बुधवार, 21 मई 2008

१ मई दिवस पर विशेष

इतिहास बनते मेहनतकश
अनिल त्रिवेदी
एक मई याने दुनियां के मेहनकशों का दिन । इस दिन दुनियाभर के मेहनतकशों की एकजुटता और सवालों को लेकर कई कार्यक्रम आयोजित होते हैं । मनुष्यों द्वारा निर्मित इस दुनिया में मेहनतकश और दिमागकश लोगों के श्रम और विचार का संयुक्त योगदान है । मेहनतकश लोगों ने दिमागकश लोगों के विचारों एवं सपनों को सजीव करने में अपना खून-पसीना बहाया है । यह दुनिया यदि केवल दिमागकशों की ही होती तो यह केवल सपनों के उड़ान की दुनिया होती । चीन में विश्व की सबसे लम्बी दीवार को साकार रूप देना हो या ताजमहल जैसी आश्चर्यजनक इमारत का निर्माण हो, दोनों ही दिमागकश और मेहनतकश के अरमान और कर्म के खूबसूरत गठबंधन का ही नतीजा है । प्रत्येक प्राणी ऊर्जा का अद्भुत स्त्रोत है । मनुष्य को छोड़ प्राणी जगत के अन्य प्राणियों का जीवन स्वयं की ऊर्जा पर ही चलता है । दिमागकश मानव ने दिमाग के बल पर बहुत सारे अन्य प्राणियों की शक्ति को भी अपने सपनों को पूरा करने में निरंतर इस्तेमाल किया है। पशु की ऊर्जा का इस्तेमाल दिमागकश इंसान ने अपने कार्यो को पूरा करने में किया है । पशु और इंसान की सम्मिलित मेहनत या ऊर्जा से ही प्रारंभ हुआ है मनुष्य और बड़ी मशीनों के गठबंधन का दौर । इस दौर में दिमागकशों ने ऐसी विशालकाय मशीनों का निर्माण कर दिया जिससे एक इंसान बिजली या पेट्रोल की ऊर्जा का इस्तेमाल कर अनेक मेहनतकशों का काम एक मशीन से करवा लेता है । दिमागकशों के इस नये अविष्कार से दुनिया में तेजी से काम करवा लेने का दौर प्रारंभ हुआ । मेहनत के विनियोग से चलती आयी दुनिया में अब ऐसा परिदृश्य आम होता जा रहा है कि जिन्होंने सदियों से अपने शरीर की ऊर्जा से कुशलता के साथ जिंदगी का संचालन किया, वे आज की दुनिया में अकुशल मजदूर हो गये । जिन्होंने कभी शरीर की ऊर्जा का विनियोग देश और दुनिया के निर्माण में नहीं किया वे अपने दिमागों से निकली विशालकाय मशीनों और टेक्नालॉजी के बल पर दुनिया के सिरमौर बनते जा रहे हैं । आज की विकसित दुनिया में मेहनतकश इंसान धरती पर बोझ लगने लगा है । प्रारंभ से ही मानव का मस्तिष्क मनुष्य की शक्ति या ऊर्जा को और ज्यादा तेजस्वी और शक्तिसम्पन्न बनाने में ही चला । इसका नतीजा यह हुआ कि सारे बुनियादी आविष्कार मनुष्य के दिमाग ने इस सिद्धांत पर किए कि एक मनुष्य दो-चार मनुष्यों की ऊर्जा के बराबर काम कर सके । प्रारंभिक दौर में काम करने वाले मनुष्यों की मेहनत की प्रतिष्ठा दुनियाभर में बहुत बढ़ी और जो भी शक्ति सम्पन्न बनने का सपना देखता था उसने ऐसे मेहनती इंसानों या उनकी शक्ति को अपने वश में करने में अपने दिमाग का इस्तेमाल प्रारंभ किया । मनुष्य ने ऐसे औजारों का निर्माण भी कर लिया जिसमें पशु की ऊर्जा मिलकर औजार की शक्ति भी जुड़ जाए। इसके परिणामस्वरूप कई नए उपकरण जैसे हल, बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी, चड़स आदि प्रचलन में आए । साथ ही मनुष्य का दिमागी अर्थशास्त्र इन्हीं संसाधनों तथा मनुष्य और पशु की शक्ति के चारों ओर चलने लगा । राज्य और साम्राज्य की शक्ति मनुष्यों के लवाजमें और पशु की शक्ति के ईद गिर्द केंद्रित हो गई । युद्ध शास्त्र की संरचना में भी हाथी और घोड़े की संख्या ताकत का प्रतीक बनी । मनुष्य को अपनी सामूहिक संग्रह शक्ति पर अभिमान होने लगा और राज्य का शक्ति केन्द्र के रूप में उदय होने लगा । इसी के साथ एक ऐसी नस्ल विकसित हुई जिससे दुनिया के सारे मेहनतकश, दिमागकशों की सोच की सत्ता के गुलाम हो गए। अपनी अक्ल के बल पर ही मनुष्य को गुलाम बनाने, मनुष्य द्वारा मनुष्य पर अन्याय करने और लूटने का एक ऐसा लम्बा सिलसिला चला, जो आज तक अपने भयावह रूप में कायम है । दुनिया का इतिहास दिमागकशों द्वारा मेहनतकशों को सृजन और संहार की प्रवृत्तियों में निरंतर खपाते रहने का इतिहास है । प्रारंभ से ही मनुष्य ने केवलअपनी जिंदगी को चलाने के लिए ही मेहनत की है । केवल अपने लिए जीते रहने की ऊब से जो विचार चला उसने मनुष्य को और अधिक शक्तिशाली बनाने का मार्ग प्रशस्त किया और पूरी दुनिया की राजनीति और अर्थशास्त्र मेहनतकशों के हाथ से निकालकर दिमागकशों की गुलाम बन गई। आज की आधुनिक और विकसित दुनिया मेहनतकशों के पसीने के बल पर नहीं दिमागकशों के पैसे के खेल पर नाचने, इतराने वाली दुनिया बनती जा रही है एवं शरीर की ऊर्जा के बल पर जीवन जीने की कला इतिहास की वस्तु बनती जा रही है । हाथ से काम करने वाले लोग उपहास या लाचारी के पर्याय बनते जा रहे हैं । घर-परिवार से लेकर समाज-सरकार में मेहनतकशों को बोझ और दिमागकशों को सिरमौर मानने का नया उषाकाल आ गया है । इससे एक ऐसी दुनिया निर्मित हो रही है जिसमें इंसान को इंसान की जरूरत हैं । दुनिया में सर्वाधिक मनुष्य केन्द्रित रोजगार पैदा करने वाला हंसिया और हथौड़ा अब तेजी से इतिहास की वस्तु बनता जा रहा है । हाथकरघा तो अतीत की बात हो गई है। कपड़ा मिलें भी मनुष्य मशीन सहयोग के बजाए स्वचालित टेक्नालॉजी की गुलाम हो गई हैं । उत्पादन की समस्त प्रक्रियाआें में मनुष्य की ऊर्जा का स्थान विशाल मशीनों ने हथिया लिया है । ऐसे में मेहनत का अवमूल्यन तो होगा ही और मेहनतकश की मेहनत के गीत कौन गायेगा ? आज हमने उधार की और हर क्षण खर्चीली ऊर्जा से ऐसी दुनिया रच ली है कि हम घर से बाहर निकलते ही खुद की ऊर्जा से चलने में स्वयं को लाचार पाते हैं । हित चिंतक लोग कुशलक्षेम के स्थान पर पूछने लगते हैं क्यों गाड़ी कहां गई ? आज पैदल कैसे? पैदल चलना एक अजूबा बनता जा रहा है । दुनिया का सारा ज्ञान एक छोटी चिप में समा गया है । कम्प्यूटर और सूचना प्रौद्योगिकी ने दिमाग को एक ऐसा साधन दे दिया है कि स्मरण और विस्मरण का अध्याय ही मनुष्य के मतिष्क से समाप्त् होता जा रहा है । आज के मनुष्य की ऊर्जा और दिमाग दोनों पर यंत्रों का गहरा प्रभाव कायम हो चुका है । उसका रचना संसार सृजन और संहार की ऐसी मशीनों की रचना कर चुका है कि जिसे मनुष्य समाज की जरूरत ही नहीं है । दिमागकश मनुष्यों ने मेहनतकश मनुष्यों की ऊर्जा को लाचार कर मनुष्य की प्राकृतिक सक्रियता को नष्ट कर दिया है और अब दिमाग को आराम देने वाली नई टेक्नालॉजी ने मनुष्य के दिमाग की प्राकृतिक तेजस्विता को श्रीहीन करने का पूरा इंतजाम कर दिया है । मूलत: मेहनतकश मनुष्यों को दिमागकश मनुष्यों ने आरामतलबी मशीनकश मनुष्य में बदल दिया है । दुनियाभर का मनुष्य मशीनकश आराममय जीवन बिताने में मगन है । उसे न तो दुनिया के मजदूरों की चिंता है और न ही मनुष्य जीवन की जीवन्तता की । मशीनों चलती रहें और वह पड़ा रहे यही जीवन का आनंद हो गया है । मनुष्य के जीवन के संगीत को छीनकर, कान फोडू डी.जे. की धुन पर, मशीन के नशे की ताल पर उसे उछलने कूदने वाले ऐसे समाज में बदल दिया है जिसे मनुष्य की ऊर्जा की जरूरत नहीं है । इसलिए आज के यंत्रीकृत समाज में दुनिया के मजदूरों एक हो की आवाज और लड़ाई इतिहास की बात हो गई है । मशीनों के बाजार ने दुनिया की गतिविधियों को बहुत तेज और मनुष्य की जिंदगी को मशीनों की कठपुतली बना डाला है और कठपुतली कभी भी सवाल नहीं करती हैं। इस परिदृश्य में एक मई इतिहास बनते मेहनतकशों की मेहनत को याद करने का रस्मी दिन बनकर रह गया है । आज उधार की ऊर्जा से यंत्र समाज तो दिनरात चल रहा है पर मनुष्य ऊर्जा आरामकश समाज में विलीन हो गई है । ऐसा उबासी लेता समाज मेहनत के संगीत के लिए स्मरणीय `मई दिवस' को यदि याद भी कर लेता है तो क्या वह वर्तमान यंत्रीकृत समाज की एक उपलब्धि नहीं मानी जाएगी ?***

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