पूरी तरह भर गया है । असल में यह महासागर भारी मात्रा में दुनियाभर में उत्सर्जित होने वाली कार्बन डाईऑक्साइड गैस को सोखता है, लेकिन अब इसमें इतनी कार्बन डाईऑक्साइड आ गई है कि सागर इसे सोखने की बजाय वापस वातावरण में छोड रहा है ।
वैज्ञानिकों के अनुसार अगर इसे रोका नहीं गया तो दुनिया का तापमान आशंकाआें से कहीं अधिक तेजी से बढेगा। दक्षिण महासागर दुनिया का पन्द्रह प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड सोखता है, जिससे तापमान सामान्य रखने में मदद मिलती है, यह गैस सागर के तल में बैठ जाती है ।
पिछले कुछ वर्षो में बढते हुए तापमान और ओजोन परत को हुई क्षति के कारण तेज हवाएँ चलने लगी हैं । इससे सागर का पानी हिलोरे लेता है और गैस नीचे बैठ नहीं पाती । इतना ही नहीं, गर्म और तेज हवाआें के कारण नीचे बैठी हुई गैस ऊपर आ रही है और वातावरण में फैल रही है । वैज्ञानिकों ने चार साल के गहन शोध के बाद यह चेतावनी दी है कि स्थिति में तेजी से सुधार नहीं हुआ तो आने वाले समय में अन्य महासागरों का हाल भी इस महासागर जैसा ही हो सकता है ।
यूका का कचरा पीथमपुर और अंकलेश्वर जाएगा
भोपाल में गैस त्रासदी के बाद बंद पडे यूनियन कार्बाइड का ३८६ मीट्रिक टन जहरीला कचरा शीघ्र ही पीथमपुर और गुजरात के अंकलेश्वर में निपटान के लिए भेजा जाएगा । राज्य शासन ने पहली मर्तबा स्वीकार किया है कि यूका का कचरा पीथमपुर में शिफ्ट किया जाएगा ।
हजारों लोगों को मौत के घाट उतारने वाली मिक गैस और घातक कचरे को पीथमपुर में दफनाया जाएगा । रामकी इन्वायरो इंजीनियर्स लि. ने पीथमपुर में लैंडफिल तैयार की है, जिसमें प्रदेशभर की औघोगिक इकाइयों का रासायनिक कचरा दफन किया जाएगा । इंदौर और धार के पर्यावरणविद् लगातार इस लैंडफिल का विरोध कर रहे हैं । उनका कहना है कि रासायनिक कचरे से भोपाल में कई किलोमीटर क्षेत्र प्रदूषित हो चुका है और लैडफिल ऐसे खतरनाक कचरे के निपटान के लिए उचित तरीका नहीं है ।
पिछले दिनों प्रदेश के गैस राहत एवं पुनर्वास मंत्री बाबूलाल गौर ने केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह को ज्ञापन देकर मांग की कि यूका परिसर से रासायनिक अपशिष्ट हटाने के लिए दो करोड की राशि शीघ्र दी जाए । श्री गौर ने बताया कि कार्बाइड परिसर से ३४६ मीट्रिक टन अपशिष्ट गुजरात के अंकलेश्वर में इन्सीलेशन किया जाएगा और ४० मीट्रिक टन पीथमपुर में जमींदोज किया जाएगा । श्री गौर के मुताबिक अपशिष्ट के संचय का काम शुरू हो गया है और इस पर ९० लाख रूपए खर्च भी किए जा चुके हैं ।
बाथरूम में पर्यावरण हितैषी उपकरणों की माँग
पर्यावरण के प्रति जागरूकता के चलते अब भारत में उपभोक्ता सेनेटरी के क्षेत्र में भी ऐसे उपकरण माँगने लगे हैं, जो पर्यावरण हितैषी हों । पानी कम से कम खर्च करते हों । पैसों की परवाह नहीं। एक बाथरूम बने न्यारा की भावना बलवती होती जा रही हैं ।
सेनेटरी उद्योग जगत के स़ूत्रों के अनुसार उपभोक्ता की माँग को देखते हुए पर्यावरण हितैषी आयटम बाजार में आ गए हैं । पुराने उपकरणों में अधिक पानी की खपत होती थी । अब नये उपकरण इस तरह डिजाइन किए हैं कि सफाई भी ठीक तरीके से हो और पानी का खर्च भी कम रहे । सेनेटरी वेअर में कुल ८०० करोड रूपए का सालाना कारोबार होता हैं । लोग पत्र-पत्रिका में दिखाई देने वाले बाथरूम अपने घरों में बनवाना चाहते हैं। औसत भारतीय व्यक्ति अब ४० से ७५ हजार रूपए तक खर्च करने को तैयार रहते हैं । उच्च् वर्ग वर्ग में तो यह राशि दो लाख रूपये तक जाने लगी हैंे ।
जो लोग विदेश यात्रा पर जाते हैं और वहाँ के बाथरूम व टाइलेट देखते हैं तो उनके सदृश्य अपने घरों में भी सुविधा जुटाना चाहते हैं । कोई इटालियन बाथरूम चाहता है, तो किसी को जर्मन या योरपीय शैली के बाथरूम पसंद हैं । भारतीय बाजार में भी ऐसे आयटम की भरमार हो गई हैं।
दुकान-दुकान भटकने की प्रवृत्ति भी अब लुप्त् होती जा रही हैं । उपभोक्ता चाहता है कि एक ही छत के नीचे टोटियाँ, सिस्टर्न और मिरर वगैरह सब मिल जाएँ । सामान्य टोटियों की जगह डिजाइन वाली टोटियाँ, टॉवेल राड, फ्लॉवर स्टैंड, मिरर और और विशेष प्रकार की लाइटिंग प्रणाली पसंद की जाने लगी हैं । योरप की तरह गीले और सूखे क्षेत्र वाले बाथरूम की माँग भारत में भी गति पकड रही हैं ।
अभी तक तो बाथरूम में सबसे अधिक पानी खर्च करने का रिवाज रहा है। पिछले वर्ष एक सर्वेक्षण में कहा गया था कि लोग पेयजल का जो पानी उनके घरों में पहुंचता है, उसमें ४% पीने में, ८% खाना बनाने में उपयोग करते हैं । सबसे ज्यादा २९% बाथरूम में और ३९% पानी का उपयोग टाइलेट में होता है । पर्यावरण की दृष्टि से यह एक अच्छी पहल है और इस तरह के उत्पादों का स्वागत किया जाना चाहिए ।
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