मंगलवार, 26 जून 2007

१ सामयिक

१ सामयिक
पानी और सरकारी नीतियां
राजेन्द्र सिंह
पानी का सवाल अधिकार और जवाबदेही (राइट एंड रिस्पांसिबिलिटी) का है । सरकार ने पानी पर अधिकार तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंप दिया है और जिम्मेदारी आम जनता पर थोपना चाहती है। इस वजह से जनता ने पानी को अपना मानना छोड दिया है, इसलिए वे इसे छीनने या चुराने की कोशिश तो करते हैं लेकिन बचाने या संग्रहण करने की प्रवृत्ति छोडते जा रहे हैं ।
ऐसे में जरूरी है कि सरकार अधिकार और जिम्मेदारी दोनों जनता को हस्तांतरित करें और साथ-साथ कुछ संसाधन भी उसे दे ताकि वह पानी को बचाने और संग्रहण का काम कर सके । इस तरह से समुदायों द्वारा संचालित होने वाली एक विकेंद्रित जल व्यवस्था प्रणाली विकसित होगी । यह विकेंद्रीकरण ग्रामीण इलाकों के लिए अलग और शहरी इलाकों के लिए अलग किस्म का ह्ोगा ।
भारत में दरअसल जल की दो तरह की समस्या है । एक अधिकता की है और दूसरी कमी की। दोनों से निपटने के लिए एक जैसी लेकिन समग्र नीति बनाना होगी, यह काम न तो अकेले राज्य कर सकता है और न समाज । दोनों एक साथ मिलकर काम करें तो इसका समाधान आसानी से निकाला जा सकता है । इसके लिए पहली जरूरत समाज को पानी के काम की जिम्मेदारी सौंपने की है । जहां पानी दौडता है, समाज उसे वहां चलना सिखाएगा, जहां पानी चलता है, वहां उसे रेंगना सिखाएगा और जहां पानी रेंगता है या रेंगने लगेगा, वहां उसे पकडकर धरती के पेट में पहुंचाना होगा । जहां आसमान से पानी गिरेगा, उसे वहीं पकडकर धरती के पेट में पहुंचा दिया जाएगा । धरती का पेट भरा रहेगा तो किसी को पानी की कभी किल्लत नहीं होगी । जब भी पानी की जरूरत होगी, गरीब आदमी भी छोटी-सी कुइंर्या खोदकर अपनी जरूरत का पानी निकाल लेगा ।
यह काम जनोन्मुखी विकेंद्रित जल प्रबंधन के जरिये हो सकता है पर शुरूआत सरकार को करना होगी । उसे पानी का प्रबंधन छोड चुकी जनता को यह काम सौंपना होगा । भारत में हर साल चार हजार बीसीएम पानी गिरता है, जिसमें से हम औसतन छह सौ बीसीएम पानी का इस्तेमाल कर पाते हैं, बाकी बर्बाद हो जाता है । इसे प्रतीक रूप में ऐसे कहंें कि आसमान से चार हजार बूंदे गिरती हैं, जिनमें से हम महज छह सौ बूंदों का इस्तेमाल करते हैं । इसका मतलब है कि अपने देश में पानी की कमी नहीं है । हमारी जरूरत से काफी ज्यादा पानी प्रकृत्ति हमें देती है । हम छह सौ बीसीएम इस्तेमाल करते हैं और इसका करीब छह गुना बर्बाद कर देते हैं । अगर उसका कुछ और हिस्सा उपयोग करने लगें तो भारत की जन जरूरतें पूरी करने के लायक पर्याप्त् पानी हमारे पास उपलब्ध होगा ।
इसकी शुरूआत सरकारी नीतियों में बदलाव से करना होगी । भारत सरकार ने २००२ में राष्ट्रीय जल नीति बनाई थी । इस जल नीति की धारा १३ के अनुसार पानी का अधिकार या तो निजी कंपनियों के हाथ में दिया गया है या निजी व्यक्तियों के हाथ में । साझा तौर पर पानी का जिम्मा किसी को नहीं दिया गया है । इस वजह से लोगों ने पानी के कामसे अपनी जिम्मेदारी समाप्त् समझ ली और पानी चुराने या छीनने के काम में लग गए । इस नीति में बदलाव करके लोगों को यह संदेश दिया जाना चाहिए कि पानी प्रकृत्ति प्रदत्त संसाधन है, जो सभी प्राणियों के प्राणों का आधार है । यह नई जल नीति की प्रस्तावना होना चाहिए, तभी आम लोग पानी को अपना मानकर उसके काम में जुटेंगे, पानी सहेजेंगे, संभालकर खर्च करेेंगे, संग्रहण के तरीके निकालेगे ।
एक नीतिगत गडबडी पानी के बंटवारे में भी है । दिल्ली जैसे शहर में बडे और अमीर लोगों को तो पानी चार रूपए में एक हजार लीटर मिलता है लेकिन गरीब आदमी जो टैंकर से पानी खरीदता है, उसे एक बाल्टी पानी २० रुपए में मिलती है । यह नीति का विरोधाभास है, जिससे सामाजिक भेदभाव भी बढता है। इससे पानी के झगडे-विवाद की जमीन तैयार होती है । इसे ठीक करना चाहिए । वाटर हार्वेस्टिंग का काम करने वाले लोगों को आर्थिक मदद दी जाए, उन्हें पैसे से प्रोत्साहन दिया जाए तो वे ज्यादा समर्पण से काम करेंगे । इसी तरह पानी लूटने या बर्बाद करने वालों को सख्त दंड देने की व्यवस्था भी की जाना चाहिए ।
सरकार विकेंद्रित जल नीति को मान्यता दे दे तो उससे भी काफी फायदा होगा । हर नदी के जल संग्रहण क्षेत्र में सरकारी कर्मचारियों और जल प्रबंधन से जुडे लोगों के लिए अनिवार्य किया जाना चाहिए कि वे समुदायों के साथ मिलकर पानी का काम करें । पानी के काम से जुडे सरकारी लोग जब इसे नैतिक व कानूनी जिम्मेदारी समझने लगेंगे तब वे अपने इलाके को पानीदार बनाने का प्रयास करेंगे ।
सरकारी नीतियों की अन्य खामियों की ओर भी मैं ध्यान दिलाना चाहूंगा । जब रूफटॉप हार्वेस्टिंग की नीति बनी उस समय पाइप बनाने वाली कंपनियों ने किसी तरह से इसमें प्लास्टिक के पाइप के इस्तेमाल को मंजूर करवा लिया, जिससे वाटर हार्वेस्टिंग की इस नीति को लागू करने में मुश्किल आयी । इसी तरह से राजस्थान में हम लोगों ने अपने प्रयास से पिछले २३ साल में एक नदी को पुनर्जीवित किया था । जब नदी पुनर्जीवित हो गई तो राज्य सरकार ने उस नदी के किनारे शराब की २३ फैक्टरियों के लाइसेंस दे दिए । इम लोगों ने विरोध किया कि पानी की अधिक खपत वाला कोई उद्योग-व्यवसाय नदी किनारे नहीं लगना चाहिए तो २००२ में सरकार ने इनके लाइसेंस रद्द कर दिए ।
अब नई सरकार ने फिर ये लाइसेंस जारी कर दिए हैं । इसका मतलब है कि सरकार खुद तो कोई काम नहीं कर रही है, ऊपर से लोगों द्वारा किए गए काम को भी बिगाडने में लगी है, इसलिए मुझे लगता है कि नीतियों को मानवीय स्वरूप दिया जाए और प्रकृत्ति व इंसान के अनुकूल नीतियां बनाई जाएं । जरूरत इस बात की भी है कि पानी के इस्तेमाल को लेकर भी स्पष्ट कानून बनाया जाना चाहिए । जहां कम पानी है वहां अधिक पानी की जरूरत वाली फसलें लगाने पर रोक लगाई जाए। कम पानी वाले इलाके में पानी के अधिक इस्तेमाल वाले उद्योगों पर भी रोक लगे। जहां पानी की नई व्यवस्था बन रही हो, वहां भी इस तरह की फसलों और उद्योगों पर रोक लगाना चाहिए । इस तरह के हम इन इलाकों के सीमित पानी का अधिकतम इस्तेमाल कर पाएंगे ।
***

कोई टिप्पणी नहीं: