बुधवार, 21 मई 2008

१० ज्ञान विज्ञान

वैज्ञानिकों ने खोजा `सबसे बूढ़ा पेड़'
'स्वीडन में करीब दस हजार साल पुराना देवदार का एक पेड़ मिला है जिसके बारे में वैज्ञानिकों का कहना है कि यह दुनिया का सबसे बुजुर्ग पेड़ है । कार्बन डेटिंग पद्धति से गणना के बाद वैज्ञानिकों ने इसे धरती का सबसे पुराना पेड़ कहा है । यूमेआ यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों को दलारना प्रांत की फुलु पहाड़ियों में यह पेड़ वर्ष २००४ में मिला था । उस समय वैज्ञानिक पेड़-पौधों की प्रजातियों की गिनती में लगे हुए थे । फ्लोरिडा के मियामी की एक प्रयोगशाला में कुछ दिनों पहले ही कार्बन डेटिंग पद्धति की मदद से इस पेड़ के आनुवांशिक तत्वों का अध्ययन किया गया है । वैज्ञानिक इससे पहले तक उत्तरी अमेरिका में मिले चार हजार साल पुराने देवदार के ही एक पेड़ को दुनिया का सबसे पुराना पेड़ मानते थे । गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्डस के मुताबिक अभी तक का सबसे पुराना पेड़ कैलिफोर्निया की सफेद पहाड़ियों में है जिसकी उम्र ४,७६८ साल आँकी गई है। माना जा रहा है कि वर्ल्ड रिकॉर्ड अपने नाम करने का दावेदार यह पेड़ हिमयुग के तुरंत बाद का है । फुलु की पहाड़ियों में ९१० मीटर की ऊँचाई पर यह पेड़ जहाँ पर मिला है, उसके आसपास कोणीय पत्तियों वाले लगभग २० और पेड़ों के समूह पाए गए हैं । वैज्ञानिकों का कहना है कि बाकी पेड़ भी आठ हजार साल से ज्यादा पुराने हैं । यूमोआ यूनिवर्सिटी का कहना है कि इन पेड़ों का बाहरी हिस्सा तो अपेक्षाकृत नया है लेकिन पत्तियों और शाखाआें की चार पीढ़ियों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि इनकी जड़ें ९,५५० साल पुरानी हैं । यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर लेफ कुलमैन कहते हैं कि इनके तने का जीवन लगभग ६०० साल का होता है लेकिन एक की मौत के बाद जड़ से दूसरा `क्लोन' तना निकल सकता है । कुलमैन कहते हैं कि हर साल बर्फबारी के बाद जब कुछ तने नीचे झुक जाते हैं तो वे जड़ पकड़ लेते हैं । वैज्ञानिक इस खोज से खासे चकित हैं क्योंकि अभी तक कोणीय पत्तों वाले पौधों की इस नस्लों को अपेक्षाकृत नया माना जाता था । कुलमैन कहते हैं, `परिणामों ने बिल्कुल उल्टे नतीजे दिए हैं, कोणीय पत्तों वाले पेड़ पहाड़ियों में सबसे पुराने ज्ञात पौधों में एक हैं ।' उन्होंने कहा कि इन पौधों के मिलने से अनुमान है कि उस समय यह इलाका आज की तुलना में ज्यादा गर्म रहा होगा ।
गिलहरी में दिमाग होता
गिलहरियों को हमेशा ऐसा महसूस होता है कि कोई उन्हें देख रहा है । यह बात तब उजागर होती है जब वे अपना बचा-खुचा भोजन छुपाती हैं । क्योंकि जब वे अपना भोजन छुपाती हैं तो कई बार सिर्फ छुपाने का नाटक करती हैं । ऐसा क्यों करती हैं वे ? गिलहरियां जब भी अपना भोजन छुपाती है, तो हर बार अलग-अलग जगहों पर गड्ढा खोदती हैं। मगर कई बार तो वे यह सब नाटक के तौर पर करती हैं लगभग २० प्रतिशत । यह कहना है माइकल स्टेली का । गिलहरियां जमीन में गड्ढा खोदती हैं जो कि भोजन छुपाने के लिए होता है। भोजन रखने के बाद वे गड्ढे को मिट्टी या पत्तो से ढक देती हैं । वे ऐसा इसलिए करती हैं कि कहीं कोई उनका भोजन चुरा न लें । रोचक बात यह है कि कई बार उन गड्ढों में कुछ नहीं होता है । यानी गिलहरी गड्ढा खोदती है, उसमें कुछ रखने का नाटक करती है, और उसे मिट्टी पत्तों से ढंक भी देती हैं । गिलहरियां इस प्रकार की प्रक्रिया बेवकूफ बनाने के लिए करती हैं । स्टेली का विचार है कि गिलहरी को लगता है कि भोजन छुपाते समय कोई उन्हें देख लेगा । इसलिए वे देखने वाले का ध्यान बंटाने के लिए एक नहीं कई जगह भोजन छुपाने का नाटक करती हैं । इस प्रक्रिया को समझने के लिए स्टेली और उनकी टीम ने गिलहरियों पर निगरानी की गई तब देखा कि गिलहरियों का यह खेल और अधिक बढ़ गया । वह शायद इसलिए क्योंकि उन्हें ऐसा लग रहा था कि कोई उन्हें देख रहा है और उनका भोजन चोरी हो जाएगा । गिलहरियों पर शोध कर रही एक अन्य जीव वैज्ञानिक लिसा लीवर का कहना है कि इस अवलोकन से लगता है कि गिलहरियों के पास `सोचने की शक्ति' और `अस्तित्व का भान' करने की दक्षता होती हैं । वे कहती हैं यह कहना जल्दबाजी होगा लेकिन ऐसा हो सकता हैं ।
जीवन के विवरण का पहला
`जीवन कोश' यानी एन्सायक्लोपीडिया ऑफ लाइफ (ईओएल) का पहला वेब पृष्ठ प्रकाशित हो गया है । महत्वाकांक्षी ईओएल योजना यह हैं कि एक वेब साईट तैयार की जाए जहां दुनिया की जैव विविधता की पूरी जानकारी मिल सके अर्थात धरती की हर प्रजाति को एक-एक पन्न मिल सके । इस वेब साइट की संकल्पना २००३ में जीव वैज्ञानिक एडवर्ड विल्सन द्वारा लिखे गए एक आलेख में प्रस्तुत हुई थी और तब से कुछ लोग इसे साकार करने में लगे हुए हैं । वेबसाइड हींींि://शश्रि.िसी में अंतत: कुल १८ लाख प्रजातियों के बारे में विस्तृत जानकारी होगी और सबसे बड़ी बात यह है कि वेबसाइड सार्वजनिक होगी । इस वेबसाइट को बनाने में दुनिया भर की कई प्राकृतिक इतिहास संस्थाएं भाग ले रही हैं । अब तक कुल ३०,००० पन्ने तैयार हुए हैं, जिन पर प्रत्येक प्रजाति के लिए अन्य वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी की कड़ियां दी गई हैं । इसके अलावा कुछ पन्ने उदाहरण स्वरूप पूरे तैयार किए गए हैं जिन्हें देखकर अंदाज लगाया जा सकता है कि पूरा होने पर यह जीवन कोश कैसा दिखेगा । इस तरह की परियोजना के सामने सबसे बड़ी समस्या तो धन की है । फिलहाल यह अल्फ्रेड पी. स्लोअन फाउण्डेशन और मैकआर्थर फाउण्डेशन के अनुदान से चल रही है । मगर इसके आयोजकों को ज्यादा चिंता इस बात की है कि इस पूरे प्रयास को लंबे समय तक कैसे चलाया जाएगा । आलोचकों का विचार है कि इस तरह की परियोजना में सबसे बड़ी दिक्कत यही होती है कि कुछ समय बाद वित्त दाताआें की रूचि खत्म हो जाती है, शुरूआती रोमांच समाप्त् हो जाता है और फिर इसे चलाए रखना असंभव हो जाता है । आयोजकों की दूसरी चिंता यह है कि वैज्ञानिक समुदाय को इसमें भागीदारी के लिए कैसे प्रेरित किया जाए । परियोजना के कार्यकारी निदेशक जेम्स एडवर्ड इसे सबसे बड़ी चुनौती मानते हैं । आयोजकों को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि जो वैज्ञानिक इसे बनाने में सहभागी होते हैं उन्हें अपने योगदान का उचित श्रेय मिले । बहरहाल, आगे जो भी हो, इस वेब साइट के प्रथम पृष्ठों का लोकार्पण कैलिफोर्निया में टेक्नॉलॉजी, मनोरंजन व डिजाइन सम्मेलन में फरवरी में कर दिया गया है । जैव विविधता संरक्षण की दिशा में यह एक मील का पत्थर साबित होगी।
डॉल्फिन के पास भी शब्द हैं

जब आप डॉल्फिनों की सीटियों को ध्यान से सुनेंगे तो आपको लगेगा कि वे आपस में बातें कर रही हैं । हाल ही में एक प्रोजेक्ट में डॉल्फिनों की सीटियों का बारीकी से अध्ययन के दौरान उनकी सीटियों के प्रकार और व्यवहार में संबंध भी देखा गया है । ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स में स्थित साउथ क्रॉस विश्वविद्यालय के व्हेल रिसर्च सेंटर की लिज हॉकिन्स ने यह अध्ययन बॉटलनोज डॉल्फिनों पर किया । इसके लिए उन्होंने ऑस्ट्रेलिया के पश्चिमी तट की डॉल्फिनों के जीवन में तांक-झांक की । तीन साल की खोज के बाद उन्होंने पाया कि डॉल्फिनों का संवाद बहुत ही पेचीदा होता है, जिसकी वजह से इसे एक मायने में भाषा की संज्ञा दी जा सकती है। हॉकिन्स ने अपने निष्कर्ष साउथ अफ्रीका में केपटाउन स्थित मेरीन मेमोलॉजी सोसायटी में प्रस्तुत किए । डॉल्फिन अपनी भाषा के रूप में सीटियों का इस्तेमाल करती हैं । सभी डॉल्फिनों की अपनी एक विशेष सीटी होती है, जिनके द्वारा उनकी पहचान होती है । इन्हें हम उनके हस्ताक्षर कह सकते हैं । लेकिन जो दूसरे प्रकार की सीटियां हैं वे अभी तक हमारे लिए राज बनी हुई हैं । हॉकिन्स ने बैरन बे में ५१ समूहों में रहने वाली डॉल्फिनों की १६४७ सीटियों को रिकॉर्ड किया । उन्होंने इन सीटियों की प्रारंभिक आवृत्ति, कुल अवधि और अंतिम आवृत्ति पर ध्यान दिया । १८६ विभिन्न प्रकार की सीटियां पहचानी, जिनमें कम से कम २० किस्में ज्यादा आम थीं। इसके बाद उन्होंने सारी सीटियों को ५ टोनल वर्गो (स्वर समूहों) में बांट दिया । अब उन्होंने यह देखना शुरू किया कि किस व्यवहार के साथ डॉल्फिन किस स्वर समूह की सीटी बजाती है । हॉकिन्स ने क्वीन्सलैंड के मोरीटोन द्वीप में रहने वाली डॉल्फिनों के झुंड का भी अध्ययन किया । उन्होंने पाया कि अकेले पड़ जाने पर डॉल्फिन जो सीटियां निकालती हैं, वे एक अलग ही प्रकार ही होती हैं । हॉकिन्स को लगता है कि शायद डॉल्फिन अपनी भाषा में कहती हैं: मैं यहां हँू, बाकी सब कहां हैं ?***


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