म.प्र. : खाद्य सुरक्षा पर `न्यू डील'
शिवराजसिंह चौहान
लंदन से प्रकाशित विश्व विख्यात पत्रिका `द इकोनॉमिस्ट' के १९ अप्रैल २००८ के ताजा अंक से दुनिया भर में पैदा हुई खाद्य समस्या की चर्चा करते हुए कहा गया है कि विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्रसंघ को खाद्य समस्या पर `न्यू डील' के साथ आना चाहिए । किसी और ने इस पर ध्यान दिया न दिया हो, लेकिन मध्यप्रदेश में हम `मुख्यमंत्री अन्नपूर्णा योजना' के माध्यम से ऐसी ही `न्यू डील' प्रस्तुत कर रहे हैं । वह भी ऐसे समय, जब केन्द्र सरकार अभी तक खाद्य सुरक्षा ढाँचे के व्यापक सुधार के लिए किसी नई योजना के साथ नहीं आई है । दिल्ली के स्तर पर बात संवेदनशीलता के अभाव की नहीं है, कल्पनाशीलता के अभाव की है। खाद्यान्नों बढ़ते हुए दामों ने लोगों की क्रयशक्ति में जबर्दस्त कमी की है । अभी कुछ सालों पहले तक `राइजिंग इंडिया' (भारत उदय) की बात होती थी । लेकिन आज बात `राइजिंग एंगर' की है - क्रोध के उदय की । गरीब के गुस्से की, जो अब बढ़ता ही जा रहा है । कांग्रेस कम्युनिस्ट गठजोड़ के चलते न तो मार्केट आर्थिकी के पूरे फल मिले, न सर्वहारा की तनाशाही के । दोनोंके बीच अनुत्तरदायित्व के रिश्ते थे, जिसमें वे एक-दूसरे के कारण ही असफल थे, लेकिन फिर भी दोनों साथ-साथ थे । मानो यह उनके दाम्पत्य का मसला हो, देश का मसला न हो । इसलिए महँगाई के नए शब्द शास्त्र में मुद्रास्फीति का कोई देश नहीं है । केन्द्र सरकार इस महँगाई को ग्लोबल बताकर स्थानीय सक्रियता की जिम्मेदारी से मुक्त हो जाना चाहती है, लेकिन उससे भी अधिक स्थानीय स्तर पर मध्यप्रदेश सरकार ने महँगाई की इस केंद्रीय या वैश्विक समस्या से अपने प्रदेश के दरिद्र नागरिकों का संरक्षण करने की तत्परता प्रदर्शित करने में चूक नहीं की, जबकि जिस `बाजार' पर केन्द्र सरकार के अर्थशास्त्री प्रधामंत्री तथा वित्तमंत्री को बड़ा भरोसा रहा आया है, उसकी फूड चेन की हर कड़ी में `मार्केट विफलताएँ' हैं । लेकिन बाजार को उदारीकृत करते जाने की निरंकुश नीति न केवल राज्य नामक चीज के हस्तक्षेप के स्थगन और निष्क्रियता में सामने आ रही है, बल्कि अभी भी तर्क यही है कि खाद्य का बाजार स्वयं छोटे-मोटे एडजस्टमेंट कर लेगा, यदि उसे कोटा, सबसिडी, कंट्रोल वाली नौकरशाही झेलना न पड़े । बाजार से असंतुलन बाजार ही दूर करेगा, ऐसा अंधविश्वास-सा बन गया है । लेकिन वे असंतुलन कब दूर होंगे ? कब तक उस `मधुर दिन' की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी ? आज हालत गंभीर से गंभीरतर होती जा रही है । अभी मार्च-अप्रैल की अंतरराष्ट्रीय सुर्खियाँ देखें । भूमध्य रेखा के किनारे-किनारे के सभी देशों में खाद्य मुद्दों पर जबर्दस्त हलचल है । हैती के प्रधानमंत्री को त्यागपत्र देना पड़ा है, इजिप्ट के राष्ट्रपति ने आर्मी को ब्रेड-बेकिंग के आदेश दिए हैं, फिलीपींस में चावल की जमाखोरी को आजीवन कारावास के योग्य बना दिया गया है, इथियोपिया के इमरजेंसी कार्यक्रम को राष्ट्रीय आय के एक प्रतिशत तक बढ़ा दिया गया है, पाकिस्तान ने सस्ते गेहँू के लिए राशन कार्ड की एक पुरातन पद्धति का दामन इसी साल फिर थामा है । भारत में हमारी केन्द्र सरकार क्यों रूकी हुई हैं? वातानुकूलित मॉलों, लक्झरी होटलों, महँगे अपार्टमेंटों, एयर ट्रेवल और प्राइवेट कारों की व्यस्तताआें में फँसी हुई दिल्ली को गरीबों के हक में तत्काल कदम उठाकर मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री अन्नपूर्णा योजना की तरह कोई योजना लाना क्यों जरूरी नहीं लग रहा? जीवन की हकीकतों को महसूस करने की जगह दिल्ली सांख्यिकीय मृगछलनाआें में व्यस्त है । बड़ी कंपनियाँ आज दुनिया भर में अनाज खरीद रही हैं, लेकिन यह अनाज पश्चिम देशों के जैव इंर्धन कार्यक्रमों में व्यय हो रहा है या आम आदमी की भूख मिटाने में - इसे देखने की फुर्सत `खुली अर्थव्यवस्था' को नहीं है । यदि आय के वितरण में असमानताएँ हो, तो बाजार एक बहुत बुरा मास्टर सिद्ध होता है । हमारे यहाँ ऐसा ही हुआ है । विश्व बैंक अध्यक्ष बॉब जोएलिक का कहना है कि खाद्यान्नों की महँगाई ने कम से कम एक अरब लोगों की निर्धनता में पुन: धकेल दिया है और इस दशक में जितने भी लाभ सबसे दरिद्र एक अरब लोगों ने कमाए थे, वे सब एक झटके में साफ कर दिए गए हैं । भारत जैसे देश में खाद्यान्न संकट यह बताता है कि अनाज उत्पादन की वृद्धि दर में कोई विशेष अग्रता हम हासिल नहीं कर सके हैं, जबकि योरपियन यूनियन के बारे में खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की भविष्यवाणी है कि उनका उत्पादन १३ प्रतिशत बढ़ेगा। जब विदेशी गेहँू १६०० रूपए प्रति क्विंटल पर भारत सरकार द्वारा खरीद जा रहा हो और भारतीय किसान को यही भारत सरकार ८५० रूपये भी देने को तैयार न हो तो स्थिति यही होगी कि पश्चिमी किसान की उत्पादकता बढ़ेगी, हिन्दुस्तानी कृषि गड्ढे में जाएगी। ऐसी स्थिति में किसानों के असली मुद्दों की ओर लगातार गहरी संवेदनशीलता यदि हम दिखा रहे हैं, तो वह अवसरवाद नहीं, आज की जरूरत हैं । अनाज की बढ़ती हुई कीमतें किसान के लिए ज्यादा पैसा बरसाने वाली होना चाहिए थीं । लेकिन भारत में ऐसा नहीं हो पाया । बढ़ी हुई कीमतों के प्रतिफल बिचौलियों और कंपनियों ने लूटे, जबकि आम आदमी को इन कीमतों की मार सहनी पड़ी है । अन्नपूर्णा योजना को इसी पृष्ठभूमि में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप की तरह देखा जाना चाहिए । गेहँू को तीन रूपये किलो और चावल को साढ़े चार रूपए किलो के अत्यंत सस्ते दामों पर उपलब्ध कराना प्रदेश के इतिहास में एक नई कोशिश जरूर है, लेकिन इसे लोकप्रियतावाद कहना दरअसल इस पूरी पृष्ठभूमि से अपरिचय प्रकट करना है । वैसे भी जिसे पापुलरिज्म कहा जाता है, वह एक एलीट वर्ग के द्वारा आम जनता का तिरस्कार करने के लिए गढ़ी गई अभिव्यक्ति है । मैं तो शुरू से ही समावेशी राजनीति में विश्वास रखता रहा हँू इसलिए गरीबों को अपनी ओर से पहल कर उनके अधिकार और आवाज देना, उनकी जरूरतों के प्रति जागरूकता दिखाना, मैंने एक धर्म की तरह अपनाया है । मैं इस बात से भी अवगत हँू कि अन्नपूर्णा योजना कॉर्पोरेट पावर के खिलाफ एक चुनौती की तरह अभिकल्पित जरूर की गई है, किंतु बाजार से अनाज दरों की जो भिन्नता अभी इसका सबसे बड़ा खतरा बन सकती है । इस अनाज को राशन दुकानों से कहीं खुले बाजार में ले जाने की जतन-जुगाड़-जादू को पराजित किया जाएगा । अस्पतालों-थानों से लेकर गेहँू उपार्जन मंडियों के निरीक्षणों के जरिए मैंने फ्रंट से लीड करने की कोशिशें लगातार की है । अन्नपूर्णा योजना के सफल क्रियान्वयन के लिए भी शिखर से चौपाल तक ऐसे ही प्रभावशाली निरीक्षणों की जरूरत होगी तथा जनता और तंत्र के बीच संप्रेषण की तुरंत-तत्काल व्यवस्था की भी। फिर भी मैं कहूँगा कि उपभोक्ता की जागरूकता ही इस योजना की सफलता तय करेगी । इसीलिए उनके सहयोग और आशीर्वाद की अपेक्षा हमें लगातार रहेगी।(दै. नईदुनिया से साभार)***
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें