मंगलवार, 26 जून 2007

संपादकीय

बड़े बांधों से बढ़ता पर्यावरणीय असंतुलन
नवीनतम वैज्ञानिक अध्ययन बताते है कि भारत में बड़े बांध देश के ग्लोबल वार्मिंग कुल असर के पांचवे हिस्से के लिए जिम्मेदार हैं। ये आकलन यह भी उजागर करते हैं कि दूसरे देशों के मुकाबले भारत में बांध ग्लोबल वार्मिंग में सबसे ज्यादा योगदान करते हैं । ब्राजील के नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च (आईएनपीई) के इवान लीमा एवं उनके सहयोगियों द्वारा किये गये आकलन से यह जानकारी मिली है । इस अध्ययन के अनुसार भारत के बड़े बांधों से कुल मीथेन उत्सर्जन ३.३५ करोड़ टन प्रति वर्ष है, जिसमें जलाशयों से (११ लाख टन), स्पिलवे से (१.३२ करोड़ टन) एवं पनबिजली परियोजनाआें के टरबाईन से (१.९२ करोड़ टन) उत्सर्जन शामिल है । भारत के जलाशयों से कुल मीथेन का उत्पादन ४.५८ करोड़ टन है। अध्ययन का यह भी आकलन है कि विश्व के समस्त जलाशयों से मीथेन का उत्सर्जन १२ करोड़ टन प्रति वर्ष तक हो सकता है । इसका मतलब हुआ कि समस्त मानवीय गतिविधियों से मीथेन के कुल वैश्विक उत्सर्जन में अकेले बड़े बांधों का योगदान २४ प्रतिशत है । इस अध्ययन में बड़े बांधों से उत्सर्जित होने वाले नाइट्रस आक्साइड एवं कार्बन डाई ऑक्साइड शामिल नहीं है । यदि इन सबको शामिल किया जाता है तो बड़े जलाशयों से होने वाले ग्लोबल वार्मिंग का असर और भी ज्यादा हो जाएगा । भारत के बांधों से मीथेन का उत्सर्जन पूरे विश्व के बड़े बांधों के मीथेन उत्सर्जन का करीब २७.८६ प्रतिशत अनुमानित है , जो कि विश्व के किसी भी देश के हिस्से से ज्यादा है । ब्राजील के जलाशय मीथेन उत्सर्जन के मामले में दूसरे नंबर पर आते हैं, जो २.१८ करोड़ टन प्रतिवर्ष मीथेन उत्सर्जन करते हैं एवं वह पूरे विश्व के मीथेन उत्सर्जन का १८.१३ प्रतिशत है । अध्ययन से इस विश्वास से भी लोगों की आंखें खुलेगी कि बड़ी पनबिजली परियोजनाआें से पैदा होने वाली बिजली स्वच्छ होती है । भारत की पनबिजली परियोजनाएं पहले से ही समुदायों एवं पर्यावरण पर गंभीर सामाजिक एवं पर्यावरणीय असर के कारण जानी जाती हैं । इस वास्तविकता के बाद कि ये परियोजनाएं बड़ी मात्रा में ग्लोबल वार्मिंग गैस का उत्सर्जन भी करती हैं , परियोजनाआें का इस दृष्टि से भी अध्ययन होगा ।

प्रसंगवश

भारत अखबारों का दूसरा बड़ा बाजार
न्यूज चैनलों और मोबाईल पर खबरों की भरमार के बावजूद भारत में अखबारों की प्रसार संख्या २००६ में करीब १३ फीसदी बढ़ी है । खासकर जब पूरी दुनिया में अखबारों की प्रसार संख्या २.३ फीसदी बढ़ी । इसमें भी चीन और भारत का बड़ा योगदान है। अखबारों के बाजार में चीन के बाद भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बाजार बन गया है ।
यह रोचक तथ्य वर्ल्ड ऐसासिएशन ऑफ न्यूजपेपर्स (वान) के एक अध्ययन में उभरकर आया है । अखबारों की प्रसार संख्या एशिया , यूरोप , अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में बढ़ी है । केवल उत्तरी अमेरिका में अखबारों की प्रसार संख्या घटी है ।खरीदे जाने वाले अखबारों में विज्ञापन से आय भी पिछले साल ३.७७ फीसदी बढ़ी ह्ै । चीन , जापान और भारत को जोड़ दिया जाए तो दुनिया के सौ सबसे ज्यादा बिकने वाले अखबारों में ६० इन तीनों देशों में हैं । पांच बड़े बाजारों में चीन, भारत,जापान, अमेरिका, जर्मनी है । अखबार खरीदने के मामले में जापानी अब भी दुनिया में सबसे आगे है।
* २९ मई १८२६ को कलकत्ता से
पं. युगल किशोर शुक्ल के सम्पादन में
साप्तहिक उदंत मार्तण्ड
का प्रकाशन हुआ था ।
इसलिए २९ मई के दिन को
देश में हिन्दी पत्रकारिता दिवस के रूप में
मनाया जाता है ।
मुफ्त में बंटने वाले अखबारों को खरीदे जाने वाले अखबारों की संख्या में जोड़ दिया जाए तो अंतराष्ट्रीय प्रसार संख्या में ४.६१ फीसदी का इजाफा हुआ है । मुफ्त बंटने वाले दैनिकों की प्रसार संख्या दुनियाभर में केवल ८ फीसदी है। वान की रिपोर्ट के बारे में सीईओ तिमोेती बाल्डिंग का कहना है कि नतीजे उम्मीद से बेहतर आए हैं बल्कि इंटरनेट के विस्तार का ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है । ज्यादातर पाठक आज भी सबसे पहले अखबार पढ़ना पसंद करते हैं । बाल्डिंग का कहना है कि डिजिटल वितरण की सुविधा का लाभ अखबार बखूबी ले रहे हैं ।

१ सामयिक

१ सामयिक
पानी और सरकारी नीतियां
राजेन्द्र सिंह
पानी का सवाल अधिकार और जवाबदेही (राइट एंड रिस्पांसिबिलिटी) का है । सरकार ने पानी पर अधिकार तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंप दिया है और जिम्मेदारी आम जनता पर थोपना चाहती है। इस वजह से जनता ने पानी को अपना मानना छोड दिया है, इसलिए वे इसे छीनने या चुराने की कोशिश तो करते हैं लेकिन बचाने या संग्रहण करने की प्रवृत्ति छोडते जा रहे हैं ।
ऐसे में जरूरी है कि सरकार अधिकार और जिम्मेदारी दोनों जनता को हस्तांतरित करें और साथ-साथ कुछ संसाधन भी उसे दे ताकि वह पानी को बचाने और संग्रहण का काम कर सके । इस तरह से समुदायों द्वारा संचालित होने वाली एक विकेंद्रित जल व्यवस्था प्रणाली विकसित होगी । यह विकेंद्रीकरण ग्रामीण इलाकों के लिए अलग और शहरी इलाकों के लिए अलग किस्म का ह्ोगा ।
भारत में दरअसल जल की दो तरह की समस्या है । एक अधिकता की है और दूसरी कमी की। दोनों से निपटने के लिए एक जैसी लेकिन समग्र नीति बनाना होगी, यह काम न तो अकेले राज्य कर सकता है और न समाज । दोनों एक साथ मिलकर काम करें तो इसका समाधान आसानी से निकाला जा सकता है । इसके लिए पहली जरूरत समाज को पानी के काम की जिम्मेदारी सौंपने की है । जहां पानी दौडता है, समाज उसे वहां चलना सिखाएगा, जहां पानी चलता है, वहां उसे रेंगना सिखाएगा और जहां पानी रेंगता है या रेंगने लगेगा, वहां उसे पकडकर धरती के पेट में पहुंचाना होगा । जहां आसमान से पानी गिरेगा, उसे वहीं पकडकर धरती के पेट में पहुंचा दिया जाएगा । धरती का पेट भरा रहेगा तो किसी को पानी की कभी किल्लत नहीं होगी । जब भी पानी की जरूरत होगी, गरीब आदमी भी छोटी-सी कुइंर्या खोदकर अपनी जरूरत का पानी निकाल लेगा ।
यह काम जनोन्मुखी विकेंद्रित जल प्रबंधन के जरिये हो सकता है पर शुरूआत सरकार को करना होगी । उसे पानी का प्रबंधन छोड चुकी जनता को यह काम सौंपना होगा । भारत में हर साल चार हजार बीसीएम पानी गिरता है, जिसमें से हम औसतन छह सौ बीसीएम पानी का इस्तेमाल कर पाते हैं, बाकी बर्बाद हो जाता है । इसे प्रतीक रूप में ऐसे कहंें कि आसमान से चार हजार बूंदे गिरती हैं, जिनमें से हम महज छह सौ बूंदों का इस्तेमाल करते हैं । इसका मतलब है कि अपने देश में पानी की कमी नहीं है । हमारी जरूरत से काफी ज्यादा पानी प्रकृत्ति हमें देती है । हम छह सौ बीसीएम इस्तेमाल करते हैं और इसका करीब छह गुना बर्बाद कर देते हैं । अगर उसका कुछ और हिस्सा उपयोग करने लगें तो भारत की जन जरूरतें पूरी करने के लायक पर्याप्त् पानी हमारे पास उपलब्ध होगा ।
इसकी शुरूआत सरकारी नीतियों में बदलाव से करना होगी । भारत सरकार ने २००२ में राष्ट्रीय जल नीति बनाई थी । इस जल नीति की धारा १३ के अनुसार पानी का अधिकार या तो निजी कंपनियों के हाथ में दिया गया है या निजी व्यक्तियों के हाथ में । साझा तौर पर पानी का जिम्मा किसी को नहीं दिया गया है । इस वजह से लोगों ने पानी के कामसे अपनी जिम्मेदारी समाप्त् समझ ली और पानी चुराने या छीनने के काम में लग गए । इस नीति में बदलाव करके लोगों को यह संदेश दिया जाना चाहिए कि पानी प्रकृत्ति प्रदत्त संसाधन है, जो सभी प्राणियों के प्राणों का आधार है । यह नई जल नीति की प्रस्तावना होना चाहिए, तभी आम लोग पानी को अपना मानकर उसके काम में जुटेंगे, पानी सहेजेंगे, संभालकर खर्च करेेंगे, संग्रहण के तरीके निकालेगे ।
एक नीतिगत गडबडी पानी के बंटवारे में भी है । दिल्ली जैसे शहर में बडे और अमीर लोगों को तो पानी चार रूपए में एक हजार लीटर मिलता है लेकिन गरीब आदमी जो टैंकर से पानी खरीदता है, उसे एक बाल्टी पानी २० रुपए में मिलती है । यह नीति का विरोधाभास है, जिससे सामाजिक भेदभाव भी बढता है। इससे पानी के झगडे-विवाद की जमीन तैयार होती है । इसे ठीक करना चाहिए । वाटर हार्वेस्टिंग का काम करने वाले लोगों को आर्थिक मदद दी जाए, उन्हें पैसे से प्रोत्साहन दिया जाए तो वे ज्यादा समर्पण से काम करेंगे । इसी तरह पानी लूटने या बर्बाद करने वालों को सख्त दंड देने की व्यवस्था भी की जाना चाहिए ।
सरकार विकेंद्रित जल नीति को मान्यता दे दे तो उससे भी काफी फायदा होगा । हर नदी के जल संग्रहण क्षेत्र में सरकारी कर्मचारियों और जल प्रबंधन से जुडे लोगों के लिए अनिवार्य किया जाना चाहिए कि वे समुदायों के साथ मिलकर पानी का काम करें । पानी के काम से जुडे सरकारी लोग जब इसे नैतिक व कानूनी जिम्मेदारी समझने लगेंगे तब वे अपने इलाके को पानीदार बनाने का प्रयास करेंगे ।
सरकारी नीतियों की अन्य खामियों की ओर भी मैं ध्यान दिलाना चाहूंगा । जब रूफटॉप हार्वेस्टिंग की नीति बनी उस समय पाइप बनाने वाली कंपनियों ने किसी तरह से इसमें प्लास्टिक के पाइप के इस्तेमाल को मंजूर करवा लिया, जिससे वाटर हार्वेस्टिंग की इस नीति को लागू करने में मुश्किल आयी । इसी तरह से राजस्थान में हम लोगों ने अपने प्रयास से पिछले २३ साल में एक नदी को पुनर्जीवित किया था । जब नदी पुनर्जीवित हो गई तो राज्य सरकार ने उस नदी के किनारे शराब की २३ फैक्टरियों के लाइसेंस दे दिए । इम लोगों ने विरोध किया कि पानी की अधिक खपत वाला कोई उद्योग-व्यवसाय नदी किनारे नहीं लगना चाहिए तो २००२ में सरकार ने इनके लाइसेंस रद्द कर दिए ।
अब नई सरकार ने फिर ये लाइसेंस जारी कर दिए हैं । इसका मतलब है कि सरकार खुद तो कोई काम नहीं कर रही है, ऊपर से लोगों द्वारा किए गए काम को भी बिगाडने में लगी है, इसलिए मुझे लगता है कि नीतियों को मानवीय स्वरूप दिया जाए और प्रकृत्ति व इंसान के अनुकूल नीतियां बनाई जाएं । जरूरत इस बात की भी है कि पानी के इस्तेमाल को लेकर भी स्पष्ट कानून बनाया जाना चाहिए । जहां कम पानी है वहां अधिक पानी की जरूरत वाली फसलें लगाने पर रोक लगाई जाए। कम पानी वाले इलाके में पानी के अधिक इस्तेमाल वाले उद्योगों पर भी रोक लगे। जहां पानी की नई व्यवस्था बन रही हो, वहां भी इस तरह की फसलों और उद्योगों पर रोक लगाना चाहिए । इस तरह के हम इन इलाकों के सीमित पानी का अधिकतम इस्तेमाल कर पाएंगे ।
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२ विशेष लेख

२ विशेष लेख
गर्म हवायें और बदलती जलवायु
डॉ. लक्ष्मीकांत दाधीच
जलवायु प्रणाली एक जटिल विषय है । इसका नियंत्रण मात्र वायुमंडल में होने वाली घटनाआें से नहंी होता । महासागरों , हिममंडल, भूमंडल और जीवमंडल में होने वाली हलचल भी इसे नियंत्रित करती है ।सौरमंडल में सौर विकिरण से होेने वाली गरमाहट की मात्रा भी अंशत: धरती के स्वरूप पर निर्भर करती है । सागर व भूमि तल अलग- अलग गति से गरमाते हैं और हरी भरी धरती का सौर ऊर्जा को अवशोषित व परावर्तित करने का ढंग भी रेगिस्तानी या बर्फीली भूमि से अलग होता है । इस प्रकार सतहों की विविधता , सतहों पर ऊर्जा वितरण की एक जटिल बानगी प्रस्तुत करती है ।
विज्ञान ने आज यह स्पष्ट कर दिया है कि गहरे सागर तल पर बहने वाली धराएं दूरगामी जलवायु परिवर्तनों को लाती है । अधिकांश महासागरों पर सतह का पानी गर्म रहता है और इसीलिए अपने नीचे वाले पानी से हल्का होता है । इससे सतह का पानी गहरे सागर तल की ओर बढने को प्रवृत्त नहंी होता है परंतु उत्तर पश्चिम अटलांटिक सागर मे वाष्पीकरण और सर्दियो की ठंडक के मिश्रित दबाव मे सतह का पानी नीचे बैठने के लिए समुचित सघनता प्राप्त् कर लेता है । इसी मूल प्रक्रिया के कारण् उष्मा और सतह के पानी में घुला कार्बन सागर की गइराईयों में हजारों वर्षोंा तक पडा रहकर सागरीय धाराआें के परिवर्तन का कारण बना है । अतिरिक्त कार्बन का यह भंडारण या इसकी विमुक्ति मानव जनित जलवायु परिवर्तन को स्पष्ट करती है। जलवायु परिवर्तन के अंतर शासकीय पैनल (आईपीसीसी) के अनुसार, पूर्वानुमान क्षमता बढाने के लिए हमें जलवायु संबंधी प्रक्रियाआें के अंतर्गत बादलों, महासागरों व कार्बन चक्र से जुडे वैज्ञानिक विष्लेषणों पर अंतर्राष्ट्रीय विनिमय को सुविधाजनक बनाना ही होगा ।
आज धरती के गरमाने को समस्या न मानकर इसे जलवायु परिवर्तन का लक्षण माना जाता है । यह हमारे ध्यान दिए जाने वाला एक महत्वपूर्ण बिन्दु है जिसे लक्षण के रूप में बीमारी समझलेना एक भारी भूल साबित हो सकती है । मूल समस्या यह है कि मानवीय क्रिया कलाप वायुमंडल की ऊर्जा को सोखने व उत्सर्जित करने के तरीके को बदल रहा है । इस परिवर्तन के कुछ संभावित परिणाम जैसे समुद्रतल का ऊपर उठना इस बात पर सीधे तौर पर निर्भर करेगा कि इससे प्रति सतह का तापमान क्या क्रिया करता है । लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रभावों में से अनेक, जैसे वर्षण और मिट्टी की नमी की मात्रा में बदलाव, किसी पता लग सकने वाली तापमान वृद्धि से काफी पहले ही आ धमेंकगें ।
आज की प्रावस्था में यदि कोई वैज्ञानिक यह तर्क प्रस्तुत करता है कि तापमान वृद्धि , मॉडलों के पूर्वानुमानों जितनी बडी या तेज नहीं होगी तो उसका यह तात्पर्य कदापि नहीं हो सकता कि समस्या की अनदेखी की जाये । सवाल सिर्फ यह है कि यह विशेष लक्षण यानि धरती का औसत तापमान अविश्वसनीय हो सकते हैं । हम जानते हैं कि वायु के विकरणी गुण बदल रहे हैं । साथ ही हमें यह भी पता है कि इस बदलाव के जलवायवी प्रभावी काफी गंभीर होंगें । सभी जलवायु मॉडलों के अनुसार सबसे महत्वपूर्ण बदलाव होगा धरती का गरमाना, किन्तु अगर यह बात नहंी भी है तो दूसरे इतने ही गंभीर बदलाव अवश्यंभावी है । हम जलवायु प्रणाली के जलवायु के ऊर्जा स्त्रोत में हेरफेर कर रहे हैं । इस प्रघात को आत्मसात करने के लिए कुछ को तो बदलना ही होगा ।
मानव जनित जलवायु परिवर्तन निश्चित ही मानव की कृषि को प्रभावित कर मानव जीवन को संकट में डाल सकता है । वर्षण घट सकता है, मिट्टी में नमी की मात्रा कम हो सकती है तथा अतिरिक्त गर्मी के जोर से उष्ण कटिबंधी क्षेत्रों की फसलें और विशेषकर पशुधन को नुकसान हो सकता है । कुछ तटीय क्षेत्रों में भूजल और ज्यादा खारा हो सकता है । बाढ, तूफान और उष्ण कटिबंधी चक्रवातों से होने वाली हानि की मात्रा बढ सकती है तथ बदलते तरंग पेटर्न कुछ क्षेत्रों में और ज्यादा महातरंगे तथा ज्वारीय तरंगे पैदा कर सकते हैं ।
जलवायु परिवर्तन के पूर्वानुमानित प्रभावों से विश्व में भूख और गरीबी के पनपने का अनुमान है । नए और अस्थिर जलवायुक्रमोंका आथ्र्ािक स्थिति पर भारी दुष्प्रभाव हो सकता है, विशेषतौर से प्राकृतिक संसाधनों के क्षेत्र में । जो लोग कृषि, मछलीपालन या वानिकी पर निर्भर हैं उनकी आजीविका कम वर्षा, विकृत मिट्टी और क्षीण हुए जंगलों व मछली क्षेत्रों के कारण खतरे में पड सकती है । यदि तापमान बढता है और ओजोन की घटती परत पराबैंगनी किरणों को अधिक मात्रा में प्रवेश होने देती है तो विषाक्त जीवाणु पनपने लगेंगें और शरीर की रोगनिरोधक क्षमता घटने लगेगी । स्वास्थ्य के बढते खतरे कुपोषित बच्चें, बीमार बूढों और बेघरों को अपना निशाना बनायेंगें ।
यह भी कहा जाता है कि जलवायु परिवर्तन से विकासशील देशों पर सर्वाधिक प्रभाव पडने से संघर्ष और बढेगा। इन कुप्रभावों से महत्वपूर्ण स्त्रोत जैसे भोजन और पानी के सापेक्ष वितरण में बदलाव आ सकता है । जिन क्षेत्रों में जनसंख्या वृद्धिके कारण इन स्त्रोतों की पहले ही तंगी है , जलवायु परिवर्तन के कारण भूखमरी फैलने और विस्थापितों की समस्या पैदा होने का खतरा है । सामर्थ्यवान देशों की तरह गरीब देशों के पास कम प्रभावित देशों से इन स्त्रोतों को खरीदने की सामर्थ्य नहीं होगी , और न ही वे खाद़्य पदार्थोंा व अन्य आवश्यक स्त्रोतों में फिर से आत्मनिर्भरता पैदा कर पायेंगें । यदि जलवायु परिवर्तन के परिणाम भयंकर हुए तो समर्थ देश, कमजोर देशों के मुकाबले अपने स्त्रोतों व सीमाआें की बेहतर सुरक्षा कर सकेंगें । यदि हमारे प्रयासों के बावजूद भी जलवायु परिवर्तन के प्रभाव महसूस होते हैं तो हमें पर्यावरण को हुई क्षति के परिणाम भुगतने ही पडेंगें । विश्व जलवायु परिवर्तन का आर्थिक पहलू मुख्यतया गरमाती धरती के साथ मानव द्वारा किये जाने वाले त्याग के बीच संतुलन में निहित होगा ।
आगामी कुछ दशक निर्णायक ह्ै जब प्रत्येक व्यक्ति को यह सोचना पडेगा कि पर्यावरण संरक्षण प्रकृति संरक्षण का प्रश्न अंतर्राष्ट्रीय मंच का प्रश्न है और इसका एक ही उत्तर है भावी पीढी के हितों पर कुठाराघात किए बिना पर्यावरण के सभी घटकों का ईमानदारी से संरक्षण जिसमें नियोजित दोहन तो हो पर शोषण नहीं । अत: जलवायु परिवर्तन के क्रम को बदलने के लिए तत्काल कदम उठाना आज समय की आवश्यकता है ।
आज सारी दुनिया में राजनेताआें, समाजसेवियों, वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के बीच मुख्य चर्चा है कि जलवायु परिवर्तन जैसे महत्वपूर्ण पर्यावरणीय संकट का विकल्प कैसे खोजा जाए ।
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३ प्रवासी पक्षी

३ प्रवासी पक्षी
अब के बरस भी न आए सारस
डॉ. चन्द्रशीला गुप्त
प्रावासी पक्षियों का ज़िक्र आते ही भरतपुर, राजस्थान के केवलादेव अभयारण्य के सुहावने साइबेरियाई सारस याद आते हैं लेकिन अब कुछ सुहावना नहीं हैं ।
भारत ही नहीं वरन् दुनिया भर के पक्षी प्रेमी यह सुनकर मायूस होंगे । सर्दियों में भ्रतपुर के इस अभयारण्य में इन विदेशी मेहमानों का बसेरा शायद अब हमेशा के लिए खत्म हो गया है । दरअसल गत ५-६ वर्षो से ये सारस केवलादेव नहीं आ हैंं । अत: अब इनके आने की उम्मीद करना व्यर्थ है । वर्ल्ड वाइड फाउण्डेशन फॉर नेचर का भी यही कहना है कि इस पक्षी ने भारत से मुंह मोड लिया है ।
सन् १९८१ में इस अभयारण्य को राष्ट्रीय उद्यान घोषित कर इसे केवलादेव उद्यान नाम दिया गया था । वैसे इसे घाना पक्षी विहार भी कहते हैं । कुल २८.७३ वर्ग कि.मी. में फैले इस उद्यान में एक समय देशी पक्षियों की ३६६ प्रजातियां पाई जाती थीं जिन्हें निहारने हर साल लगभग एक लाख से ज़्यादा पर्यटक आते थे ।
शिकारगाह :- राजाआें के ज़माने में भरतपुर एक बेहतरीन शिकारगाह हुआ करता था । महाराजा वायसराय जैसी बडी-बडी हस्तियों को पक्षियों के शिकार के लिये आमंत्रित करते थे ।
आज यह अभयारण्य मनुष्यों से सुरक्षित है, कोई भी यहां वन्य जीवों के सिर्फ दर्शन कर सकता है । इनमें चीतल, नीलगाय, उदबिलाव और सारस, बतख, लकदक व मानस राजहंस की ३ प्रजातियां समेत प्रवासी विदेशी पक्षियों की करीबन १०२ प्रजातियां शामिल हैं ।
साइबेरियन सारस एशिया का सबसे प्रसिद्ध व दुर्लभ पक्षी है । काले किनारे वाले धवल पंख और लाल गर्दन निसंदेह इसे समस्त भारतीय सारसों में खूबसूरत बना देते हैं । यह खुशमिज़ाज पक्षी जब प्रसन्न होता है तो अपने पंख फैलाकर गर्दन ऊपर कर सीना आगे करते हुए नृत्य करता है । आसमान की ओर चोंच उठाए यह ज़ोर-ज़ोर से आवाज लगाता है - टर्र-टर्र । यह प्रात: अभिवादन है । जब भी पास की झील से कोई मित्र उनके पास आता है, वे खुशी से लम्बी किलकारी भरते व नाचते हैं। लडते वक्त उनकी आवाज़ अलग होती है ।
ये सारस क्रिसमस से पहले भरतपुर आते हैं और जब किसान फागुन में फाग गा रहे होते हैं तब ये भारत भर में अपनी एकमात्र पसंदीदा जगह से वापस चले जाते हैं । उनका यह मौसमी आना-जाना हज़ारों साल से चल रहा है ।
इतिहास - भारतीय संग्रहालय कोलकाता में रखी सत्रहवीं शताब्दी की एक पेंटिग में साइबेरियन सारस को दर्शाया गया है । यह पेंटिंग मुगल-शासक जहांगीर के दरबारी कलाकार उस्ताद मंसूर की है । भारतीय साहित्य में इसे सफेद सारस कहा गया है । जर्मन प्रकृतिविद् पीटर पलास ने अठारवीं सदी में इसका वैज्ञानिक विवरण प्रस्तुत कर वैज्ञानिक नाम ग्रूस ल्यूकोजिरेनस दिया ।
प्रख्यात राजनीतिज्ञ ओ, ह्यूम, जिन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की थी, के लेखन में भी इस सारस का जिक्र आता है । दरअसल वे प्रकृतिविद भी थे । उ.प्र. के इटावा में ज़िला मजिस्ट्रेट के पद पर पदस्थ थे तब सर्दियों में आने वाले इस मेहमान को उन्होंने देखा था ।
इस लम्बे, छरहरे सारस की संख्या कभी ज़्यादा नहीं रही, ओ. ह्यूम के समय भी नहीं । उन्होंने १८६७ में आइबिस नामक एक ब्रिटिश जनरल में इसका विस्तृत विवरण दिया था । ह्यूम के अनुसार यह अन्य भारतीय सारसों से भिन्न है । यह प्राकृतिक जलीय वनस्पति खाता है, खेतों या मैदानों में चरने नहीं जाता है। इसका मुख्य भोजन नदी या तालाब किनारे की जमीन में पैदा होने वाले सायपैरस नामक पौधे का कन्द होता है जिसका छिलका कडा होता है । यह पौष्टिक कन्द है, इसे जंगली सूअर से लेकर अन्य जंगली जानवर भी खाते हैं ।
भरतपुर की झीलों में ये कन्द मिट्टी में दबे रहते हैं व सारस ज़्यादातर समय इनको निकालने में गुजारते हैं । ये जब कन्द खोदते है तब इनके सिर, गर्दन व पैर पूरी तरह डूबे होते हैं । झील में मात्र इनकी सफेद पीठ ही पानी में तैरती नज़र आती है। यह दृश्य बेहद मनोहारी होता है ।
यहां आने वाले साइबेरियाई सारस सहित सभी विदेशी मेहमान शुद्ध शाकाहारी होते हैं जबकि देशी पक्षी मांसाहारी होते हैं। जलीय वनस्पतियां, मछलियां, कीट, मोलस्क, प्लवक का भोजन और साथ में झील के चारों ओर फैली झाडियां पक्षियों के बसने के लिए इस उद्यान को आदर्श बनाते हैं ।
सारस ज़्यादातर ५-६ के झुण्ड में रहते हैं, कुछ जोडे में रहते हैं । हरेक जोडा अपने इलाके निर्धारित कर लेता है व किसी भी घुसपैठिए को रोकने के लिये ये एक स्वर में चिल्लाकर चेतावनी देते हैं । नर पहले शुरू करता है व अपना सिर व गर्दन तेज़ी से झटके से साथ आगे पीछे ले जाता है । जैसे सफेद लिली अचानक खिलती है, उसी तरह यह अपने पंख फैला देता है । इसी बीच मादा भी साथ हो लेती है । दोनों अपना सिर हिलाकर ऊंचे व नीचे स्वर में आवाज़ देते हैं । भरतपुर में पौ फटने के समय ये आवाज़ें सुनी जा सकती है ।
सारस की अपने साथी के प्रति वफादारी अदभुत है । साथी के बिछुड जाने पर ये आजीवन अकेले रहते हैं।अनेक जोडी के साथ एक तीसरा प्राणी-उनका ४-६ माह का शावक - भी हो सकता है, जिसका जिसका जन्म टूण्ड्रा में हुआ था, जहां उसके लिए काई-लाइकेन आदि पर्याप्त् भोजन था । वहीं इसे पंख का पहला जोडा मिलता है जो इसे अपने माता-पिता के साथ उडाकर यहां लाया है ।शावक भोजन के लिए अपने माता-पिता पर निर्भर करते हैं।
मेहमानों ने मोडा मुंह - साइबेरियन सारसों के संरक्षण के लिए स्थापित मास्को स्थित अंर्तराष्ट्रीय संस्था साइबेरियन क्रेन फ्लाइवे कोआर्डिनेशन की रिपोर्ट के अनुसार, घाना में १९६० की सर्दियों में ६० सारस देखे गए थे । प्रसिद्ध विशेषज्ञ वाल्किनशा ने अनुसार १९६४-६५ में इनकी संख्या २०० थी और १९६८ में १०० । उद्यान के उपमुख्य वन्य जीव प्रतिपालक के अनुसार १९९१ में २३ सारस अपने शीतकालीन प्रयास पर यहां आए थे । सन २००२ की सर्दियों में केवल एक साइबेरियन सारस का जोडा यहां आया था और उसके बाद से ही इस पक्षी ने केवलादेव की ओर रूख नहीं किया है ।
साइबेरियन सारस के संरक्षण विशेषज्ञों का कहना है कि घना में निरंतर हो रही पानी की कमी इन सारसों की यहां से विदाई की प्रमुख वजह है । इस अभयारण्य का एक बडा क्षेत्र कभी एक विशाल झील के रूप में था जिसे सडकों, पुलों, बांधो आदि द्वारा अनेक छोटी-बडी उथली झीलों में बांट दिया गया है जिनमें पानी का आवागमन चेकगेट द्वारा नियंत्रित किया जाता है । राजस्थान के कारोली ज़िले में स्थित पांचना बांध का पानी अजान बांध के ज़रिए घाना को दिया जाता रहा है । लेकिन पिछले कुछ वर्षो से राजनैतिक कारणों से पांचना बांध से घाना को पानी मिलना बंद हो गया है ।
पानी की कमी से मात्र साइबेरियाई सारस ने ही मुंह नहीं मोडा है बल्कि पूरा पक्षी विहार बर्बादी की कगार पर पहुंच गया है । इन सारसों के यहां न पहुंचने की एक वजह इनका शिकार भी है । अंतर्राष्ट्रीय क्रेन फाउण्डेशन सहित कई संस्थाआें का मानना है कि साइबेरियाई सारस अपनी जन्मभूमि साइबेरिया और शीतकालीन आवास घाना में तो सुरक्षित रहते हैं लेकिन रास्ते में इनके निरंतर शिकार ने इन्हें विलुिप्त् की कगार पर ला खडा किया है ।
इनके शीतकालीन प्रवास के ३ रास्ते हैं, पश्चिमी, मध्य और उत्तरी । सारसों की एक प्रजाति पश्चिमी मार्ग से सर्दियां बिताने ईरान जाती है जबकि मध्य मार्ग से दूसरी प्रजाति भारत आती हैं । उत्तर पूर्व साइबेरिया की प्रजाति उत्तरी मार्ग से चीन की प्योंग झील के किनारे सर्दियां बिताती हैं । भारतीय मेहमान रूस, कज़ाकिस्तान, उजबेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में सुरक्षित नहीं हैं और यहां इनका जमकर शिकार हुआ है। सन १९९८ में एक साईबेरियाई सारस के जोडे व उसके बच्च्े पर ट्रांसमीटर बांधकर परीक्षण करने से भी इस बात की पुष्टि हुई हैं।
अंर्तराष्ट्रीय क्रेन फाउण्डेशन का मानना है कि मध्य मार्ग से आने वाली प्रजाति का पूरी तरह विनाश हो चुका है, हमारे देश में सारसों का आना बंद होने के पीछे यही वजह मानी जा रही है । उत्तर पूर्वी साइबेरियाई सारस शिकारियों से अभी बचे हुए हैं, लिहाजा चीन के प्योंगे झील के किनारे आज भी इन्हें सर्दियां बिताते देखा जा सकता है ।
ऐसा नहीं है कि साइबेरियाई सारस को बचाने के प्रयास नहीं हुए हैं । तीस वर्ष पूर्व स्थापित इन्टरनेशनल क्रेन फाउण्डेशन से लेकर अब तक कई संस्थाए इस काम में लगी हैं । वहीं संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रयासों से ९० के दशक के आरंभ में ११ देशों ने इस पक्षी को बचाने के लिए एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए थे ।
रूसी प्राणी वैज्ञानिकों ने चीन से अण्डे इकट्ठे कर इन्टरनेशनल क्रेन फाउण्डेशन को भेजे थे व इनसे चूज़े निकालने में भी सफलता हासिल की । चीन व रूस में इनके आवास की सुरक्षा, जनन क्षेत्र की पहचान, प्रवास के रास्तों की पहचान व शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध व इसके प्रति जागरूकता आदि की अनेक योजनाएं बनाई गई हैं। इसी प्रकार भारत में भी अण्डे प्राप्त् कर चूज़े पालने की योजना बनाई जाए तो चूज़ों को लद्दाख की दलदली झील में स्थापित किया जा सकता है। यहां एक अन्य दुर्लभ सारस चा-थुंग सदियों से प्रजनन कर रहा है; साईबेरियन सारस के लिए भी यह उपयुक्त आवास होगा ।
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४ वातावरण

४ वातावरण
भारत ग्लोबल वॉर्मिंग का सामना कैसे करे ?
सुश्री रेशमा भारती
हाल के समय में हुए कई वैज्ञानिक अध्ययन-अनुसंधानों और विश्व के कई भागों में प्रकट जलवायु परिवर्तन की विकट स्थितियों ने ग्लोबल वॉर्मिंग के संकट की गंभीरता को प्रकट किया है और इसका सामना करने के लिए बिना विलंब के ठोस व अहम कदम उठाने की जरूरत पर बल दिया है ।
विश्व भर में इस संकट का सामना करने के लिए ग्रीन हाऊस गैसोंके बढते उत्सर्जन को कम करने की बुनियादी जरूरत को महसूस किया जा रहा है । औद्योगीकरण, मशीनीकरण वाली दुनिया में इसे एक गंभीर चुनौती माना गया है ।
तेजी से विकसित होती भारत की अर्थव्यवस्था भी काफी ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन की स्थिति पैदा कर रही है । कार्बन डायॉक्साइड के उत्सर्जन में भारत विश्व के चार-पाँच प्रमुख देशों में से एक है ।
इंटरगर्वंमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आई.पी.सी.सी ) के अध्यक्ष डॉ. आर.के. पचौरी का मानना है कि जलवायु परिवर्तन का सामना करने के संदर्भ में भारत को एशिया में प्रमुख सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए ।
सवाल उठता है कि ग्लोबल वॉर्मिंग का सामना करने के लिए भारत कौन-सा मार्ग अपनाएगा ? क्या वह आकर्षक दिखने वाले उस गैर टिकाऊ व विसंगतिपूर्ण विकास को अंधाधुंध अपनाएगा जिस पर चलकर स्वयं कई विकसित देश आज थके हुए व हताश मालूम होते हैं? तब तो शायद वह भी स्वयं को महज कुछ ग्रीन व ईको फैं्रडली दिखाकर फील गुड करके संतुष्ट हो लेगा ! अथवा क्या भारत कई अन्य देशों की स्थिति व स्वयं अपने अतीत के अनुभवों से ठोस सबक लेता हुआ वैकल्पिक विकास की नई राहें तलाशेगा ? ग्लोबल वॉर्मिंग का सामना करने में कई विकसित देशों की दोहरी नीतियों पर भारत का क्या रूख होगा ?
बेलगाम बढता औद्योगिकरण, मशीनीकरणण, शहरीकरण बिजली की खपत को बेइंतहा बढा रहा है । जहां एक ओर कोयला तेल जैसे जीवाश्म इंर्धनों की खपत को कम करना जरूरी है; वहीं दूसरी ओर यह समझना भी जरूरी है कि ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोतों की भी अपनी कई सीमाएं हैं ।
बडी पनबिजली योजनाआें से जुडे पर्यावरण संबंधी नुकसानों, विस्थापन, बाढ की बढती समस्या, दुर्घटनाआें की संभावना, अपेक्षित लाभ न मिल पाना, सिकुडते ग्लेशियरों के चलते इनके अनिश्चित भविष्य ने इनपर कई सवाल खडे किए हैं। कई वैज्ञानिकों-पर्यावरणविदों ने बांधों के जलाशय की सतह से व पनबिजली सयंत्र संचालन के दौरान होने वाले ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन की समस्या पर भी ध्यान दिलाया है ।
परमाणु ऊर्जा में रेडियोएक्टिव कचरे से होने वाले प्रदूषण की गंभीर समस्या है जो भूमिगत जल में भी फैल सकता है और शेष पर्यावरण में भी । परमाणु ऊर्जा सयंत्रों में दुर्घटना व चोरी की संभावना भी मौजूद रहती है । परमाणु इंर्धन की मौजूदगी अधिकाधिक हिंसक होती दुनिया में अपने आप में खतरा तो उपस्थित करती ही हैं ।
ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोतों के रूप में सौर व पवन ऊर्जा को भी महत्त्वपूर्ण माना गया है । बिजली की बचत करने वाली तकनीकों को भी प्रोत्साहन मिल रहा है ।
हर संभव तरीके से बिजली की बचत करने वाली तकनीकों को भी प्रोत्साहन मिल रहा है ।
हर संभव तरीके से बिजली की बचत करना आज की जरूरत है । अधिक बिजली खींचने वाले उपकरणों जैसे ए.सी., फ्रिज (जो ओजोन परत को भी नुकसान पहुँचाते हैं), कम्प्यूटर आदि का उपयोग यथासंभव सीमित किया जाए । इसके प्रति विशेष सजग रहा जाए कि जब जरूरत न हो तब बिजली के उपकरण अवश्य बंद रहें। बिजली की जरूरतों को कम करना प्राथमिकता होनी चाहिए । विकल्पों को भी अंधाधुंध नहीं अपनाया चाहिए और वैकल्पिक वस्तुआें को अपनाते हुए इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि क्या समाज में मेहनतकश गरीबों के लिए वैकल्पिक रोजगार भी पनप रहे हैं या नहीं।
बढती कार्बन डायॉक्साइड को एकत्र कर भूमिगत या समुद्र की गहराईयों में छोड देना धरती व समुद्र की प्रकृतिपर बोझ तो होगा ही; साथ ही इस प्रक्रिया के दौरान भी कार्बन डायॉक्साइड वातावरण् में छूट सकती हैं और यह खतरा पैदा करती हैं ।
बायोइंर्धन के अंधाधुंध प्रसार पर भी सवाल उठे हैं । इसके कच्च्े माल की खेती के अंधाधुंध प्रसार से पर्यावरण, जैव विविधता, सीमित भूमि संसाधन पर पडते दबावों और इसकी रसायनयुक्त खेती के प्रसार से मोनोकल्चर को मिलता बढावा सवालों के घेरे में है । बायोइंर्धन निर्माण प्रक्रिया व ट्रांसपोर्ट में होते ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन पर भी चिंता प्रकट हुई है । वस्तुत: इंर्धन की खपत ही कम करना प्राथमिकता होनी चाहिए ।
वाहनों के संदर्भ में अपेक्षाकृत कम प्रदूषण करने वाली तकनीकों व इंर्धनों को कई जगह बढावा दिया जा रहा है । सार्वजनिक वाहनों की गुणवत्ता में सुधार व उनको बढावा दिया जाना चाहिए । साथ ही, बेलगाम बढते निजी वाहनों पर नियंत्रण बहुत जरूरी है । कुछ पश्चिमी देशों में सुव (डणत) जैसे बडे व काफी प्रदूषण करने वाले वाहनों पर कुछ सीमाएं लगायी जा रही हैं । हमें भी इससे सबक लेना चाहिए। एक विरोधाभास देश की राजधानी दिल्ली में यह देखा जा रहा है कि सडके चौडी करने व बेहतर सार्वजनिक वाहन सेवा की व्यवस्था के नाम पर बडी संख्या में पेड काटे जा रहे है ! इस तरह के दोहरे मापदण्डो से अंतत: पर्यावरण् की क्षति ही होती है ।
वायुयानों से होने वाला काफी ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन सीधा वायुमण्डल की ऊपरी सतहों को प्रदूषित करता है, ओजोन परत को नुकसान पहुँचाता है वायुमण्डल का रेडियोएक्टिव संतुलन बिगाडता है । बेइंतहा बढती हवाई यात्राआें को सीमित करना प्राथमिकता होनी चाहिए।
साईकिल, साईकिल रिक्शा व पैदल चलने वालों को प्रोत्साहन मिलना चाहिए । घर व कार्यस्थल की दूरियों को यथासंभव कम करने की दिशा में भी सोचा जा सकता है । इसके अतिरिक्त निजी मोटर वाहनों का सोच समझकर किया गया सीमित उपयोग ठीक रहेगा जैसे सामान्य कम दूरी के कामों के लिए मोटर वाहन का उपयोग न करना, अपने वाहनों में यथासंभव परिचितों के साथ मिलकर यात्रा करना आदि सुलभ उपाय हैं।
हर तरह से जल-संरक्षण को बढावा देना जरूरी है । वर्षा जल संचयन की पद्धतियों को बढावा मिलना चाहिए और परम्परागत जल संरक्षण विधियों से भी सीखा जाना चाहिए। परम्परागत जल स्त्रोतों की देखरेख व वृक्षारोपण को प्रोत्साहन मिलना चाहिए।
कार्बन ट्रेडिंग वस्तुत: ग्लोबल वॉर्मिंग का सामना करने के नाम पर भ्रमपूर्ण स्थिति ही अधिक पैदा करती है और कुछ संकीर्ण हितों की पूर्ति करती है। जहां एक ओर महज कार्बन क्रेडिट में निवेश करके विकसित देश अपना ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन बढाते रहते है; वहीं दूसरी ओर विकासशील देशों में इस ट्रेडिंग के अंतर्गत होने वाले प्रोजेक्ट भी ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन में काई वास्तविक व उल्लेखनीय कटौती करने के स्थान पर कई बार कुछ नई समस्याएं ही पैदा कर देते हैं (जैसे परम्परागत जंगलों को काटकर किसी नए किस्म के पेड-पौधे का प्रसार अथवा मोनोकल्चर को मिलता बढावा)।
गांवों में जलवायु परिवर्तन की मार झेलते कृषकों व अन्य ग्रामवासियों को विशेष सहायता की जरूरत है। परम्परागत जल स्त्रोतों के उत्थान और बिजली-पानी की बचत की ओर ध्यान देना होगा। गैर रसायनिक, गैर मशीनीकृत, गैर जी.एम., परम्परागत खेती की ओर लौटना होगा और जलवायु परिवर्तन की नई चुनौतियों का सामना करने के अनुरूप कदम खेती में उठाने होंगे। जलवायु बदलाव व प्राकृतिक आपदाआें के दौर में गांवों से बढते पलायन को कम करने के लिए गांवों में छोटे स्तर के श्रम प्रधान, उत्पादनात्मक, रचनात्मक व गांवों की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति में आत्मनिर्भरता लाने वाले रोजगारों का सृजन करना होगा।
यह सब तभी संभव है जब भूमण्डलीकरण की ताकतों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट व उसके चलते गांववासियों को उनके जल-जंगल-जमीन से वंचित किए जाने का अन्यायपूर्ण सिसलिता थमेगा।
बढते उपभोक्तावाद, बढती विषमता, बेलगाम बढते औद्योगिकरण-मशीनीकरण और प्राकृतिक संसाधनों की अन्यायपूर्ण लूट की प्रक्रिया प्राकृतिक असंतुलन और ग्लोबल वॉर्मिंग को बढाएगी ही। ग्लोबल वॉर्मिंग की प्रकट होती गंभीर चुनौती विकास के इस प्रचलित रास्ते पर प्रश्नचिह्र लगाती है और संतोष, सादगी, समता व प्राकृतिक जीवन शैली के महत्व को उभारती है। ***

५ जीव-जंतु

५ जीव-जंतु
विलुप्त होते जीव जन्तु और पर्यावरण
डॉ. भोलेश्वर दुबे
करोडो वर्ष पूर्व संयोगवश जीवन की उत्पत्ति संभव हुई। तब से आज तक अनेक जीवों का विकास हुआ है और यह सिलसिला जारी है। पृथ्वी ने अनेक जीव जन्तुआें और वनस्पतियों को आश्रय दिया तथा कई वातावरणीय, भूगर्भीय व जैविक परिवर्तनों की साक्षी रही। करोडो वर्षो की अवधि में अनेक जीव समुदाय अस्तित्व में आए और उनमें से कई इस भूलोक से विदा भी हो गए। प्रथम जीव की उत्पत्ति से वर्तमान काल तक लाखों प्रकार के जीव जन्तुआें और वनस्पतियों का विकास हुआ किन्तु आज उनके कुछ चुनिंदा प्रतिनिधि ही शेष बचे है।
भूगर्भीय अन्वेषण से स्पष्ट होता है कि अधिकांश प्रारंभिक व मध्यकालिक पादप और जन्तु समूह कुछ लाख साल तक धरती पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर विलुप्त हो गए। लगभग तेईस करोड तथा चौदह करोड वर्ष पूर्ण कुछ ऐसी प्राकृतिक घटनाएं घटित हुई जिनके कारण अधिकांश जैव प्रजातियां एक साथ विलुप्त हो गई। इसी काल में दैत्याकार डॉयनासौर के साम्राज्य का भी अंत हुआ। करोडो वर्ष पूर्व विलुप्त हुए उन जीवों की उपस्थिति के प्रमाण के रूप में अब हमारे समक्ष उनके जीवाश्म ही शेष हैं।
जीव शास्त्रियों का मत है कि पृथ्वी पर आज तक जितने भी जीव विकसित हुए उनका मात्र एक प्रतिशत ही आज अस्तित्व में हैं, शेष ९९ प्रतिशत जीव अब पूरी तरह लुप्त हो चुके हैैं । जीवों का विलुप्त्किरण सहज प्राकृतिक घटना है, जिससे बच पाना मुश्किल है ।
जैव विकास की प्रक्रिया में अक्षम प्रजातियां प्राकृतिक चयन के दौरान नकार दी जाती हैं, क्योंकि वे अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष नहीं कर पाती और बदली हुई परिस्थितियों में अनुकूलित भी नहीं होती । ऐसी जैव प्रजातियां जिनका सीमित वितरण हो तथा वे प्राकृतिक और मानवीय प्रतिकूल प्रभावोंसे लगातार जूझ रही हों, उनकी संख्या घटने लगती है । तथा उनकी विलुप्त्किरण की प्रक्रियातीव्र हो जाती हैं । इन संकटग्रस्त प्रजातियों की प्रजनन क्षमता भी घट जाती है । विलुप्त्किरण में पर्यावरणीय परिवर्तनों की प्रमुख भूमिका है । जो प्रजातियां बदले हुए माहौल के लिए अनुकूलित नहीं होती उनकी तादात घटती जाती है और अन्तत: उनका सफाया हो जाता है ।
जीव-जन्तुआें के आवास में प्रतिकूल परिवर्तन जीवों को पलायन के लिए प्रेरित करते हैं। कई बार आवासीय स्थितियां अचानक अत्यंत विषम हो जाने पर वहां की जैव प्रजातियां समाप्त् हो जाती हैं । आवास विनाश के लिए भूकम्प, ज्वालामुखी, तूफान, बाढ, भूस्खलन जैसे प्राकृतिक कारणोंके साथ-साथ नगरीकरण, वन-विनाश, बांध निर्माण, औद्योगिकीकरण, खनिज उत्खनन व प्रदूषण जैसी मानवीय गतिविधियाँ भी जिम्मेदार हैं ।
जैव तंत्र से एक प्रजाति का विलुप्त् होना पूरे तंत्र को प्रभावित करता है और वहां की भोजन श्रृंखला गडबडा जाती है । विलुप्त्किरण का सर्वाधिक प्रभाव उन प्रजातियों पर होता है जो स्थानिक और सीमित वितरण वाली हैं। ऐसी प्रजातियां विषम परिस्थितियों में अपने मूल आवास को छोड नए आवास की ओर प्रवास नहीं कर पाती और न बदली हुई परिस्थितियों से समझौता कर पाती हैं।
दुनियाभर में अब तक लगभग पचास हजार वनस्पति प्रजातियां स्थानिक पाई गयी हैं । ये पूरी धरती पर चिहि्न्त अट्ठारह आवास स्थलों पर ही सीमित है। भारत भी ऐसे कई पौधों और जीव जन्तुआें का आवास क्षेत्र है जो विश्व में कहीं ओर नहीं पाए जाते । उत्तर-पूर्व के वन क्षेत्र, पश्चिमी घाट, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह क्षेत्रफल के लिहाज से बहुत छोटे हैं, मगर यहां फूलधारी पौधों की २२० प्रजातियां और १२० प्रकार की फर्न पाई जाती हैं। यहां के समुद्र में फैली मूंगे (कोरल) की चट्टानें जैव विविधता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । उत्तर-पूर्वी वन में १५०० स्थानिक पादप प्रजातियां पाई जाती हैं । पश्चिमी घाट अनेक दुर्लभ उभयचरों, सरीसृपों व विशिष्ट पादप समूहों के लिए प्रसिद्ध है ।
जैव विनाश की प्राकृतिक प्रक्रिया को मानवीय गतिविधियों ने कई गुना बढा दिया है । प्राकृतिक संसाधनों के अविवेकपूर्ण, अनियोजित दोहन ने जन्तुआें और वनस्पतियों के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न् लगा दिया है । अनुमान है कि यदि प्रकृति में इसी गति से मानवीय हस्तक्षेप होता रहा तो सन् २०५० तक लगभग एक करोड जैव प्रजातियां विलुप्त् हो जाएंगी ।
वर्तमान में पूरे विश्व में लगभग अट्ठारह लाख वनस्पतियों और जन्तुआें की प्रजातियां ज्ञात हैं । ऐसा अनुमान है कि यह संख्या इससे दस गुना अधिक हो सकती है, क्योंकि अभी भी कई जैव प्रजातियों की जानकारी वैज्ञानिकों को नहीं है । एक आकलन के अनुसार वर्तमान दर जारी रही, तो प्रति वर्ष दस से बीस हजार प्रजातियों के विनाश की संभावना है । यह प्राकृतिक विलुप्त्किरण की दर से कई हज़ार गुना अधिक है ।
विकास के नाम पर पर्यावरण का भारी नुकसान होता है । शहरों का विस्तार, सडक निर्माण या सिंचाई और ऊर्जा के लिए बांध निर्माण अथवा औद्योगिकीरण, इन सब का खामियाजा तो मूक प्राणियों और वनस्पतियों को ही चुकाना पडता है। मानव की शिकारी प्रवृत्ति ने भी जीवों के विलुप्तीकरण की दर में वृद्धि की है । वन्य प्राणियों की खाल, हडि्डयों, दांत, नाखून आदि के व्यापारिक महत्व के चलते इनके अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है । क्षणिक सुख और कुछ धन के चक्कर में इन जीवों की हत्या की जाना चिंता का विषय है । शिकार के ही परिणामस्वरूप मॉरिशस का स्थानिक पक्षी डोडो दुनिया से सदा के लिए कूच कर गया और अनेक जीव संकटग्रस्त प्रजातियों की श्रेणी में आ खडे हुए हैं । इनमें प्रमुख हैं बाघ, सिंह, गेंडा, भालू, हाथी, पांडा, चिंकारा, कृष्ण मृग, कस्तूरी मृग, बारहसींगा, कई वानर प्रजातियां, घडियाल, गंगा में पाई जाने वाली डॉल्फिन आदि । कृषि क्षेत्र में कीटनाशकों के उपयोग से कई पक्षी संकट में है । विगत कुछ वर्षो में चौपायों के उपचार में इस्तेमाल की जाने वाली दर्दनिवारक औषधि डिक्लोेफेनेक के दुष्परिणाम सफाई कामगार गिद्धों पर इस हद तक हुए कि आज यह प्रजाति विलुिप्त् के कगार पर पहुंच गई है।
मशीनीकृत नावों के द्वारा मत्स्याखेट ने मछलियों के साथ समुद्री कछुआें और अन्य जीवों को भारी नुकसान पहुंचाया है । पौधों की भी कमोबेश यही स्थिति है । अत्यधिक दोहन के कारण भारत में ही १५०० पादप प्रजातियां विलुिप्त् की कगार पर हैं ।
इस निराशाजनक परिदृश्य में कुछ आशा की किरणें भी हैं । मानव को जहां प्रकृति विनाश के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाता है वहीं मनुष्य ने प्राचीन काल से ही प्रकृति संरक्षण के उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं । ये प्रयास चाहे उनकी मूलभूत आवश्यकताआें, धार्मिंक, सामाजिक मान्यताआें या आस्था के तहत ही क्यों न किए गए हों, इनसे जैव संरक्षण में मदद मिली हैं । चीन और जापान के बौद्ध मठों में गिंकलो बाईलोबा नामक वृक्ष उगाया जाता था । धार्मिक आस्था के कारण यह वृक्ष आज भी जीवित है और जीवित जीवाश्म के रूप में जाना जाता है । वन और वन्य प्राणियों, विशेष रूप से खेजडी और हिरण के संरक्षण के साथ राजस्थान के विश्नोई समाज का नाम जुडा है ।
उत्तराखंड का चिपको आंदोलन, बीज बचाआें आंदोलन, कर्नाटक के छोटे से गांव काक्कारे वेलुर के निवासियों का पेलिकन पक्षी प्रेम प्रकृति संरक्षण के आदर्श उदाहरण हैं । काक्कारे वेलुर के ग्रामीण तो प्रवासी पेलिकन पक्षियों की न केवल प्रतीक्षा करते हैं वरन् उनके आवास और प्रजनन की समुचित व्यवस्था भी जुटाते हैं ।
विगत कुछ वर्षो में सामाजिक और शासकीय स्तर पर प्रकृति संरक्षण की चेतना जागृत हुई है । कई स्वयंसेवी संगठन, शासकीय विभाग, विश्व प्रकृति निधि, अन्तर्राष्ट्रीय प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधन संरक्षण संगठन, जैव विविधता बोर्ड जैसी संस्थाआें ने उल्लेखनीय कार्य किये है। विश्व स्तर पर संकटग्रस्त प्रजातियों का लेखा-जोखा रखा जा रहा है तथा उनके संरक्षण के समुचित प्रयास हो रहे हैं।आज अनेक अभयारण्य,वन्यजीव संरक्षण उद्यान, संकटग्रस्त जीवों के सरंक्षण और प्रजनन के विशेष क्षेत्र बनाए गए हैं जहां इन लुप्त्प्राय जीवों को बचाने के प्रयास जारी हैं ।
संरक्षण के प्रयास की पूरी ज़िम्मेदारी शासन पर छोड देना बडी भूल होगी । इस हेतु समन्वित प्रयासों की आवश्यकता है जिसमें गैर सरकारी संस्थाआें व समाज की भी बराबरी की भूमिका होनी चाहिए ।
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६ खास खबर

६ खास खबर

बाघों को लेकर मंत्रालय और संस्थान में ठनी
हमारे विशेष संवाददाता द्वारा
पर्यावरण एवं वन मंत्रालय और भारतीय वन्य जीव संस्थान के बीच बाघों की संख्या को लेकर ठन गई हैं । मंत्रालय ने संस्थान के करोडों रूपए के खर्च से किए गए अध्ययन को मानने से इंकार कर दिया है तो वहीं दूसरी ओर संस्थान ने भी वर्ष २००२ के सरकारी आंकडों को खारिज कर दिया हैं ।
बाघों की गिरती संख्या
नेशनल पार्क नई संख्या गणना की रेंज पिछली संख्या
कान्हा ८९ ७३-१०५ १२१
पेंच ३३ २७-३९ ५५
पन्ना २४ १५-३२ ३३
बांधवगढ ३७ ३५-५६ ६४
सतपुडा ३५ २६-५२ ३९
मंत्रालय के सामने संस्थान की ओर से रखे गए आंकडों के अनुसार मध्य प्रदेश में केवल २६५ बाघ बचे हैं जबकि छत्तीसगढ में २५, महाराष्ट्र में ९५ और राजस्थान में ३२ बाघ बचे हैं । कुल मिलाकर कुछ राज्यों में बाघों की संख्या पहले के अनुमान के मुताबिक ६५ प्रतिशत कम हो सकती है । संस्थान के इन आंकडों पर मंत्रालय के सचिव प्रदीप्ते घोष ने बताया कि वह इस पर कुछ भी नहीं कहेंगे क्योंकि यह संस्थान का अध्ययन हैं ।
बाघो संबंधी परियोजना प्रोजेक्ट टाइगर के निदेशक राजेश गोपाल ने कहा कि यह सच है कि पहले की अपेक्षा बाघों की संख्या में गिरावट आई है लेकिन यह भी देखा जाना चाहिए कि देहरादून संस्थान ने पहले के आंकडों को स्वीकार नहीं किया हैं।
पर्यावरण मंत्रालय के अधिकारियों ने बताया कि जारी किए गए आंकडे अभी पूर्ण नहीं हैं और आखिरी आंकडे दिसम्बर में जारी किए जाएंगे । वन्यजीव विशेषज्ञ पीके सेन ने कहा कि पर्यावरण मंत्रालय का यह कहना आर्श्चजनक है कि संस्थान के आंकडे सरकारी नहीं है क्योंकि यह संस्थान सरकारी है और बाघों की संख्या का अध्ययन पूरी तरह भारत सरकार के तहत हैं । श्री सेन ने कहा कि संस्थान की ओर से बाघों की गिनती के लिए इस्तेमाल किए गए तरीके पर वर्ष १९९९ में सरकारी अधिकारियों के साथ हुई बैठक में वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों ने सवाल उठाया था । लेकिन संस्थान ने इसमें कोई सुधार नहीं किया और पुराने तरीके का ही इस्तेमाल किया।
देश के इतिहास में पहली बार अत्यंत वैज्ञानिक तरीके से हुई बाघों की गणना का जो दु:खद ब्यौरा सामने आया है, इसे एक राष्ट्रीय संकट ही माना जाना चाहिए। महाराष्ट्र हो, छत्तीसगढ, राजस्थान हो या अन्य राज्य सभी जगह हालात एक जैसे हैं । बाघ कम हो रहे हैं, सरिस्का से बाघ गायब हो गए हैं, पन्ना में उनकी संख्या सिर्फ ३५ रह गई हैं, टाइगर टास्क फोर्स बन गया है, चीन में बाघ अंगों की मांग बढती जा रही है, आदिवासियों के हक का बिल संसद में पास हो गया है, संसारचंद पकडा गया है, शिकार बेखौफ जारी है, जंगल कट रहे हैं... इस तरह की खबरें कई-कई वर्षो से आ रही हैं पर किसी ने बाघों की सुध नहीं ली ।
भारतीय वन्य जीव संस्थान पिछले दो वर्षो से बाघों की गणना की नई पद्धति पर काम कर रहा था । उसके पीछे यह तर्क दिया जा रहा था कि वर्षो पुरानी पग मार्क प्रणाली अवैज्ञानिक है, जिसके चलते सही आंकडों का पता लगाना संभव नहीं था । किंतुअब तो ताजा आंकडे सामने आए हैं उससे निश्चित हो गया है कि बाघ कुछ ही दिनों में हमें सिर्फ चिडियाघरों में ही दिखे! यह सब उस समय हो रहा है जब बाघों को बचाने की आवाज पूरे विश्व में उठाई जा रही है और करोडों रूपए खर्च किए जा रहे हैं । विभिन्न संगठनों के अंतर्राष्ट्रीय गठबंधन ने भारत सरकार से मांग की है कि वह चीन से बाघों की हडि्डयों के व्यापार पर लगाए गए प्रतिबंध को जारी रखने का अनुरोध करें।
चीन बाघ की हडि्डयों और अन्य अवयवों के व्यापार पर १९९३ में लगाए गए प्रतिबंध को समाप्त् करने पर विचार कर रहा है । अंतर्राष्ट्रीय बाघ गठबंधन नामक संगठन ने बयान जारी कर कहा है कि १४ साल तक चीन द्वारा लगाए जाने वाले प्रतिबंध भारत के जंगलों में पाए जाने बाघों को संरक्षित करने के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है । वर्तमान में चीन में कई टाइगर फार्म है जिनमें कुल मिल ५ हजार बाघ पाले जाते हैं । टाइगर फार्म में निवेश करने वाले निवेशकों की तरफ से चीन सरकार पर दबाव डाला जा रहा है कि वह प्रतिबंध हटा दे । बताया जाता है कि टाइगर फार्म में निवेश करने वाले बाघ के अंगो का व्यापार कर भारी मुनाफा कमाते हैं ।
गठबंधन ने सुझाव पेश किया है कि चीन के टाइगर फार्म में पाए जाने वाले बाघों की संख्या में वृद्धि कुछ समय के लिए रोक दी जाए । अंतर्राष्ट्रीय बाघ गठबंधन पर्यावरण संगठनों, वन्यजीवों की रक्षा के लिए काम करने वाले संगठनों और चीन के पारंपरिक चिकित्सा का पालन करने वाले समुदाय का मिला-जला गठबंधन है जिसका मानना है कि चीन द्वारा १४ साल पहले बाघों के अंगों के व्यापार पर लगाए गए प्रतिबंध को नहीं हटाया जाना चाहिए।
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७ हमारा देश

७ हमारा देश

इंदिरा गाँधी नहर से क्या सबक ले ?
अशोक माथुर
इंदिरा गांधी नहर परियोजना देश की बडी सिंचाई परियोजना में से एक हैं। चीन के तिब्बत प्रांत की मानसरोवर झील का पानी लेकर यह नहर थार के रेगिस्तान की प्यास बुझाती है ।
हिमालय का यह पानी राजस्थान के रेगिस्तान के लिए अमूल्य अमृत है । गंगा, भाखडा तथा इंदिरा गांधी नहर ने पूरे देश में आशाआें के सपने जगाए थे । सतजल नदी के पानी पर मनुष्य द्वारा निर्मित यह नहर गंगानगर, हनुमानगढ, बीकानेर, चुरू, जैसलमेर क्षेत्र में सिंचाई तथ बीकानेर, जोधपुर जैस रेगिस्तानी बडे शहरों के लिए पेयजल का स्त्रोत बनी है । नहर का निर्माण तथा तकनीकी मामलों पर प्राय: अनेक प्रश्न उठते रहे हैं । लेकिन यहां हम तकनीकी और प्रशसनियक दोषों को नहीं गिना रहे है क्योंकि उन अपराधों का दण्ड तो हमें भोगना पड रहा है । सन् १९९२ में कई तकनीकी विशेषज्ञ, कृषि वैज्ञानिकों, समाजशास्त्री तथा किसान संगठनों के साथ लेकन ने तलवाडा झील से जैसलमेर तक नहर यात्रा की थी । यह यात्रा पर्यटन के दृष्टिकोण से नहीं थी । यात्रा के दौरान पाया कि तकनीकी दोषों ने हजारों बीघा जमीन को वाटर लोगिंग (सेम) के कारण बंजर व बेकार कर दिया।
नहरी क्षेत्रों में जो विकास का मॉडल अपनाया गया उसने धन व सम्पत्ति की अंधी दौड आरंभ कर दी । नहर के साथ-साथ शराब का दरिया भी बह चला सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों पर ध्यान देने की कोई जरूरत नहीं समझी गई । शिक्षा के नाम पर हिंदी अंग्रेजी में शब्द ज्ञान तो बहुत हुआ । लेकिन सामाजिक गठबंधन व लोक चेतना लुप्त् हो गई । सरकारी आंदोलन कागजों में दौडा लेकिन संयुक्त परिवार प्रथा चकनाचूर हो गई । व्यवहार रूप में ग्राम समुदाय पारस्परिक सहयोग व सरकार को भूल गए । पैसे की अंधी दौड व वैभव प्रदर्शन ने पूरे इलाके में ट्रेक्टर, जीप, कार, मोटर साईकलों की भीड बढा दी ।
इस सारी तरक्की के पीछे झांकने की कोशिश राजनीतिज्ञों की कभी नहीं थी । वोट के गोरखध्ंाधे में नहर व नहरी पानी एक सुनहरा चैक है । लेकिन एक बडी सच्चई जो इस प्रकार के विकास के मॉडल के रूप में उभर कर आई वो यह थी कि पूरे इलाके में किसान कर्जदार बन गया । बैंको, निजी ऋण-संस्थाआें और आडतियाँ का बंधुआ मजदूर बना किसान शराब के नशे में मुस्कुराता हुआ दिखता तो है लेकिन अंदर से वो खोखला हो गया है । जिस खेती व किसान के नाम पर पानी रेगिस्तान में लाया गया, वे आज दुखी व परेशान हैं । पूरे क्षेत्र में पशु पालन समाप्त् हो गया । साथ ही पशु पालन व कृषि का संतुलन भी बिगड गया है । इस संतुलन के बिगडने का सीधा असर पर्यावरणीय संकट का पैदा होना है। जो चारागाह थ्ेा, वे कृषि भूमि के रूप में सरकार द्वारा बेच दिए गए ।
ओरण, जोहड, ताल-तलैया व बावडिया तक बिक गयीं । यह एक जबरदस्त सच्चई है कि सरकार ने नहरी सिंचाई का प्रलोभन देकर रेगिस्तान के अकृषि योग्य भूमि को बेचकर अरबों रूपया कमाया । नहर से सबसे ज्यादा लाभ विश्व बैंक जैसी विदेशी संस्थाआें को हुआ। ऋण और ब्याज उनकी कमाई का अच्छा जरिया है । पानी के स्त्रोत कैसे हैं ? हिमालय में पानी कितना है ? क्या भविष्य में भी चीन मानसरोवर का पानी सतलज और इंदिरा गांधी नहर तक पहुंचने देगा ? इसका कोई जवाब अभी हमारे पास नहीं हैं ।
भारत सरकार और चीन के बीच में आज की त्तारीख तक इस पानी को लेकर कोई समझौता नहीं है । जबकि चीन ने सतलज तथा ब्रह्मपुत्र का पानी नील नदी और गोबी के रेगिस्तान में ले जाने की पूरी तैयारी कर ली है । यदि ऐसा होता है तो पूरा इंदिरा गांधी नहर क्षेत्र एक बार फिर उजड जायेगा । विकास का यह मॉडल आम आवाम के हक में नहीं जा रहा । नहर के निर्माण और रखरखाव के कारोबार से चंद नौकरशाह व ठेकेदार जरूर मालामाल बन रहे हैं । भूमि के असमान वितरण व सीलिग एक्ट की अवहेलना के परिणाम स्वरूप छोटा, मंझला व सीमांत किसान अपनी जमीन से उखड गया है । पोंग बांध के विस्थापित भी अपनी जमीन पर खेती नहीं कर पाये । दलितों की जमीन भी दलित जातियों में उभरे नव धनिक व नव सामंतों के कब्जे में चली गई है । कमोवेश पाकिस्तान से आने वाले विस्थापितों के भी यही हालात हैं । अनेक क्षेत्रों में जायज-नाजायज तरीकों से जमीन पर कब्जा जमाए भू-पतियों का वर्चस्व अब स्पष्ट दिखाई दे रहा है । जो पूरे क्षेत्र में वर्गीय विभाजन की रेखा बन गया है । खनिज पदार्थो का क्षरण भी इंदिरा गांधी नहर क्षेत्र की एक समस्या है । जिप्सम के विशाल मैदान के ऊपर पूरे क्षेत्र में जो सिंचाई क्षेत्र बिछाया गया है वो सेम की समस्या का मुख्य कारण है । इससे जिप्सम भी खराब हुआ और खेत भी खराब हुए ।
इस बर्बादी के लिए करोडों रूपये सरकारी तंत्र ने खर्च किए लेकिन आज इसकी जिम्मेदारी कोई नहीं ले रहा । इंदिरा गांधी नहर के निर्माण, सिंचाई प्रबंधन, कृषि चक्र और बाजार तंत्र के जो परिणाम हमारे सामने आए है उनकी वकालत तो नहीं की जा सकती परंतु उनसे सबक लेकर हमें आगे बढना होगा । अब राज्य में यमुना और गंगा का पानी हडपने की तैयारी चल रही है । झुंझूनू, चुरू, नागौर, बीकानेर, जैसलमेर, जोधपुर व बाडमेर इस नई सिंचाई परियोजना के क्षेत्र में हैं । जबकि नर्मदा नदी का पानी भी जालौर, सिरोही व बाडमेर में आने वाला है । इंदिरा गांधी नहर हमारे लिए एक अच्छा सबक है । यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि नहरी परियोजनाआें को उनकी क्षमता व डिजाईन के मुताबिक नदियों व जल स्त्रोतों से पानी मिलें ।
अगर पानी की आवक नहीं है तो राजनैतिक वाही-वाही के लिए और भू-राजस्व और भूमि की कीमत वसूलने के लिए अनावश्यक सिंचाई क्षेत्र घोषित किया जाए । भूमि की संरचना को भली प्रकार जांचा जाए कठोर चट्टानों और जिप्सम क्षेत्रों को सिंचित क्षेत्रों में बदलने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए । पशु पालन व कृषि में बराबर का संतुलन होना चाहिए । चारागाह तथा पुराने जोहड, ताल-तलैया व झीलों को यथास्वरूप सुरक्षित कर उन्हें नहरी पानी से भरा जाना चाहिए ताकि जल का पुर्नभरण होता रहे। विशेष वन क्षेत्र ग्राम समुदाय के सहयोग से विकसित किये जाने चाहिए । कृषि भूमि का वितरण, सीलिंग प्रबंधन, कृषि विशेषज्ञों व किसानों के वास्तविक प्रतिनिधियों द्वारा किया जाना चाहिए ।
पुराने अनुभव के आधार पर उपरोक्त सुझाव हो सकते है । जो नए खतरे पैदा हो गए हैं उन पर भी चर्चा बहुत आवश्यक है । विश्व बैंक ने केन्द्र व राज्यों की सरकारों को पानी के कारोबार से मुनाफा कमाने की सलाह दी हैं । विश्व बैंक तथा एशियाई विकास बैंक की मानसिकता सूदखोर महाजन की है । प्राकृतिक संसाधन किसी राज्य, सरकार, व्यक्ति या कंपनी की बपौती नही हो सकते। पानी हमारे जिंदा रहने की पहली शर्त है और अगर पानी पर पहरे बैठें अथवा नदियों व नहरों पर कंपनी व सरकारों का कब्जा होकर पानी बेचने का गोरखधंधा आरंभ हो गया तो इस धरती पर कोहराम मच जाएगा । इंदिरा गांधी नहर क्षेत्र में एशियाई विकास बैंक के दबाव से पेयजल योजनाआें का निजीकरण हो रहा हैं ।
चुरू समेत अनेक स्थानों पर पेयजल योजनाआें पर सीधी दखल प्रारंभ भी हो गई है जिससे पानी का निजीकरण होगा । यह दुर्भाग्य की बात है कि जनता से वोट लेने वाली तमाम राजनैतिक पार्टियां इस अहम मुद्दे पर पूरी तरह खामोश हैं । जाहिर है पानी के निजीकरण व व्यापारीकरण के कायदे बनाने वाली विधानसभा के सदस्य अगर इस मुद्दे पर खामोश रहते हैं तो वे अपने मतदाता के साथ गद्दारी करते हैं। पानी बेचने के कारोबार के साथ एक ऐसा नेटवर्क तैयार है जो शहरों में पेयजल योजनाआें के नाम पर तथा उद्योग व व्यवसाय के नाम पर ज्यादा पानी व ज्यादा मुनाफा और आसान वसूली के इंतजार में हैं । इसलिए राज्य की समस्त सिंचाई परियोजनाआें का लक्ष्य अब शहर व उद्योग हो गए हैं ।
ऐसी रणनीति कृषि व सिंचाई के लिए पानी की मात्र को कम कर देगी और धडसाना, सोहल व राजसमंद जैसे अनेक संघर्षो को आमंत्रण देगी । आदमी से आदमी को लडाया जा रहा है । इंदिरा गाधी नहर क्षेत्र में प्रथम चरण व द्वितीय चरण के किसानों में टकराहट है । पानी का गोरखधंधा हमें नहर के मूल उद्देश्य से भटका देगा । समय रहते भ्रष्टाचार के इस अंधकूप से नहरी तंत्र को बाहर आना पडेगा । इंदिरा गांधी नहर से सबक लेकर हमें राजस्थान एवं पूरे देश के लिए सिंचाई तंत्र को सुदृढ करना चाहिए ।
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८ पर्यावरण परिक्रमा

८ पर्यावरण परिक्रमा
बुद्धिमान नहीं थे मानव के पूर्वज !
अब तक मनुष्यों के पूर्वजों यानी बंदरों के बारे माना जाता रहा है कि वे काफी बुद्धिमान रहे होंगे, लेकिन दो करोड ९० लाख साल पुरानी एक खोपडी के विश्लेषण से पता चला है कि बुद्धिमत्ता में वे वर्तमान मनुष्यों से कम ही थे ।
अति आधुनिक तरीकों से संभालकर रखी गई मनुष्यों के पूर्वज माने जाने वाले एजिप्टोपाइथेकस ज्यूजियस की खोपडी के अवशेषों का अध्ययन करने के बाद वैज्ञानिकों ने विस्तृत रिपोर्ट तैयार की है, जिसका सबसे मुख्य बिंदु यह है कि मनुष्यों और बंदरों के पूर्वज यानी वानर ज्यादा बुद्धिमान नहीं होते हैं । माना जाता है कि ये पूर्वज २ करोड ९० लाख साल पहले मिस्र के अति गर्म जंगलों में पेडों की पत्तियाँ और फल खाकर विचरण किया करते थे । वैज्ञानिकों का कहना है कि पूर्व में मनुष्यों का मस्तिष्क काफी छोटा होता था, जो समय के साथ-साथ धीरे-धीरे बडा होता गया और इस प्रकार उनकी अगली पीढियों में समझबूझ और ज्ञान का विकास होता गया ।
ड्यूक यूनिवर्सिटी के प्राइमेटोलॉजिस्ट और अध्ययनकर्ता दल के प्रमुख डॉ. एल्विन सिमोन्स कहते हैं कि यह बडा आर्श्चयजनक तथ्य है कि हमारे पूर्वजों का मस्तिष्क अत्यंत छोटा होता था । वे कहते हैं कि एक मादा बंदर की यह खोपडी वर्ष २००४ में कैरों के नजदीक पाई गई थी ।
अति प्राचीन इस खोपडी का अध्ययन करने के लिए माइक्रो कम्प्यूटराइज्ड वैज्ञानिकों ने स्कैनिंग पद्धति का सहारा लिया। यह एक प्रकार की कम्प्यूटराइज्ड एक्स-रे तकनीक है, जिसे माइक्रो-सीटी भी कहा जाता है । इसके जरिए जानवरों की खोपडी के बारे में जानकारियाँ जुटाई जा सकती हैं ।
दुनिया में सबसे तेज चलते हैं सिंगापुरी
क्या आप जानते हैं कि दुनिया में सबसे चाल कहां के निवासियों की है ? इस मामले में सिंगापुर के लोग अन्य देशों से आगे है जबकि पिछले एक दशक में न्यूयार्क वासियों की चाल में १० फीसदी का इज़ाफा हुआ है ।
दुनिया के ३२ शहरों को एक नमूने के तौर पर चुनकर यहां के बाशिंदो की औसत चाल का अध्ययन किया गया। इस मामले में सिंगापुर के लोग सबसे आगे हैं । इस शहर को सुस्त चाल चलना पसंद नहीं है । तेज चाल चलने के मामले में कोपेनहेगन, मेड्रिड और गुआनझाऊ शहर के लोगों का भी शीर्ष स्थान है, लेकिन इस मामले में न्यूयार्क आठवें स्थान पर हैं । भारत के किसी भी शहर को इस अध्ययन में शामिल नहीं किया गया । ब्रिटिश काउंसिल द्वारा कराए गए इस अध्ययन के मुताबिक हमेशा अधिक तेज चलना भी स्वास्थ्य के लिए लाभदायक नहीं है ।
ब्रिटेन में यूनिवर्सिटी ऑफ हाईफोर्डशायर में मनोविज्ञान विभाग के प्रोफेसर रिचर्ड वाइजमैन के मुताबिक तेज चाल और खान-पान में पर्याप्त् तारतम्य या समन्वय न होने से कई नुकसान है । जो लोग अधिक तेज चलते हैं, वे व्यायाम के प्रति उदासीन हो जाते है । ऐसे लोगों को अपने दोस्तों और परिजनों की उपेक्षा करने की आदत हो जाती है । जो लोग तेज चलते हैं उन्हें तेज बोलने और तेज खाने की भी आदत हो जाती है जो स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है ।
ऐसे लोग हमेशा अधीर बने रहते है और कई बार गलतियां कर बैठते हैं । तेज चलने वाले लोगों को जल्दबाजी में घडी बांधने की आदत होती है । ऐसे लोग अधीर किस्म के व्यक्ति होते है जिन्हें न बैठने में मन लगता है न ट्रैफिक जाम की स्थिति उन्हें सुहाती है ।यहां तक कि वे कतार में खडे होने के बाद अस्थिर नजर आते है । इस तरह से ये लोग अस्थिरता के शिकार हो जाते है ।
गैस सोख नहीं पा रहा दक्षिणी महासागर
वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण अंटार्कटिक के चारों और फैले दक्षिणी महासागर में कार्बन डाईऑक्साइड सोखने की क्षमता खतरे में है ।
पत्रिका साइंस में छपे एक शोध में ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे, यूनिवर्सिटी ऑफ इंस्टीट्यूट फॉर बायोजियोकेमिस्ट्री के वैज्ञानिकों का कहना है कि दक्षिणी महासागर कार्बन डाईऑक्साइड से पूरी तरह भर गया है । असल में यह महासागर भारी मात्रा में दुनियाभर में उत्सर्जित होने वाली कार्बन डाईऑक्साइड गैस को सोखता है, लेकिन अब इसमें इतनी कार्बन डाईऑक्साइड आ गई है कि सागर इसे सोखने की बजाय वापस वातावरण में छोड रहा है ।
वैज्ञानिकों के अनुसार अगर इसे रोका नहीं गया तो दुनिया का तापमान आशंकाआें से कहीं अधिक तेजी से बढेगा। दक्षिण महासागर दुनिया का पन्द्रह प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड सोखता है, जिससे तापमान सामान्य रखने में मदद मिलती है, यह गैस सागर के तल में बैठ जाती है ।
पिछले कुछ वर्षो में बढते हुए तापमान और ओजोन परत को हुई क्षति के कारण तेज हवाएँ चलने लगी हैं । इससे सागर का पानी हिलोरे लेता है और गैस नीचे बैठ नहीं पाती । इतना ही नहीं, गर्म और तेज हवाआें के कारण नीचे बैठी हुई गैस ऊपर आ रही है और वातावरण में फैल रही है । वैज्ञानिकों ने चार साल के गहन शोध के बाद यह चेतावनी दी है कि स्थिति में तेजी से सुधार नहीं हुआ तो आने वाले समय में अन्य महासागरों का हाल भी इस महासागर जैसा ही हो सकता है ।
यूका का कचरा पीथमपुर और अंकलेश्वर जाएगा
भोपाल में गैस त्रासदी के बाद बंद पडे यूनियन कार्बाइड का ३८६ मीट्रिक टन जहरीला कचरा शीघ्र ही पीथमपुर और गुजरात के अंकलेश्वर में निपटान के लिए भेजा जाएगा । राज्य शासन ने पहली मर्तबा स्वीकार किया है कि यूका का कचरा पीथमपुर में शिफ्ट किया जाएगा ।
हजारों लोगों को मौत के घाट उतारने वाली मिक गैस और घातक कचरे को पीथमपुर में दफनाया जाएगा । रामकी इन्वायरो इंजीनियर्स लि. ने पीथमपुर में लैंडफिल तैयार की है, जिसमें प्रदेशभर की औघोगिक इकाइयों का रासायनिक कचरा दफन किया जाएगा । इंदौर और धार के पर्यावरणविद् लगातार इस लैंडफिल का विरोध कर रहे हैं । उनका कहना है कि रासायनिक कचरे से भोपाल में कई किलोमीटर क्षेत्र प्रदूषित हो चुका है और लैडफिल ऐसे खतरनाक कचरे के निपटान के लिए उचित तरीका नहीं है ।
पिछले दिनों प्रदेश के गैस राहत एवं पुनर्वास मंत्री बाबूलाल गौर ने केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह को ज्ञापन देकर मांग की कि यूका परिसर से रासायनिक अपशिष्ट हटाने के लिए दो करोड की राशि शीघ्र दी जाए । श्री गौर ने बताया कि कार्बाइड परिसर से ३४६ मीट्रिक टन अपशिष्ट गुजरात के अंकलेश्वर में इन्सीलेशन किया जाएगा और ४० मीट्रिक टन पीथमपुर में जमींदोज किया जाएगा । श्री गौर के मुताबिक अपशिष्ट के संचय का काम शुरू हो गया है और इस पर ९० लाख रूपए खर्च भी किए जा चुके हैं ।
बाथरूम में पर्यावरण हितैषी उपकरणों की माँग
पर्यावरण के प्रति जागरूकता के चलते अब भारत में उपभोक्ता सेनेटरी के क्षेत्र में भी ऐसे उपकरण माँगने लगे हैं, जो पर्यावरण हितैषी हों । पानी कम से कम खर्च करते हों । पैसों की परवाह नहीं। एक बाथरूम बने न्यारा की भावना बलवती होती जा रही हैं ।
सेनेटरी उद्योग जगत के स़ूत्रों के अनुसार उपभोक्ता की माँग को देखते हुए पर्यावरण हितैषी आयटम बाजार में आ गए हैं । पुराने उपकरणों में अधिक पानी की खपत होती थी । अब नये उपकरण इस तरह डिजाइन किए हैं कि सफाई भी ठीक तरीके से हो और पानी का खर्च भी कम रहे । सेनेटरी वेअर में कुल ८०० करोड रूपए का सालाना कारोबार होता हैं । लोग पत्र-पत्रिका में दिखाई देने वाले बाथरूम अपने घरों में बनवाना चाहते हैं। औसत भारतीय व्यक्ति अब ४० से ७५ हजार रूपए तक खर्च करने को तैयार रहते हैं । उच्च् वर्ग वर्ग में तो यह राशि दो लाख रूपये तक जाने लगी हैंे ।
जो लोग विदेश यात्रा पर जाते हैं और वहाँ के बाथरूम व टाइलेट देखते हैं तो उनके सदृश्य अपने घरों में भी सुविधा जुटाना चाहते हैं । कोई इटालियन बाथरूम चाहता है, तो किसी को जर्मन या योरपीय शैली के बाथरूम पसंद हैं । भारतीय बाजार में भी ऐसे आयटम की भरमार हो गई हैं।
दुकान-दुकान भटकने की प्रवृत्ति भी अब लुप्त् होती जा रही हैं । उपभोक्ता चाहता है कि एक ही छत के नीचे टोटियाँ, सिस्टर्न और मिरर वगैरह सब मिल जाएँ । सामान्य टोटियों की जगह डिजाइन वाली टोटियाँ, टॉवेल राड, फ्लॉवर स्टैंड, मिरर और और विशेष प्रकार की लाइटिंग प्रणाली पसंद की जाने लगी हैं । योरप की तरह गीले और सूखे क्षेत्र वाले बाथरूम की माँग भारत में भी गति पकड रही हैं ।
अभी तक तो बाथरूम में सबसे अधिक पानी खर्च करने का रिवाज रहा है। पिछले वर्ष एक सर्वेक्षण में कहा गया था कि लोग पेयजल का जो पानी उनके घरों में पहुंचता है, उसमें ४% पीने में, ८% खाना बनाने में उपयोग करते हैं । सबसे ज्यादा २९% बाथरूम में और ३९% पानी का उपयोग टाइलेट में होता है । पर्यावरण की दृष्टि से यह एक अच्छी पहल है और इस तरह के उत्पादों का स्वागत किया जाना चाहिए ।
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९ विदेश

९ विदेश
चीन : पारंपरिक मूल्यों की वापसी
डाले जियाजुन वेन
चीन की ६० से ७० फीसदी आबादी अब भी गाँवों में रहती है । मीडिया के बहुप्रचारित चीन के आर्थिक करिश्मे से प्रभावित अनेक पश्चिमी पाठक शायद यह नहीं जानतें हैं कि चीन का बड़ा इलाका व्यापक संकट का सामना कर रहा है । स्थिर आय, सार्वजनिक सेवाआें मेे कटौती, अक्षम स्थानीय सरकार, दिनोंदिन बढ़ता भ्रष्टाचार, घटते सामाजिक संसाधन, पर्यावरण विनाश, अपराधों में वृद्धि एवं इन सब के प्रति बढ़ता असन्तोष व प्रतिरोध जैसी अनेक समस्याआें को विशेषज्ञों ने त्रि-आयामी ग्रामीण समस्या (खेती, किसान और ग्रामीण क्षेत्र) में समेटने का प्रयास किया है ।
मुख्यधारा के अर्थशास्त्री अब भी औद्योगिकरण और शहीरकण को ही इसका समाधान मानते हैं । चीन की सात प्रमुख नदियों का लगभग ६० प्रतिशत पानी अत्यन्त प्रदूषित हो चुका है । ६ करोड़ लोग पानी की कमी से जूझ रहे हैं और तकरीबन ३० करोड़ लोगों को साफ पेयजल उपलब्ध नहीं हैं । इसके अलावा १५ करोड़ ग्रामीण मजदूर शहरों में काम कर रहे हैं । इनमें से अधिकांश अभाव में जीवन यापन कर रहे हैं और वे शहरों में उपलब्ध सुविधाआें का कोई उपयोग नहीं कर पाते हैं । इस व्यापक जलसंकट से स्पष्ट होता है कि चीन में वर्तमान औद्योगिकरण और शहरीकरण पूर्णत: अनुपयुक्त हैं ।
इन समस्याआें के मद्देनजर कुछ ग्रामीण विशेषज्ञ कहते हैं कि भविष्य में चीन की बहुसंख्य आबादी को गाँवों में ही रहना चाहिए । उनकी योजना है कि सामुदायिक भावना को पुनर्जीवित किया जाए और ग्रामीणों द्वारा जन-केन्द्रित तथा समुदाय-आधारित स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूत किया जाना चाहिए । वर्षो के अनुभव से किसान भी इसी नतीजे पर पहुंचे है एवं उन्होंने स्वयं संगठित होकर वैकल्पिक टिकाऊ और सम्मानजनक जीविका की तलाश आरम्भ कर दी है । इस चुनौती के जवाब में अनेक विद्वान और सामाजिक कार्यकर्ता किसानों के साथ एकजुट होकर ग्रामीण नवनिर्माण आन्दोलन से जुड़ गये हैं ।
इस आन्दोलन का इतिहास बहुत पुराना है । वाय.सी. जेम्स येन नामक एक चीनी शिक्षाशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता थे, जिन्होंने १९२० के दशक में चीन में ग्रामीण विकास के लिये शिक्षा, रोजगार, सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्व-शासन का एक समग्र कार्यक्रम विकसित किया था । यही ग्रामीण नवनिर्माण आन्दोलन की शुरूआत थी । आन्दोलन का केन्द्र बीजिंग से रेल द्वारा तीन घण्टे की दूरी पर स्थित एक गाँव में स्थापित जेम्स येन ग्रामीण नवनिर्माण संस्थान है । इस संस्थान में जैविक खेती, वर्मीकल्चर, पर्यावरण अनुकूल स्थानीय भवन निर्माण सामग्री, सामुदायिक संगठन और ग्रामीण सहकारिता निर्माण जैसे विषयों पर प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन किया जाता है ।
पिछले पच्चीस वर्षो में चीन में पश्चिम की नकल करके औद्योगिक विकास और शहरीकरण को ही आधुनिकता का पैमाना मान लिया था । शिक्षा से जुड़ी अधिकांश किताबों के अनुसार शहरीकरण का अर्थ ही आधुनिकीरण है और जो भी ग्रामीण है, वह पिछड़ा है और उसे आधुनिक बनाया जाना चाहिये । किसानों के अपनी जमीन से पारम्परिक जुड़ाव को मूर्खतापूर्ण भावुकता माना गया था । इन सब विचारों ने गाँवों स्त्रे श्रम और बुद्धि के पलायन का मार्ग प्रशस्त किया । परिणामस्वरूप गाँवों से काम की तलाश में बहुत से युवा तटीय इलाकों में आकर बस गये और निर्यात किये जाने वाले सामान का उत्पादन करने वाले उ़द्योगों में उनके श्रम का शोषण किया गया । ग्रामीण नव निर्माण आन्दोलन ने इस उपनिवेशवाद पर रोक लगाई है ।
प्राध्यापक वेन तियेजुन, जो आन्दोलन के आध्यत्मिक नेता माने जाते हैं, चीन के ऐसे बुद्धिजीवी हैं, जिन्होंने पश्चिम केन्द्रित विकास के ढाँचे को चुनौती दी । सन् २००४ में प्रकाशित अपनी किताब डिकन्सट्रक्शन ऑफ मॉडर्नाइजेशन एण्ड व्हॉट डू वी रियली नीड ? (आधुनिकीरण का विसर्जन और असल में हमारी जरूरत क्या हैं ?) में चीन में संसाधनों की कमी पर जोर दिया है । उन्होंने बताया है कि तटीय इलाकों के तेज विकास में ग्रामीण क्षेत्रों का आंतरिक उपनिवेश के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है । पूरे चीन में उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर सौ महावद्यिालयों में ग्रामीण विचार केन्द्र स्थापित किए हैं । जिसके माध्यम से विद्यार्थी गाँवों की सच्चई से रूबरू हो सकें ।
इस आंदोलन के माध्यम से चीन की पारंपरिक संस्कृति में प्रकृति के साथ सामंजस्य, सामुदायिक मूल्यबोध एवं संपत्ति तथा उपभोग के अंतहीन लोभ के स्थान पर संतुष्टि के भाव को पुनर्स्थापित किया जा रहा है । हाल के वर्षो में आधुनिकता की पागल दौड़ के कारण ग्रामीण समाज में किसानों का जमीन से जुड़ाव कमजोर हुआ है । रासायनिक खेती ने पारंपरिक जैविक खेती को बेदखल कर दिया है, जिससे किसान रासायनिक दवाआें और खाद के लिए बाजार पर निर्भर हो गए हैं। सन् १९८० के दशक में आरंभ हुई पारिवारिक ठेकेदारी प्रथा और सामुहिक कल्याण तंत्र के समाप्त् होने के कारण पारिवारिक खेती प्राकृतिक आपदाआें एवं बाजार के उतार-चढ़ावों का अधिक शिकार हुई है । इसके कारण बहुत से किसानों को अपनी जमीन बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा है ।
इस दुर्दशा के कारण उनका शोषण भी बढ़ा हैं। वहीं पर्यावरण की अनदेखी के भी विपरीत परिणाम सामने आ रहे हैं । उदाहरणार्थ सन् १९८५ से १९८९ के दौरान देशभर में समुद्री हवाआें को रोकने का सक्षम क्षेत्र ४८ प्रतिशत घट गया है। नहरें और सिचांई के अन्य साधन भी कम हुए हैं और इसके परिणामस्वरूप मिट्टी का क्षरण और बाढ़ एवं सूखे का प्रकोप भी बढ़ा है । जैविक खेती करने वाले किसान एन जिनली और स्वयंसेवी प्रशिक्षक जमीन और समाज के प्रति लगाव को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहे हैं । प्रशिक्षण देते हुए वे सिखाते हैं कि जैविक खेती का मतलब रसायनों को हटाकर पैसा कमाना या महंगे बाजार का लाभ उठाना नहीं है। खेती का लाभ व्यापार नहीं, बल्कि एक जीवन शैली है ।
अच्छा किसान एक विनम्र सेवक होता है, जो जमीन के दिए उपहार को स्वीकार करता है और उसके बदले में अपनी मेहनत से जमीन को बेहतर बनाता है । वह जानता है कि सभी जीव-जंतु और पेड़-पौधे अनमोल जीवित संपदा हैं और इस प्रकार वह उनके खिलाफ नहीं वरन् उनके साथ मिलकर काम करता है । कुल मिलाकर वह अपने साथी किसानों के साथ स्वस्थ भूमि और स्व्स्थ समाज बनाने के लिए काम करता है । जमीन और समाज को परस्पर जोड़ने वाला यह विचार कठोर ह्रदय अर्थशास्त्रियों और औद्योगिक कृषि वैज्ञानिकों को भले ही भावुकता प्रतीत हो, किंतु असल में यह जमीन से जुड़ा विचार है । ग्रामीण नवनिर्माण आंदोलन का यह केंद्रीय विचार अपने विचार और स्वरूप से चीन की एक बड़ी समस्या का समाधान कर सकता है ।
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११ जनस्वास्थ्य

११ जनस्वास्थ्य
गरीब देशों में एनिमिया
विभा वार्ष्णेय
पूरे भारत वर्ष में एनिमीया (रक्ताल्पता) बुरी तरह से फैला हुआ है। इस कुपोषण का सबसे बडा कारण भोजन में लौह तत्व की कमी होना है । हालांकि इस कमी को पूरा करने का सबसे बेहतर तरीका संतुलित भोजन है परन्तु एनीमिया की व्यापकता ने लौह तत्वों के स्थानापन्नों का एक बडा बाजार निर्मित कर दिया है। जिसमें आम तौर पर इसकी महंगी किस्में ही उपलब्ध हो पाती हैं।
कर्नाटक के एक स्वयं सेवी संस्थान - ड्रग एक्शन फोरम कर्नाटक (डी.ए.एफ.के.) ने सन् २००६ में मूल औषधियों एवं नीतियों के संदर्भ में किए गए एक बाजार सर्वेक्षण के आधार बताया कि लौह स्थापन्न के सस्ते विकल्प बाजार में उपलब्ध नहीं हैं ।
केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण की अनिवार्य दवाआं में पंजीकृत एनीमिया रोधी फेरोस फ्यूमेरट नामक २०० मिली ग्राम की गोली जिसकी कीमत मात्र १३ पैसे निर्धारित है पूरे बाजार में उपलब्ध नहीं है, क्योंकि कोई भी दवा निर्माता इसके निर्माण हेतु इच्छुक नहीं है । इसके अभाव में चिकित्सक इस हेतु मजबूर हैं कि वे अन्य कोई उपलब्ध विकल्प की अनुशंसा करें जो कि ज्यादातर अनेक दवाइयों का सम्मिश्रण ही होते हैं । मरीजों के लिए ये सम्मिश्रण अत्यधिक महंगे साबित होते हैं। उदाहरण के लिए धारवाड शहर में उपलब्ध इस सम्मिश्रण की सबसे महंगी औषधि पर प्रतिमाह का खर्च ५४० रूपये आता है । जबकि यदि यही उपचार फैरोस फ्युमरेट से किया जाए तो यह खर्च मात्र ३ रूपये ९० पैसे से ११ रूपये ७० पैसे तक आता है ।
इस संगठन द्वारा लौह कमी के ३३८ पर्चोंा के विश्लेषण से यह तथ्य उभर कर आया कि बाजार में उपलब्ध लौह स्थानापन्न इसलिए महंगे हैं क्योंकि ये मूलत: उन औषधियों के सम्मिश्रण हैं जिनकी सामान्यतया कोई आवश्यकता नहीं होती । उदाहरण के लिए अनेक गोलियां कॉपर, पायरीडोक्सीन, रिबोफ्लेविन, विटामिन बी-१२ और फॉलिक एसीड के सम्मिश्रण से बनी हैं । ये सारे सम्मिश्रण किसी आवश्यकता की उपज नहीं है । उदाहरण के लिए कॉपर की कमी तो अत्यंत दुर्लभ है क्योंकि हमारा सामान्य भोजन ही इसकी पूर्ति कर देता है । इस विषय पर 'मंथली इन्डेक्स आफ मेडिकल स्पेशिलिटी' के संपादक सी.एम. गुलाटी का कहना है कि 'इस तरह के गैर जरूरी सम्मिश्रणों पर रोक लगा देनी चाहिए ।'
गरीब देशों में एनीमिया सर्वव्यापी है । एनीमिया जन्म के दौरान होने वाली मृत्यु का एक मुख्य कारण भी है । राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत प्रत्येक गर्भवती महिला को लौह स्थानापन्न (आयरन) की गोलियां उपलब्ध करवाना अनिवार्य है । ऐसे बच्च्े जो रक्ताल्पता से पीडित हैं को भी लौह स्थानापन्न की १०० गोलियां उपलब्ध कराना अनिवार्य है । सन् २००६-०७ के बजट में दवाईयों एवं औषधियों हेतु किए गए २६४.८२ करोड रूपए के प्रावधान में से ४०.८५ करोड रूपए लौह स्थानापन्न हेतु निर्धारित किए गए थे । लौह की कमी से खून में मौजूद लाल रक्त कण (आर.बी.सी.) की गुणवत्ता और संख्या दोनों में गिरावट आती है ।
लाल रक्त कण में मौजूद हीमोग्लोबीन के निर्धारण में लौह की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है । क्योंकि जब यह निम्न स्तर पर चला जाता है तो लाल रक्त कण के ऑक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता पर विपरीत असर पडता है, जिसके परिणाम स्वरूप मनुष्य को थकान महसूस होने लगती है ।
इसका समाधान बताते हुए ड्रग एक्शन फोरम के प्रमुख के अनुसार इस हेतु आवश्यक है कि केन्द्रीय उर्वरक एवं रसायन मंत्रालय सभी दवा निर्माताआें हेतु यह निर्धारित करे कि वे इस प्रकार की सस्ती दवाईयों का निर्माण एक निश्चित मात्रा में अनिवार्य रूप से करें । साथ ही राज्य सरकारों को भी समस्त स्थानीय दवाई विक्रेताआें के लिए यह अनिवार्य घोषित कर देना चाहिए कि वे अपने यहां इन दवाईयों का भंडार अवश्य रखें ।
फोरम ने केन्द्र सरकार को लिखा है कि वह प्रभावशाली ढंग से यह सुनिश्चित करे कि सस्ते लौह विकल्प बाजार में आसानी से उपलब्ध हों । इस संबंध में सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ मीरा शिवा का कहना है कि 'एनीमिया रोकने का सर्वश्रेष्ठ तरीका यह है कि लौह से भरपूर खाद्य सामग्री उपलब्ध करवाने के निश्चित उपाय किये जाएें, वैसे अनाज, फलियों, हरी सब्जियों, गुड, मांस, मछली, अण्डों आदि में भरपूर लौह अवयव विद्यमान होते हैं ।'
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१२ कविता

१२ कविता
प्रार्थना के स्वर
शिवकुमार दीक्षित
अब वहाँ,
कुल जमा चार ही पेड थे
एम नीम, एक पीपल,
एक आम, एक बरगद ।
मैंने पूछा - तुम्हें भनक हैं ?
वे आ रहे हैं,
लपक कर तुम्हारी ही ओर
और चन्द मिनटों में तुम सब भी
नाम शेष रह जाओगे ?
कैसे करोगे उनका मुकाबला ?
भाग जाओगे ?, हल्ला मचाओगे ?
किसी थाने में जाओगे ?
नेताजी की अगुवाई में जुलूस बनाओगे ?
नारे लगाओगे ?,नगर बन्द करवाओगे ?
नीम बोला - नहीं, नहीं,
मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा,
मुझे मत भगाओ,
मैं तो अश्विनी हँू उनका,
अपने लिए नहीं, उन्हीं के लिए जीता हँू,
पल-पल उन्हीं की राह तकता हँू ।
फिर भी वे मुझे न चाहें, न चाहें,
वे स्वतंत्र हैं ।
पीपल बोला - मुझे भी मत उकसाओ,
उनके खिलाफ खडा हो जाने वाला खूनमेरी रंगों में नहीं है ।
मैं भी नीम का समर्थन करता हँू ।
जीवन हँू उनका, उन्हीं के लिए जीता हँू
मरते दम तक हर श्वास,उन्हीं के लिए भरता हँू ।
आम बोला - मुझे भी मत बहकाओ,बसन्त को नोतने जाना,
कोयल की तान सुनाना,मेरा फलना और गदराना,
सब उन्हीं के लिए हैं ।
उनकी राजी में, मेरी भी राजी है ।
बरगद बोला - मुझे भी मत फिसलाओ,
सभी की शोभा धर्म का धुरन्धर,
अक्षय, प्रेम से लबालब ज्ञानी हँू मैं ।
मेरी यह सबल काया,
सभी को लुभाती सघन छाया,
सब उन्हीं की है ।
वे जो भी करेंगे, मुझे मन्जूर है ।
थोडी देर बाद, मर्मान्तक आघातों के बीच,
उनकी समवेत प्रार्थना के अंतिम स्वर सुनाई दिये,
हे परम पिता ! इन्हें क्षमा करना,
ये नहीं जानते, ये क्या कर रहे हैं ।
और हो सके तो, ऐसा कुछ करना,
ऐसा कुछ करना, कि ये बिना अश्विनी,
बिना जीवन, बिना बसन्त, बिना ज्ञान,
और हम सबकी पोषक, त्रिविध ताप की शोषक,
बिना वर्षा के भी जिन्दा रह सके,जिन्दा रह सके !
आमीन !
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१३ ज्ञान विज्ञान

१३ ज्ञान विज्ञान
मिश्रित ऑक्सीजन ही फायदेमंद
आदमी को बचाने के लिए लगाई जाने वाली ऑक्सीजन यदि अति शुद्ध है तो यह मस्तिष्क को नुकसान पहुंचा सकती है । अभी तक ये माना जाता रहा है कि ये शरीर को लाभ पहुंचाती है , लेकिन हाल ही में एक अध्ययन में यह बात सामने आई है ।

यह पहला मौका है , जब यूमसीएलन ब्रेन इमेजिंग अध्ययन में यह जानकारी दी गई । यदि ऑक्सीजन के साथ कुछ मात्रा मे कार्बन डाईऑक्साइड मिलाई जाती है तो वह दिमाग के काम को ठीक से करने देता है । दशकों तक चिकित्सा समुदाय द्वारा १०० प्रतिशत ऑक्सीजन पर जोर दिया जाता रहा है, परंतु किसी ने यह बताने की कोशिश नहीं की कि इसका असर दिमाग के भीतर क्या होता है ।

डेविड गेफन स्कूल ऑफ मेडिसिन ने न्यूरोबॉयलॉजी के प्राध्यापक रोनाल्ड हार्पर ने विस्तार से इसका खुलासा किया है ।
हार्पर की टीम ने फंक्शनल मैग्नेटिक रीसोनेंस इमेजिंग (एफएमआरआई) का उपयोग किया । इससे मस्तिष्क में होने वाली गतिविधियों से विस्तृत चित्र लिये गए । श्वास की सामान्य प्रक्रिया और १०० प्रश ऑक्सीजन देने दोनों के चित्र अलग-अलग थे। इस तकनीकी से यह भी जाना कि यह भी देखने में आया कि रक्त का प्रवाह तेजी से दिमाग में बढ जाता है ।

शोधकर्ताताआें ने १४ हष्ट-पुष्ट बच्च्े लिए । इनकी आयु ८ से १५ वर्ष की थी । जैसे ही मास्क से उन्होंने ऑक्सीजन लेना शुरू की, उनकी श्वास और दिल की धडकन का आकलन किया गया । ८ मिनट बाद इन बच्चों को समान्य सांस लेने दी गई । इसमें ५ प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साईड मिलाई और फिर स्केनिंग की ।
ऐसा था अंतर : दोनों में जब तुलना की गई तो खासा अंतर नजर आया ।जब बच्चों को शुद्ध ऑक्सीजन दी गई तो उनकी संास लेने की गति तेज हो गई । कार्बन डाइऑक्साइड की कमी की वजह से नसें संकरी हो जाती है और यह खतरनाक है, यही ऑक्सीजन को दिमाग और दिल के ऊतक तक पहुँचने नहीं देता है । एमआरआई स्केनिंग में ये आश्चर्यजनक तथ्य सामने आए ।
त्रिफला , अग्नाशय कैंसर से लडने में कारगर
भारतीय चिकित्सा पद्धति के तहत वर्षोंा से महत्वपूर्ण औषधि के रूप में इस्तेमाल होने वाला त्रिफला अग्नाशय (पेनक्रियाज) के कैंसर के इलाज में भी कारगर है । इस तथ्य की पुष्टि हाल ही में एक नए वैज्ञानिक अध्ययन से हुई है। यूनिवर्सिटी ऑफ पिटसबर्ग अमेरिका के कैंसर इंस्टीट़्यूट के वैज्ञानिकों ने भारतीय हर्बल उत्पाद त्रिफला को पैनक्रियाज के ट्यूमर के इलाज में प्रभावी पाया है । वैज्ञानिकों ने यह शोध अभी चूहों पर किया है । लेकिन उन्हें उम्मीद है जल्दी ही मनुष्य की इस बीमारी का इलाज विकसित कर लिया जाएगा ।
हाल में किए गए इस शोध में भी इस बात की पुष्टि हुई है । इस शोध में बताया गया है कि त्रिफला कोशिकाआें में कैंसर रहित गतिविधियों को बढाता है और पेनक्रियाज की सामान्य कोशिकाआें को कोई नुकसाान नहीं पहुंचाता है ।
त्रिफला तीन प्राकृतिक उत्पादों हरड, बहेडा और आंवला का चूर्ण होता है । यह आंत से संबंधित बीमारियों के इलाज में कारगर है और पाचन क्षमता को बढाता है ।आयुर्वेद में त्रिफला का इस्तेमाल पाचन प्रणाली को दुरूस्त करने के लिए होता है । त्रिफला का इस्तेमाल हजारों साल से हो रहा है और चरक एवं सुश्रत संहिता जैसे प्राचीन ग्रंथों में भी इसके गुणों का जिक्र मिलता है । त्रिफला को त्रिदोषिक रसायन माना जाता है ।
त्रिफला कैंसरजन्य कोशिकाआें को खुद ही मरने के लिए प्रेरित करता है और बिना कोई दुष्प्रभाव पैदा किए ही ट्यूमर के आकार को आश्चर्यजनक रूप से कम करता है । विशेषज्ञों को उम्मीद है कि त्रिफला कैंसर के विरूद्ध विश्व व्यापी जंग मेंएक कारगर हथियार बन सकता है।
अब भेडिये का भी क्लोन
भेडियों की कई प्रजातियों के अस्तित्व पर इन दिनों संकट की तलवार लटक रही है । खासकर दक्षिण कोरिया में ये लगभग समाप्त् हो गए हैं । अब इन्हें बचाने के लिए वैज्ञानिकों ने क्लोनिंग की शरण ली है । हाल ही में दक्षिण कोरिया के वैज्ञानिकोंने दो क्लोन मादा भेडिए तैयार किए हैं । ये विश्व के पहले क्लोन भेडिए हैं ।
सियोल नेशनल युनिनर्सिटी के वैज्ञानिकों की एक टीम ने सियोल के एक चिडियाघर में इन भेडियों को प्रस्तुत किया । इनका नाम स्नू वूल्फ व स्नू वूल्फी रखा गया है ।
वैज्ञानिकों के अनुसार इनका जन्म डेढ साल पहले हुआ था, लेकिन सुरक्षा और तकनीकी वजहों से तब यह खुलासा नहंी किया गया था । भेडियों की क्लोनिंग के लिए २५२ भ््रूाणों का विकास किया गया था, जिनमें से दो अंतत: दो क्लोन मादा भेडिए पैदा हुए ।
शोध कार्य करने वाली टीम के मुखिया ली ब्यूंगचन कहते हैं कि कोरियाई भेडियों की क्लोनिंग से इस नस्ल के संरक्षण में मदद मिलेगी । वे बताते हैं कि पिछले २० सालों में कोरिया के प्राकृतिक जंगलों में एक भी भेडिया नहीं देखा जा सका है । केवल सियोल के संरक्षित नेचर पार्क में ही दस भेडियों का एक समूह देखा जा सकता है।
गौरतलब है कि इन्हीं वैज्ञानिकों ने वर्ष २००५ में विश्व के पहले क्लोन कुत्ते (अफगानी जंगली कुत्ता जिसका नाम स्नूपी रखा गया था ) का भी विकास किया था । अपने प्रजनन चक्र की वजह से कुत्तोंका क्लोनिंग सबसे कठिन माना जाता है । इसी के मद्देनजर स्नूपी के विकास को उस समय टाइम पत्रिका ने सबसे चमत्कारी आविष्कार कहा था । गत दिसंबर में प्रख्यात स्टेम सेल रिसर्चर ह्वांग वू सेक की अगुवाई में एक टीम ने तीन और अफगानी जंगली कुत्तों के क्लोन बनाने का दावा किया था । उनके अनुसार उन्होंने क्लोनिंग पद्धत में सुधार किया है।
चांद की कलाएं और भूकम्प
२० दिसम्बर २००४ के दिन हिन्द महासागर में जो भूकम्प आया था, उसका कारण शायद पूण्र्ािमा रही होगी । इस भूकम्प के कारण समुद्र में जो त्सूनामी तरंगे उत्पन्न हुई थीं उन्होंने भयानक विनाश किया था ।
भूकम्प और चंद्रमा की कलाआें के सम्बंध के बारे में उक्त निष्कर्ष नार्थम्टन विश्वविद्यालय के राबि क्रॉकेट और उनके सहयोगियों ने जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित किए हैं । क्रॉकेट व उनके दल में अक्टूबर २००४ और अगस्त २००५ के दरम्यान आया । जावा - सुमात्रा खाडी में पैदा होने वाले भूकम्पों और ज्वार भाटा के आंकडे एकत्रित किए। उन्होंने पाया कि बडे-बडे भूकम्प आने की संभावना पूर्णिमा और अमावस्या के आसपास अन्य दिनों की अपेक्षा ८६ प्रतिशत ज्यादा होती हैं। पूर्णिमा और अमावस्या को ही समुद्र में सबसे ऊँचे ज्वार आते हैं ।
क्रॉकेट का मत है कि पूर्णिमा व अमावस्या के दिन जब ऊँचे - ऊँचे ज्वार आते हैं, तब भारी मात्रा में पानी भूगर्भ की प्लेट्स की सीमाआें से टकराता है । यह प्लेट्स धरती के अंदर उपस्थित तरल पदार्थ पर तैरती रहती है । जहां दो प्लेट्स आपस में मिलती है , उसे प्लेट सीमा कहते हैं । क्रॉकेट की राय में इन सीमाआें पर भारी मात्रा में पानी का हटना या पहुंचना भूकम्प की शुरूआत कर सकता है ।
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१४ कृषि जगत

१४ कृषि जगत
बांझ बीज और हताश किसान
शैलेष कुमार
­तमिलनाडू सरकार ने महिको कम्पनी के बी.टी. कपास के बीजों की बिक्री पर प्रतिबन्ध लगा दिया है । धरमपुरी जिले में इन बीजों से फसल पूरी तरह से बर्बाद होने की शिकायत मिली थी । इसके पूर्व सन् २००४ में खरीफ की फसल खराब होने के बाद आंध्रप्रदेश सरकार ने बी.टी. बीजों की प्रमुख भारतीय निर्माता कम्पनियों को काली सूची में डाला था ।
धरमपुरी के हजारों किसानों ने जिलाधीश से बी.टी. कपास के बीजों के घटिया होने की शिकायत दर्ज की थी । जिलाधीश पंकजकुमार बंसल के अनुसार 'इस जिले के २५०० एकड़ क्षेत्र में बी.टी. कपास के बीज बोने वाले लगभग २००० किसानों को इससे भारी नुकसान उठाना पड़ा है । साथ ही प्रारंभिक जांच से यह स्पष्ट हो रहा है कि इस सबके लिये बीज ही जिम्मेदार है ।'
इस घटना को प्रदेश सरकार ने गंभीरता से लिया और साथ ही जांच का आदेश देते हुए प्रदेश के कृषि मंत्री वीरपण्डी एस. अरूमुगम ने कहा, 'जांच पूरी होने तक महिको के बीज बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है । उन्होंने बीज कंपनी से प्रभावित किसानों को मुआवजा देने को भी कहा ।'
इस प्रतिबंध से अनुवांशिक रूप से संशोधित बीजों की मुखालफत करने वाले खुश हैं । अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण संस्था ग्रीनपीस के अभियानकर्ता राजेश कृष्णन का कहना है कि 'आंध्रप्रदेश के बाद तमिलनाडू में भी बी. टी. बीज नाकारा सिद्ध हुए हैं । लेकिन जैविक अभियांत्रिकी तकनीक की इस विफलता का खामियाजा अन्तत: तो किसानों को ही भुगतना पड़ता है । बीजों के लगातार असफल होने के बावजूद ये कंपनियां लुभावने विज्ञापनों के दम पर अपने बीज बेचने में कामयाब हो जाती हैं ।'
यद्यपि अब तक यह स्पष्ट नहीं है कि घटिया बीज ही धरमपुरी में कपास की फसल बर्बाद होने का कारण हैं । तमिलनाडू के कृषि सचिव सुरजीत चौधरी ने एक उदाहरण देते हुए बताया कि प्रदेश के एक किसान को प्रति एकड़ १५ क्विंटल कपास मिला, बीजों के ६००० रूपये घटाने के बाद उन्हें ५४००० रूपयों का लाभ हुआ । खेती की गलत पद्धति और बीज कंपनी का पर्याप्त् सहयोग न मिलना भी कपास की फसल खराब होने का कारण हो सकता है । कृषि उत्पादकता आयुक्त के पद पर भी आसीन श्री चौधरी ने कहा, 'बीज बेचते समय कंपनी समुचित जानकारी और सहयोग दे या फसल खराब होने पर किसानों को मुआवजे का भुगतान करें ।'
महिको कंपनी ने भी धरमपुरी में फसल खराब होने की बात स्वीकार की है लेकिन इस संबंध में उसने अपने बीजों को इसका कारण मानने से साफ इंकार भी किया है । महिको के उप-महाप्रबंधक संजय देशपाण्डे ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा, 'पौधों में मुरझाने की समस्या नजर आई है, किन्तु यह हमारे बीजों के कारण नहीं हुआ है । बीज के हर पैकेट पर हमने लिखित सूचनाएं दी थीं । मुआवजे के लिए सरकार ने समिति गठित कर दी और जल्द ही हम इस पर निर्णय ले लेंगे ।'
इसके पूर्व सन् २००६ में मोंसेन्टो की सहायक कंपनी महिको मोंसेन्टो बायोटेक इंडिया लि. ने बीजों के १८०० रूपये लाभकारी मूल्य वाले ४५० ग्राम के पैकेट पर १२५० रूपये का 'गुण मूल्य' (ट्रेट वेल्यू एक प्रकार की रॉयल्टी) भी लगाया था । जबकि आंध्रप्रदेश सरकार ने ४५० ग्राम के पैकेट का मूल्य ७५० रूपये निर्धारित किया था । मोंसेन्टो द्वारा इसे अस्वीकार करने पर जनवरी २००६ में आंध्रप्रदेश सरकार यह मामला एकाधिकार एवं प्रतिबंधित व्यापार आयोग के पास ले गयी । १० मई २००६ को अंतरिम आदेश देते हुए इस आयोग ने मोंसेन्टो को लाक्षणिक मूल्य घटाने के लिये कहा । इस पर कंपनी सर्वोच्च् न्यायालय में चली गई है ।
इस आयोग ने अंतिम सुनावाई की तारीख २९ जनवरी २००७ तय की थी । इसके बाद सर्वोच्च् न्यायालय में होने वाली सुनवाई के लिये तमिलनाडू सरकार नीति-निर्धारण करने वाली थी । मगर इसके साथ ही आंध्रप्रदेश में बी. टी. कपास के बीजों के मामले में अदालत से बाहर समझौता करने की कोशिशें भी चल रही हैं । प्रदेश में बिक्री करने वाली कुछ भारतीय कंपनियों ने सरकार का फैसला स्वीकार करने का संकेत देते हुए अदालत के बाहर समझौता करने पर जोर दिया है । आंध्रप्रदेश के कृषि मंत्री एन. रघुवीर रेड्डी ने बताया कि, 'किसानों के हित में हम अदालत से बाहर समझौता करने को तैयार हैं । अन्य प्रदेशों की सरकार ने भी अदालत में याचिका दायर की है परन्तु शायद वो भी अदालत के बाहर समझौते के लिए तैयार हो जाएं ।'
अनेक सामाजिक कार्यकर्ता इस बात से नाराज हैं कि जिस कंपनी के बीजों की वजह से किसान बर्बाद होकर आत्महत्या करने को मजबूर हुए हैं सरकार उन्हें मुआवजा दिलाने के बजाय उसी कंपनी के साथ अदालत से बाहर समझौता करने को तैयार है जबकि ज्यादातर लोेगों का कहना है कि न्यायिक प्रक्रिया जारी रहना चाहिए ।
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१५ पर्यावरण समाचार

१५ पर्यावरण समाचार
म.प्र. में बाघ संरक्षण की योजना बनेगी
टाइगर स्टेट म.प्र. में बाघों की कमी बताने वाला आंकड़ा सामने आते ही वन विभाग ने डेमेज कंट्रोल के प्रयास शुरू कर दिए हैं । अब प्रदेश में टाइगर कंजर्वेशन प्लान तैयार करने और वनग्रामों को हटाने के लिए आकर्षक पैकेज बनाने की तैयारी शुरू हो गई है ।
गौरतलब होगा कि वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट देहरादून ने वन्य प्राणियों की गणना रिपोर्ट जारी करते हुए म.प्र. में बाघों के रहवास के संंबंध में एक रिपोर्ट जारी की है । इस मौके पर वन विभाग के तमाम वरिष्ठ अधिकारी मौजूद थे । इस रिपोर्ट का प्रस्तुतिकरण पिछले दिनों प्रधान मुख्य वन संरक्षक पीबी गंगोपाध्याय ने वनमंत्री हिम्मत कोठारी के समक्ष किया ।
इस रिपोर्ट में मप्र में बाघों के घटते रहवास स्थल तथ वनों पर जैविक दबाव पर चिंता जारिह की गई है । इधर वनमंत्री श्री कोठारी ने इस सबके मद्देनजर बाघ संरक्षण की नई योजना बनाने के निर्देश दिए हैं, वहीं राष्ट्रीय उद्यानों को जोड़ने के लिए कॉरिडोर क्षेत्र के वनों की स्थिति में सुधार के निर्देश दिए है ं ।
इसके अलावा ऐसे सभी गांव भी चिहि्न्त किए जाएँगें, जिनकी दशा ठीक नहंी है । यहां सरकारी योजना से जीवनस्तर सुधारने के तमाम प्रयास शुरू किए जाएँगें। संरक्षित वन क्षेत्रों से वनग्रामों को विस्थापित करने के लिए आकर्ष पैकेज भी किया जाएगा ।
इसके लिए केंद्र सरकार को योजना भेजकर मदद मांगी जाएगी । उल्लेखनीय होगा कि हाल की गणना रिपोर्ट में बाघों की संख्या सिर्फ २६५ बताई गई है और टाइगर स्टेट कहलाने वाले म.प्र. के लिए यह गहरा झटका है ।
मिजोरम का तापमान बढ़ रहा है
पिछले पंद्रह वर्ष से ग्लोबल वार्मिंग की मार झेल रहे मिजोरम का मनमोहक प्राकृतिक वातावरण जल्द ही अतीत बन सकता है ।
राज्य के पर्यावरण और वनमंत्री आर. लालथंगिलाना ने अधिकारिक रिकार्डोंा का हवाला देते हुए बताया कि १५ वर्ष में मिजोरम में तापमान में औसतन २.७५ डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है जबकि विश्व में औसतन ०.६ से २.५ डिग्री सेल्सियस तक ही तापमान में बढ़ोतरी हुई है ।
श्री लालथंगिलाना ने पिछले दिनों विश्व पर्यावरण दिवस पर आयोजित समारोह को संबोधित करते हुए कहा कि राज्य में औसत तापमान २३.८८ डिग्री सेल्सियस रहता था । हालांकि २००० में यह २५.६४ डिग्री और २००५ में २६.६३ डिग्री सेल्सियस पहुँच गया ।
नेपाल में कई नई प्रजातियाँ मिलीं
नेपाल में पक्षियों की २०, स्तनधारियों की ४ तथा फूलदार पौधों की ७०० से ज्यादा नई प्रजातियों का पता चला है ।
पक्षियों की नई प्रजातियों में मूँछों वाली पुदकी, वृहद श्वेत अग्रभाग वाला हंस, चितकबरी तूती, पलास बंटिंग, लाल कंठ वाली मुर्गाबी, काला पीला ग्रोस्बीक और झब्बेदार पूंछ वाला व्हीदियर शामिल है । स्तनधारियों की प्रजातियों में भालू, विडाल , भारतीय नेवला, हिमालयी शैलमूषक और तिब्बती चिंकारा शामिल है । देश में संरक्षित वन क्षेत्र में पिछले एक दशक में करीब ९००० वर्ग किलोमीटर की वृद़्धि हुई है ।
नेपाल में २९ प्रतिशत भू-भाग संरक्षित वन क्षेत्र है । नेपाल में नौ राष्ट्रीय उद्यान , तीन वन्य जीव अभ्यारण्य, तीन संरक्षण क्षेत्र तथा एक शिकार क्षेत्र है । नेपाल में बर्फ से ढँकी हिमालय की चोटियों से लेकर तराई के मैदानी भाग तक लगभग सभी तरह की जलवायु पाई जाती है । देश में अब तक ८५० से भी अधिक पक्षियों की प्रजातियों की पहचान की जा चुकी है । यह खोज वैज्ञानिकों के लिए विशेष महत्व रखती है ।
कीटनाशकों से मस्तिष्क कैंसर का खतरा
कीडों- मकोड़ों से बचने के लिए खेतों और घर के बगीचे में डाले जाने वाले कीटनाशक फसल और पेड़- पौधों की रक्षा तो करते हैं, लेकिन इनसे मस्तिष्क कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी भी हो सकती है । हाल ही में किए गए एक अध्ययन की रिपोर्ट में यह सनसनीखेज खुलासा हुआ है । शोधकर्ताआें ने पाया कि खेतों में काम करने वाले या किसी न किसी रूप में कीटनाशकों के संपर्क में आए व्यक्तियों में मस्तिष्क कैंसर की संभावना अधिक पाई जाती है ।
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शनिवार, 23 जून 2007




बुधवार, 20 जून 2007