खतरे में है कोरल भित्ति
डॉ. चन्द्रशीला गुप्त
कोरल, प्रवाल या मंूगे को अधिकांशत: आभूषण के रूप में ही जाना जाता है और लोगों को इसे खनिज समझने के लिए माफ करना ही उचित होगा । उन्हें भी माफ किया जा सकता है जो कोरल को प्राकृतिक रूप में देखकर पौधा समझ बैठते हैं । वास्तव में सन् १७२३ तक तो इसे पौधा ही माना जाता था । आगे चलकर फ्रांसीसी वैज्ञानिक जीन-एण्ड्रे पैसोनेल ने यह स्पष्ट किया कि यह छोटे-छोटे प्राणियों का कैल्शियम आधारित आवास है । कोरल दरअसल छोटी-छोटी रचनाआें-पॉलिप- के बने होते हैं जो एक खनिजयुक्त पदार्थ का स्त्राव करते हैं। इस पदार्थ से ऐसी कंकालीय रचनाएं तैयार होती है जिनमें पॉलिप रहते हैं और प्रजनन करते हैं । नए पैदा हुए पॉलिप इसी कंकाल के ऊपर अपना घर बनाते जाते हैं और धीरे-धीरे यह बढ़ता जाता है व खूबसूरत आकार ले लेता है । बढ़ते-बढ़ते यह एक दीवार यानी भित्ति या टीले का रूप ले लेता है । इसी को कोरल भित्ति कहते हैं । वैसे तो कोरल भित्तियां सभी ऊष्ण कटिबंधीय समुद्रों में पाई जाती है लेकिन हिन्द प्रशांत क्षेत्र में ज्यादा पाई जाती हैं । ये मुख्यत: अफ्रीका के पूर्वी तटों, मध्य अमेरिका, दक्षिण पूर्वी एशिया व ऑस्ट्रेलिया के उत्तर-पूर्वी तटों पर पाई जाती हैं । प्रशांत सागर को प्रवाल सागर भी कहा जाता है । कोरल नरम व कठोर दोनों प्रकार के होते हैं । कोरल भित्ति बनाने का कार्य वास्तविक हार्नी कोरल के अलावा दो अन्य समूह भी करते हैं । ये कठोर कोरल सीलेन्ट्रेटा समुदाय के वर्ग हाइड्रोजाआ के सदस्य है । इनका कंकाल गुलाबी या जामुनी रंग का होता हे । इनका एक श्वेत वर्णीय सदस्य मिलियोपोरा जिसे डंक मारने वाला कोरल भी कहते हैं, कोरल भित्ति का मुख्य घटक है । नरम कोरलों में लाल ऑर्गन-पाइप कोरल ट्यूबीपोरा व नीला हेलियोपोस आदि शामिल है । वैसे तो वास्तविक कोरल को अनेक कुलों में बांटा गया है लेकिन महत्वपूर्ण वर्गीकरण अभित्तिकारी व भित्तिकारी कोरल का है । भित्तिकारी कोरल गर्म पानी में ही पनपते हैं व ८५ मीटर से ज्यादा गहराई पर नहीं पाए जाते क्योंकि इसके नीचे तापमान बहुत कम हो जाते है । दूसरी ओर अभित्रिकारी कोरल पूरे विश्व के समुद्रों में व हर गहराई पर पाए जाते है । सामान्यत: भित्तिकारी कोरल का कंकाल बड़ा व पॉलिस सदस्यों का घनत्व ज्यादा होता है अन्य कोई प्रकार अंतर नहीं होता। और तो और, एक ही कुल के कुछ सदस्य भित्तिकारी होते है व कुछ अभित्तिकारी । मददगार वनस्पतियां :- भित्तिकारी व अभित्तिकारी कोरलों के ऊतकोंके बीच एक-कोशिकीय, भूरे रंग की गोलाकार वनस्पति पाई जाती है, जिसे जू-एंथेली कहते है । कोरल और यें वनस्पति प्लवक एक दूसरे के लिए लाभकारी होते हैं । वनस्पति को कोरल से सुरक्षा के साथ-साथ अकार्बनिक पोषण व कार्बन हाईऑक्साइड व साथ में अमोनिया व फास्फेट आदि प्राप्त् होते है । दूसरी ओर यह स्पष्ट नहीं है कि कोरल के लिए वनस्पति का क्या महत्व है । वनस्पतिहीन कोरल्स का काम भी चल ही जाता है । कई वैज्ञानिक मानते हैं कि वनस्पति कोरल के लिए उत्सर्जी कार्य करती है । इसके अभाव में उत्सर्जीं पदार्थो का विसरण अच्छी तरह नहीं हो पाता । भित्तिकारी कोरल के कंकाल निर्माण की तीव्र गति को देखते हुए लगता है कि वनस्पतियां कोरल के लिए लाभकारी है । वनस्पतियोंकी प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के फलस्वरुप कोरल को अपने भीतर पर्याप्त् ऑक्सीजन उपलब्ध हो जाती है । इस प्रकार ये वनस्पतियां कोरल की किडनी ही नहीं वरन फेफड़ो का भी काम भी करती है । यह भी माना जाता है कि इन वनस्पतियों से कोरल को कुछ विटामिन व खनिज प्राप्त् होंगे । लगता है कि इन सहजीवी वनस्पतियों की उपस्थिति से कोरलों के लिए इतनी विशाल भित्तियां बनाना संभव हुआ होगा । वनस्पतियों के लिए प्रकाश आवश्यक है । यही वजह है भित्तियों का विकास प्रकाशमय पानी में ही संभव है । कैल्शियमयुक्त कोरल व अन्य भित्तिकारी कोरल प्राथमिक भित्ति के ढाचों का निर्माण करते है । आगे चलकर इनमें अन्य कोरल तथा कंकाल निर्माता जंतु आकर बसेरा कर लेते है । इनमें प्रोटोज़ोआ और विकसित जंतु शामिल हैं । निचले, शांत जल में कोरल प्रजतियां, खासकर अटलांटिक भित्तियों में सी-फैन या गार्गोनिया के बड़े जंगल होते है । जैव विविधता का भण्डार :- समुद्री जैव तंत्रो में सार्वधिक जैव विविधता कोरल भित्ति में ही पाई जाती है । भूरे, हरी एवं लाल कैल्शियमयुक्त समुद्री शैवाल भित्ति बनाने में मदद करती है । साथ ही ट्राइडेक्ना नामक विशाल सीप जैसे अकशेरुकी जीव और कंकालयुक्त फोरामिनाफोरा, प्रोटोजोआ भी यही कार्य करते है । ये भित्तियां चमकदार रंगीन मछलियां तो कोरलों का भक्षण करती है या अपने पैने दांतों से सतह को खुरचती है । कोरल भित्ति के पनपने में प्रकाश व तलछट की मात्रा बहुत महत्वपूर्ण कारक है । साथ ही भित्ति पर कोरलों के वितरण पर छाया व प्रकाश का प्रभाव पड़ता है। प्रकाशमय भाग में पाए जाने वाले कोरल स्थूल होते हैं । इनके आधारीय जोड़ चौड़े होते हैं जो निरन्तर आघात करती समुद्री लहरों को झेलने मेंं समर्थ होते है । नीचे के शांत, कम रोशन इलाके में पतले शाखादार कोरल होते है । दरअसल पानी की हलचल से कोरलों की वृद्धि प्रभावित होती है । यही वजह है कि सतह पर गोलाकार मोटे कोरल गहराई ने चपटे व संकरे हो जाते है क्योंकि रोशन व पादप क्रियाएं कम हो जाने से कैल्सिकरण कम हो पाता है । विश्व का आश्चर्य :- भित्तिय मुख्यत: झालरदार, बैरीयर व ऍटाल किस्म की होती हैं । झालरदार भित्तिय किनारों या चट्टानों अथवा ज्वालामुखी द्वीपों से आगे लटकी रहती है। इनकी लंबाई कुछ किलोमीटर से ज्यादा नहीं होती है । बैरीयर भित्ति ज़मीन से अवश्य जुड़ी होती है और करीब १६० कि.मी. तक लंबी हो सकती है । इनमें बीच में ६० मीटर तक की एक नाल होती है । सबसे प्रसिद्ध बैरीयर रीफ ऑस्टे्रलिया की ग्रेट बैरीयर रीफ है जो २१०० कि.मी. लंबी है और ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट से न्यू गिनी के दक्षिणी तट तक फैली है । एटॉल समुद्र के बीच में होती है । यह सागर के पेंदे से शुरु होकर गोल या अंडाकार आक़ृति में विकसित होती है । ये खास तौर पर मध्य प्रशांत सागर में पाई जाती है । झालरदार भित्ति के निर्माण का रहस्य नही है । कोरल साथ के अन्य प्राणी उथले पानी में स्थापित होकर धीरे-धीरे पनपते जाते है व भित्ति समुद्र में आगे की ओर बढ़ती जाती है । लेकिन बैरीयर व एटॉल भित्ति की बात अलग है । डारविन ने अपनी यात्राआें (१८३२-३६) के दौरान पाया था कि जमीन धंस जाने या बढ़ती हुई भित्ति के पृथक हो जाने से झालरदार भित्ति में बदल सकती है । और यदि भित्ति किसी ज्वालामुखी द्वीप के चारोंओर बनी है तो द्वीप के निरन्तर नीचे धंसते जाने से द्वीप लुप्त् हो जाता है तब एटॉल का निर्माण होता है । कुछ अन्य वैज्ञानिकों के अनुसार उथले किनारे तलछट जमने से ऊपर आ जाते है । एक मान्यता के अनुसार हिमयुग के दौरान इन हिस्सों में बर्फ जमने से महासागरों में जलस्तर नीचे हो गया था, जिसकी वजह से किनारे ऊंचे हो गए थे । बाद में जब समुद्र का जलस्तर बढ़ा तो ऐसी जगहों पर कोरल विकसित हुए । वर्तमान की सभी कोरल भित्तियां अंतिम हिमयुग के बाद ही बनी हैं । अमेरिका के आणविक उर्जा प्राधिकरण ने प्रशांत महासागर में ड्रिलिंग करके पता लगाया है कि डार्विन का सिद्धांत ही अनेक जगहों पर सही सिद्ध हो रहा है । करीब १३०० मीटर गहरे ज्वालामुखी द्वीप की कार्बन से पता चला है कि ये द्वीप इओसीन युग के हैं व करीब ५ करोड़ वर्ष पूर्व डूबे थे । कोरल पर खतरा :- जहां कोरल्स की करीब २५०० जीवित प्रजातियां हैं, वहीं ५००० प्रजातियां विलुप्त् हो चुकी हैं । अत: वैज्ञानिक शंका जता रहे हैं इन जन्तुआें का अस्तित्व घटता जा रहा है । वर्तमान में एक विशाल कांटेदार स्टार फिश से खतरा पैदा हो गया है जो जीवित कोरल खाने के लिए मशहूर है । लेकिन पहले इनकी संख्या बहुत ही कम होती थी। वह अभी तक समझ से बाहर है कि इनकी संख्या इतनी कैसे बढ़ रही है । लेकिन ये फिजी, गुआना व माइक्रोरेशिया के पास ग्रेट बैरीयर रीफ को धड़ल्ले से चट कर रही हैं । कोरल भित्तियां अनेको प्रकार से महत्वपूर्ण है । इनकी उपस्थिति से इनके नीचे पेट्रोलियम भण्डार होने के सूचना मिलती है । कुछ कोरल भित्तियां सजावटी उपयोग की होती है । कोरोलियम रुब्रम अति मूल्यवान कोरल है । भारत समेत अनेक देशों में यह महंगे रत्नों में शुमार किया गया है । कोरल भित्ति समुद्री तल के उतार-चढ़ाव को समझने में भी मदद करती है । ये तेल पर चिपककर समुद्री सतह तक ही वृद्धि करती है और जब कभी जल सतह ऊपर चढ़ती है तो रुकी हुई वृद्धि पुन: शुरु हो जाती है । इस प्रकार कोरल भित्ति में एक के ऊपर एक जमी हुई पॉलिपा की अलग-अलग पीढ़ियों की मदद से भित्ति के आयु निकाली गई है जिससे हिमयुग के बाद की अनेेक समुद्रीय व स्थलीय जानकारियां हासिल हुई हैं । ***
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