बुधवार, 21 मई 2008

२ सामयिक

अब क्यों नहीं बौराता वसन्त ?

डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल

यजुर्वेद (१३/२५) में चैत्र और वैशाख के दो माह को वसन्त बतलाया गया है । इन दोनों महीनों को क्रमश: मधुमास और माधववास भी कहा है - `मधुश्च माधवश्च वासन्तिकावृत ।' किन्तु सृष्टि की प्रकृति में वसंत अपनी निर्धारित तिथि से ४० दिन पूर्व ही आ जाता है तभी तो यह ऋृतुराज कहलाता है । धरा धाम पर वसन्तागमन चैत्र कृष्ण प्रथमा के स्थान पर माघ शुक्ल पंचमी को ही हो जाता है । जिसे वसन्त पंचमी कहा जाता है । इस दिन वाग्देवी सरस्वती का विधिवत पूजन होता है । यजुर्वेद (१३/२७-२९) में यह भी कहा गया है कि वसन्त ऋतु में मधुर वायु ऐसे प्रवाहित होती है जैसे जल की धारा रूप सलिलाएं कोमल कांत गति से धरती पर मचलती हुई समुद्र की ओर चलती है । औषधियाँ वनस्पतियाँ, दिन और रात, सूर्य एवं द्युलोक सभी सुखकारक होते हैं । कहने का भाव यह है कि वसन्त हमारी वैदिक परम्परा से जुड़ा हुआ उत्सव है जिसमें जीवन स्पंदन का उत्स है (उत् =ऊपर की ओर, सव = बहना) वसन्त केवल एक बदली हुई ऋतु का नाम नहीं है । वह कंपकंपाती सर्दी के बाद केवल गुनगुनी धूप का ही मौसम नहीं है वरन् पल्लव हीन पेड़ों पर कोमल पत्तियों का, खिलते-मुस्कराते और अंगड़ाई भरते फूलों का, आम के पेड़ों पर बौरों के लगने का, मदमाती मस्त हवाआें के बहने का और कोयल के कूकने का मौसम है । जाड़े की जड़ता भरी ठिठुरन के खात्मे के बाद प्रकृति स्वयं सजती-सवरती है । इसीलिए तो अपनी यांत्रिक जिन्दगी जीते हुए भी हम वसन्त का स्वागत उत्सुकता से करना चाहते हैं । वसन्त की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए भगवान श्री कृष्ण ने गीता में स्वयं कहा है - ``मासानां मार्ग शीर्षो%स्मि ऋृतूनां कुसुमाकर:'' (गीता १०/३५) अर्थात ऋृतुआें में मैं श्रेष्ठ कुसुमाकर अर्थात् वसन्त हँू । ऋृतवद्ध रूपमती षडऋतु दर्शना प्रकृति में पर्वोत्सव परम्पराएं है हमारे सभी क्रियाकलाप ऋृतुचक्र पर आधारित हैं । यूं तो सभी ऋतुआें का अपना विशिष्ट एवं चिरंतन महत्व है किन्तु वसन्त ऋृतु के आते ही पेड़-पौधे सुवासित फूलों से लद जाते हैं, सरोवर कमल दलों से सज जाते हैं । रमणियाँ प्रेम में पग जाती हैं, वायु सुगन्धित हो जाती है । संध्या काल सुहाता और लुभाता है । प्रकृति का जर्रा-जर्रा सुन्दरता से भर जाता है । महाकवि कालिदास ने लिखा है - ``दु्रमा: सपुष्पा: सलिलं सपदमंस्त्रिय: सकामा: पवन: सुगन्धि: । सुखा: प्रदोषा दिवसाश्च रम्या: सर्व प्रिये चारूतरं वसन्ते ।।''(ऋतुसंहार ६/२) महाकवि ने प्रकृति के प्रति अपने अनुराग तथा ऋृतु फाग को व्यक्त करते हुए लिखा है कि प्रदीप्त् अग्नि के समान वर्ण वाली, वायु द्वारा हिलाये जाते हुए, किंशुक फूलों से लदे हुए पेड़ों से सजी धरती ऐसे लगती है जैसे लाल चुनरिया ओढ़ें हुए कोई नई नवेली दुल्हन हो - `आदीप्त्वहि्वसहशैर्मरूतावधूतै: सर्वत्र किंशुकवनै: कुसुमावनम्रै: । सद्यो वसन्तसमये हि समाचितेयं रक्तांशुका नवधूरिव भाति भूमि ।।'' (ऋतुसंहार ६/१९) वसन्त ने सदैव मेरे भी अर्न्तमन को आह्लादित किया है । अपने द्वितीय प्रकाशित काव्य संकलन `वृक्षमित्र' (रूचिका कृति प्रकाशन, कोलकाता) में मैंने भी आत्मानुभूति तथा प्रकृति प्रणय के भाव को सहजता से व्यक्त करने का प्रयास किया है -
यौवन वसन्त के आते ही दुल्हन सी सजती हरियाली। बँधती प्रगाढ़ आलिंगन में कौमार्य लुटाती हर डाली ।
विविध रूप-रस-गंध पुष्प सजते उपवन सोपान भंवरे कीट पतंगे खिंच करते मधुरस पान ।
पहुँचाते पराग वर्तिकाग्र पर तब ही करते विश्राम । प्रकृति की नैसर्गिक यह परागण क्रिया महान ।
नर पराग नलिका करती मादा अण्डाशय का भंजन। होता तब नर मादा युग्मक का मधुर मिलन ।
कहलाती यह क्रिया निषेचन फल बंदित आवरण मंडित बीजो का होता सृजन ।
ऐसा है सृजनशील हमारा पर्यावरण । किन्तु अब तो चारों तरफ से प्रकृति एवं पर्यावरण पर खतरा मंडरा रहा है । ग्लोबल कल्चर डेवलप हुआ है तो वसन्त की परवाह भी किसे है । मौसम के नैसर्गिक परिवर्तन की सराहना करने वाले दुर्लभ होते जा रहे है क्योंकि हम स्वयं को ही प्रकृति से दूर पा रहे हैं किन्तु पर्यावरण के लिए अत्यधिक घातक है हमारा प्रकृति विमोह । जिस बनावटी संस्कृति में हम जी रहे हैं उसमें मौसम की मिजाजपुर्सी करने का वक्त कहाँ ? क्योंकि प्रकृति पर अपनी निर्भरता को हम पहले जैसा नहीं पा रहे हैं । हम अप्राकृतिक होते जा रहे हैं। वातानुकूलित घर, और ऑफिस हमें फूलों और उनकी खुशबुआें से दूर किये रहते हैं । हम तो धनांधता में ही मदहोश रहते हैं । हमारे पास गरमी सर्दी और बरसात का सुखद एहसास फटकने भी नहीं पाता है । किन्तु यह कथाकथित सुविधा भोगी सम्पन्नत भी तो सबको समान रूप से सुलभ नहीं है । क्या है इस भोगवाद का सच ? यह विचारणीय प्रश्न है । दरअसल इसी बढ़ते भोगवाद की भावना हमको प्रकृति से दूर करती हैं ,हमें वसंत के उल्लास से महरूम करती हैं । वसन्त आता है और चला जाता है किन्तु हम उसका कदाचित अनुभव भी नहीं कर पाते हैं । गरीब तो गरीब है ही किन्तु गर हम मालदार भी हैं तो सुरम्यता से वंचित हम भी गरीब रह जाते हैं । हम बनावटी जिन्दगी जीते हैं इसीलिए गरमी के बाद सर्दी और सर्दी के बाद गर्मी के सुखद एहसास से वंचित है । मौसम की हमें परवाह नहीं है इसलिए अब मौसम भी हमें नहीं हुलसाता है और बिना बौराये ही वसन्त बीत जाता है । माना तो यह जाता है कि वसन्त ऋतु वाह्यांतर रूप से हमको तेजस्वी बनाती है । अग्नि को प्रदीप्त् करती है और ओज को बढ़ाती है । ऋतु का प्रभाव वनस्पतियों एवं जीव-जन्तुआें पर भी पड़ता है । जीवन में नव-उमंग और उल्लास बढ़ता है । अपने खेतों में लहलहाती फसल देखकर हम आनंदित होते हैं और राग रंग फाग की मस्ती में डूब कर वसन्तोत्सव मनाते हैं । किन्तु अब वसन्त भी पहले की तरह खुशियाँ मनाने का अवसर नहीं रहा । किसान आत्महत्या कर रहे हैं । अन्नदाता ही भूखे मर रहे हैं । कृषि अब घाटे का सौदा हो गया है । आदमी उपभोक्तावाद में खो गया है । कोई भी शख्स अब प्रकृति के पास नहीं जाता है । कोई भी अन्तर्गत से मदनोत्सव नहीं मनाता है । एक निरंकुश तनाव में जी रहा है आदमी। जाहिर है अभाव और तनाव में उत्सव धर्मी नहीं रहा जा सकता है किन्तु वसन्त में इतना इतना उल्लास भरा होता है कि वह छिपाये भी नहीं छिप पाता है, प्रकट हो ही जाता है किन्तु फिर भी आई किंचित भी कमी को रेखांकित करना हमारा धर्म है । क्या हमने यह जानने की कोशिश की कि अब क्यों नहीं बौराता वसन्त ? अब क्यों नहीं सुरभित बयार बहती है । चिड़ियाँ चहचहा कर हमसे कुछ क्यों नहीं कहती है । अब खेत-खलिहानों एवं बाग-बगानों के बीच पगडंडियों से गुजरते हुए फूलों की सुगंध का वह सुखद एहसास क्यों नहीं होता है जो पहले होता था । दरअसल परिवेशगत प्रदूषण ने अपनी कुत्साआें के इतने अधिक अवरोध खड़े किये है कि सुगंध को दुर्गन्ध ने कैद कर लिया है । औद्योगिक इकाइयों से निकलता हुआ दुर्गन्ध युक्त वाहित जल और धुआँ उगलति चिमनिया हमारे वातावरण को गंदा करती है । हमने स्वयं अपनी जिन्दगी को नर्क बना डाला है । प्रदूषण से समस्त जीवोें का जीवन प्रभावित हो रहा है । तथा जीवनकाल भी क्षर रहा है । फूलों मंे वह गंध नहीं, मकरंद नहीं स्वाद नही तथा पोषण भी नही है । क्यों कि हमने प्राकृतिक निधि को समाप्त् कर डाला है । प्रकृति बड़ी ही भावनात्मक एंव संवेदनशील होती है । आधुनिक शोधों से ज्ञात हुआ है कि अब फूलों की खुशबु दूर तलक नहीं जाती है । वर्जीनिया विश्वविद्यालय के शोध के अनुसार जिन फूलों की गंध १००० मीटर से १२०० मीटर तक जाती थी, अब वह केवल २०० से ३०० मीटर दूर तक ही विस्तारित हो पाती है । गंध की तीव्रता भी घटी है। जिससे भंवरे कीट आदि आकर्षित होकर उन तक नही पहुँचने जिससे परागण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । फूल फल ही नही अनाजों की पैदावार भी अप्रत्याशित रुप से घटी है । कीटनाशको ने न केवल गंध चुराई है वरन लाभ दायक कीटों के जीवन से भी खिलवाड़ किया है । इसीलिए तो वसन्त नहीं बौराता है । मौसम भी स्वयं को असहाय पाता है । प्रकृति क्या थी और हमने क्या से क्या कर डाला है? अब भी वक्त है कि हम संभल जायें ताकि वसन्त बौराये और हम भी मीठे फल बोयें, जिससे समाज के सभी व्यक्तियों को प्रकृति के उपहार का आनंद मिल सके ।***

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