गोरेपन का गोरख धंधा
डॉ. अरविंद गुप्त्े
लंदन के हैमरस्मिथ अस्पताल में गंभीर रुप से बीमार एक अश्वेत महिला का विवरण पिछले दिनों प्रकाशित हुआ था । किसी का गंभीर रुप से बीमार होना अपने आप में समाचार नहीं बनता, किन्तु इस महिला की बीमारी विशेष प्रकार की थी । उसकी त्वचा पर गहरे और हल्के रंग के चकत्ते उभर आए थे वह बहुत अधिक मोटापे से ग्रस्त हो गई थी और मासिक धर्म नियमित होने के बावजूद वह गर्भ धारण नहीं कर पा रही थी । पहले तो डॉक्टरों को शक हुआ कि ये लक्षण एड्रीनल ग्रंथि या पिट्यूटरी ग्रंथि की किसी बीमारी के कारण दिखाई दे रहे है । मगर परीक्षणों से पता चला कि उसकी इन ग्रंथियो में कोई खराबी नही थी काफी पुछताछ के बाद उस महिला ने बताया कि वह पिछले सात वर्षो से गोरेपन की एक क्रीम का बहुत अधिक इस्तेमाल कर रही थी । एक सप्तह में दो ट्यूब (६० ग्राम) क्रीम वह अपने पूरे शरीर पर मलती थी । इस क्रीम में क्लोबेटसॉल नामक एक कॉर्टिकोस्ट्ररॉअड था । इसका उपयोेग आम तौर पर एक्ज़िमा ओर सोरिएसिस नामक त्वचा की बीमारियों के उपचार में किया जाता है । हैमरस्मिथ अस्पताल के चिकित्सकोंने इस केस की जानकारी ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित की और डॉक्टरों से आग्रह किया कि ये गोरेपन की दवाईयों के खतरों के प्रति सचेत रहें। केवल इंग्लैण्ड में ही इन दवाइयों का व्यापार करोड़ों पाउंड का है । इस प्रकार की कई क्रीमों में पारा हाईड्रोक्निोन और स्टेरॉइड जैसे विषैले पदार्थ होते है, किन्तु आम जनता इन खतरोंसे अनभिज्ञ होती है। त्वचा के रंग को हल्का करने की दवाइयों के उपयोग की सलाह स्वयं डॉक्टरो द्वारा उन मरीजों को दो जाती है जिनकी त्वचा पर किन्ही कारणें से काले रंग के चकत्ते या दाग उभर आते हैं । एशिया, अफ्रीका और मध्य पूर्व के कई देशोंमें गोरेपन को सुंदरता का पर्याय मान लिया गया है । इन देशों में गोरेपन की दवाईयों की बिक्री धड़ल्ले से होती है । इन दवाइयों का प्रचार-प्रसार करते समय कई बार सामाजिक मूल्यों और सत्य की बलि भी चढ़ा दी जाती है । इस प्रकार के दुष्प्रचार का एक ज्वलंत उदाहरण कुछ समय पहले तक भारत में दिखाए जा रहे एक टीवी विज्ञापन का है । इसमेें यह दिखाया गया था कि सांवले रंग की एक लड़की साधारण नौकरी के चलते अपने बूढ़े बाप को कॉफी नहीं पिला पाती है और उसका बाप अपनी पत्नी से कहता है कि काश हमारे एक बेटा होता तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता । बेटी अपने बाप की यह बात सुन लेती है । और उदास हो जाती है । तभी उनके कान में एक फुसफसाहट होती है (शायद भगवान इसी तरह लोगों को सलाह देते होंगे) कि तू फलानी क्रीम लगा कर गोरी बन जाएगी तो तेरे सारे दुख दूर हो जाएेंगे । लड़की तुरंत इस सलाह पर अमल करती है और आनन-फानन में गोरी हो जाती है । उसे बढ़िया नौकरी मिल जाती है और बाप को पीने के लिए कॉफी । देखिए, इस विज्ञापन के माध्यम से कौन-कौन से संदेश दिए जा रहे हैं। सबसे पहला यह कि यदि आपका रंग गोरा नहीं है तो आपको अच्छी नौकरी नहीं मिल सकती । दूसरे शब्दों में, आप सामाजिक दृष्टि से निचले दर्जे के व्यक्ति हैं । दूसरे, आप यदि गोरेपन की इस क्रीम को अपने चेहरे पर पोतेंगे तो आप कुछ ही दिनों में इतने गोरे हो जाएंगे कि आपको अच्छी नौकरी मिल जाएगी । तीसरे, बेटी की तुलना में बेटा माता-पिता की अधिक अच्छी देखभाल कर सकता है (चाहे वह कमाऊ हो या न हो), और अंत में माता-पिता अपनी संतान का मूल्यांकन इस आधार पर करते हैं कि वह उनकी छोटी-छोटी ख्वाहिशें पूरी कर सकती है या नहीं। इस संदर्भ में क्रीम निर्माता के प्रतिनिधि ने सफाई दी थी कि ``इस विज्ञापन का उद्देश्य यह दिखाना कतई नहीं था कि गोरापन सुंदरता का प्रतीक है । यह तो व्यक्ति के शिक्षा के स्तर और सामाजिक पृष्ठभूमि पर निर्भर है कि वह विज्ञापन का क्या मतलब निकालता है ।'' निर्माता का यह भी दावा है कि ``नब्बे प्रतिशत भारतीय महिलाएं गोरापन चाहती हैं और इसलिए गोरेपन की क्रीम से उनकी एक आकांक्षा पूरी होती है और उन्हें समाज में अधिक ऊंचा स्थान मिलता है ।'' मलेशिया में टीवी पर गोरेपन की क्रीम के एक विज्ञापन में यह दिखाया जाता था कि एक छात्र अपने साथ पढ़ने वाली आकर्षक किन्तु सांवले रंग की छात्रा के बारे में यह कहता है, ``वह दिखने में सुंदर तो है, लेकिन ...'' । जब वही छात्रा गोरेपन की क्रीम लगाकर गोरी हो जाती है । तब वह कहता है, ``मेरा ध्यान उसकी ओर क्यों नहीं गया ?'' कुछ निर्माताआें ने हाल में एक नया शगूफा छोड़ा है । उनका दावा है कि लड़कियों वाली गोरेपन की क्रीम लगाना मर्दोंा की शान के खिलाफ है । अत: उन्होंने मर्दोंा के लिए गोरेपन की अलग क्रीम बाजार में उतार दी है । ये दवाइयां किस प्रकार काम करती हैं यह जानने से पता चल जाएगा कि क्या महिलाआें और पुरूषों के लिए अलग-अलग क्रीम हो सकती है । मनुष्य की त्वचा की ऊपरी परतो में मेलानोसाइट नामक कोशिकाएं होती हैं । इन कोशिकाआें में मेलानोसोम नामक कण पाए जाते हैं जिनमें मेलानीन नामक काले रंग का पदार्थ भरा होता है । मेलानोसोम नामक काले रंग का पदार्थ भरा होता है। मेलानीन का काम है धूप में मौजूद घातक पराबैंगनी किरणों से शरीर की रक्षा करना । स्वाभाविक है कि संसार के जिन भागों में धूप अधिक तेज होती है वहां रहने वालों की त्वचा में अधिक मेलानीन पाया जाता है । इसके विपरीत, ठंडेे प्रदेशों में रहने वाले लोगों को कम मेलानीन की आवश्यकता होती है और उनका रंग गोरा होता है । शरीर में पाए जाने वाले टायरोसिन नामक अमीनो अम्ल को मेलानीन में बदलने का काम टायरोसिनेज नामक एन्जाइम करता है । गोरेपन की दवाइयों में पाए जाने वाले तत्व केवल मेलानोसोम्स को नष्ट ही नहीं करते, वे टायरोसिनेज की क्रिया को भी रोकते हैं । यानी मेलानीन के निर्माण की प्रक्रिया में अड़ंगा डालते हैं । किन्तु यह शरीर के लिए हानिकारक हो सकता है । यदि मेलानीन नष्ट होता है तो सूर्य से निकलने वाली पराबैंगनी किरणे शरीर को हानि पहुंचा सकती हैं और इनमें त्वचा कैंसर का खतरा बढ़ जाता है । यह सोचने की बात है कि क्या महिलाआें और पुरूषों मेंं मेलानीन निर्माण की प्रक्रिया अलग-अलग हो सकती है? आइए, अब देखें कि गोरेपन की दवाइयों में कौन से रसायन होते हैं । कई दवाईयों में मात्र सनस्क्रीनयानी वे रसायन होते हैं जो त्वचा को धूप से बचाते हैं । ये रसायन हानिरहित होते हैं । किन्तु कई दवाईयों में ऐसे रसायन होते हैं जो निश्चित रूप से हानिकारक होते हैं । गोरेपन की कुछ दवाइयों में मुलेठी के रस का उपयोग किया जाता है । संवेदनशील त्वचा के लिए यह सबसे अच्छा विकल्प है । किन्तु परिणाम उतने अच्छे नहीं होते जितने हानिकारक दवाआें के होते हैं। विटामिन सी यानी एस्कार्बिक एसिड को क्रीम या पावडर के रूप में त्वचा पर लगाने पर यह मेलानीन के निर्माण को रोकता है । आर्बुटिन कुछ विशेष प्रकार के फलों में पाया जाने वाला प्राकृतिक पदार्थ है । यह मेलानीन के निर्माण को रोकता है । अल्फा हाइड्रॉक्सी अम्ल ऐसे रसायनों का समूह है जो मेलानीन के निर्माण को रोकते हैं । ये बीमार और बदरंग मेलानोसाट कोशिकाआें को हटाते हैं । त्वचा रोग विशेषज्ञ इनका उपयोग त्वचा के धब्बे और कील-मुंहासे हटाने के लिए करते हैं। इनका उपयोग प्रशिक्षित डॉक्टरों की देखरेख में करना ही सुरक्षित होता है । सूखी और संवेदनशील त्वचा पर इन्हें लगाना हानिकारक हो सकता है । कोजिल अम्ल के प्रयोग से त्वचा का रंग हल्का होता है, किन्तु इसकी सुरक्षितता को लेकर सवाल उठते रहते हैं । जापान में चावल से साकी नामक शराब बनाई जाती है । इस प्रक्रिया में कोजिल अम्ल एक बाय-प्रोजेक्ट के रूप में बनता है । हाइड्रोक्विनोन, गोरेपन की दवाइयों में पाया वाला एक अत्याधिक हानिकारक रसायन है । कई देशो ने गोरेपन की ऐसी दवाइयों पर प्रतिबंध लगा दिया है जिनमें हाइड्रोक्विनोन और पारे का उपयोग किया जाता है । चूहों पर किए गए प्रयोगों से ऐसे संकेत मिले हैं कि हाइड्रोक्विनोन त्वचा का कैंसर पैदा कर सकता है, यद्यपि मनुष्य में इस प्रकार के प्रभाव की पुष्टि नही हुई है । अलबत्ता, यह साबित हो चुका है कि हाइड्रोक्विनोन के उपयोग से ओक्रोनोसिस नामक रोग हो जाता है जिसमें त्वचा पर काले और मोटे चकत्ते बन जाते हैं । डॉक्टरों को यह भी शक है कि हाइड्रोक्विनोन से लिवर और थायरॉयड ग्रंथि पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । साथ ही, यह गर्भ में पल रहे और मां का दूध पी रहे बच्च्े के लिए भी हानिकारक है । शरीर में अधिक मात्रा में हाइड्रोक्विनोन प्रवेश करने पर मितली, सांस में रूकावट और सन्निपात जैसे लक्षण उभर सकते हैंै । इस लेख के आरंभ में एक महिला रोगी का विवरण दिया गया है जिसने स्टेरॉइड युक्त गोरेपन की क्रीम का उपयोग किया था । हालांकि स्टेरॉइड कुछ चर्म रोगों के इलाज में काफी फायदेमंद हैं, किन्तु इनके अत्यधिक उपयोग से कैंसर का खतरा हो सकता है । आजकल भारत में महिलाआें में, खासकर युवतियों में, बिना डॉक्टर की सलाह के स्टेरॉइड युक्त क्रीमों के उपयोग का चलन बढ़ता जा रहा है । साधारण कील-मुंहासों के लिए भी ऐसी दवाइयां अनियंत्रित मात्रा में प्रयोग की जाती है । लंबे समय तक इनका उपयोग बहुत खतरनाक हो सकता है । गोरेपन की दवाइयों में पाया जाने वाला सबसे खतरनाक रसायन पारा है । संसार के अधिकांश देश गोरेपन की पारायुक्त दवाइयों पर प्रतिबंध लगा चुके हैं, किन्तु इनका चोरी-छिपे निर्माण और बिक्री बड़े पैमाने पर हो रहे हैं । पारा एक ऐसा घातक विष है जो तंत्रिका तंत्र को सीधे प्रभावित करता है । इसके कारण किडनी खराब हो जाने, सुनने व बोलने पर विपरीत प्रभाव पड़ने और पागलपन के दौरे पड़ने का खतरा होता है । भारत जैसे विकासशील देशों में जागरूकता के अभाव और भ्रष्टाचार के कारण किसी भी प्रकार की हानिकारक दवा पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाना लगभग असंभव होता है । यद्यपि दवाइयों पर उनमें शामिल अवयवों की जानकारी देना अनिवार्य है, किन्तु संभव है कि कई उत्पादक गोरेपन की दवाइयों के हानिकारक अवयवों की जानकारी छुपा लेते हैं । सबसे अच्छा उपाय यही है कि लोग जागरूक हो जाएं और विज्ञापनों के मायाजाल में उलझ कर अपने स्वास्थ्य को खतरे में न डालें । हमारे देश के अधिकांश भागों में लगभग पूरे वर्ष धूप उपलब्ध होती है । यह एक बड़ा वरदान हैं । धूप से बचाव के लिए अधिकांश भारतीयों को प्रकृति ने मेलानीन का कवच प्रदान किया है । यह प्राकृतिक सांवलापन कोई अभिशाप या लज्जा की बात नहीं है । दरअसल, कृत्रिम उपायों से मेलानीन को नष्ट करके गोरेपन का दिखावा करना एक भयंकर भूल है । विकासशील देशों पर लंबे समय तक गोरे लोगों का कब्जा रहा है । शायद इसीलिए इन देशों के निवासियों में यह भावना घर कर गई है कि गोरे लोग भूरे और काले रंग के लोगों से श्रेष्ठ होते हैं। किन्तु पिछले वर्षो में विकासशील देशों, विशेष रूप से एशियाई देशों, ने सभी क्षेत्रों में जिस प्रकार उन्नति की है उसने गोरी नस्ल के बेहतर होने का तिरस्कार करने का हमारे लिए कोई कारण ही नहीं है; आवश्यकता है अपनी मानसिकता को बदलने की । यदि गोरेपन की दवा का उपयोग करने के अलावा कोई चारा न हो तो बिना प्रशिक्षित डॉक्टर की सलाह से दवा न खरीदें ।***
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