पालतू पशु जो अब जंगली बन चुके हैं
बिमल श्रीवास्तव
कल्पना कीजिए कि आपका पालतू कुत्ता यदि भाग कर जंगलों में चला जाए और वहीं पर स्वछंद रूप से रहना आरंभ कर दे, तो क्या होगा ? संभवत: कई पीढ़ियां गुजर जाने के बाद उस कुत्ते की जो संताने पैदा होंगी, उनका नाता मानव से पूर्ण रूप से टूट जाएगा । अब यदि यही सिलसिला कुछ सौ वर्षो या और भी अधिक समय तक चलता रहे, तो हो सकता है कि कुछ समय पश्चात एक पालतू कुत्ते के बजाय वहां एक जंगली कुत्ते की प्रजाति उत्पन्न हो जाए । उसका रंग, रूप, डील-डौल, कद-काठी सामान्य कुत्तों से बिल्कुल भिन्न होगी । और हो सकता है कि वह शिकार के लिए मानव पर आक्रमण करने से भी ना कतराए । ऐसे पशु जो पहले पालतू थे और अब जंगली बन चुके हैं, उन्हें वन्य पशुआें -या अर्ध वन्य पशु) की श्रेणी में रखा जाता है । इन्हें अंग्रेजी में फेरलकहा जाता है । फेरल शब्द लैटिन के फेरा शब्द से बना है । अर्थ है वन्य पशु । उल्लेखनीय है कि ये फेरल पशु उन आवारा किस्म के पशुआें से भिन्न होते हैं, जो शहरों में लावारिस घूते नजर आते हैं । जैसे भारत के सांड या गलियों में रहने वाले लावारिस कुत्ते फेरल पशुआें की श्रेणी में नहीं आते हैं । वे पशु भी इस श्रेणी में नहीं आते हैं जो सदैव से ही जंगलों में थे और कभी भी पालतू नहीं बनाए गए, जैसे हमारे देश के जंगली कुत्ते। इस प्रकार के फेरल पशुआें के कुछ उदाहरण है, उत्तरी अमरीका का जंगली धोड़ा मुस्तांग, ऑस्ट्रेलिया का जंगली कुत्ता डिंगो, ऑस्ट्रेलिया के जंगली ऊंट, न्यूजीलैंड के जंगली सुअर इत्यादि । उत्तरी अमरीका का जंगली घोड़ा मुस्तांग सदियों पहले स्पेनिश यात्रियों द्वारा अमरीका लाया गया था । ऐसे अनेकों घोड़े जब अपने मालिकों द्वारा त्याग दिए गए, तो वे स्वतंत्र वन्य जीवन बिताने लगे । वे शारीरिक तौर से अति बलशाली व आकर्षक बन गए । वर्ष १९७१ में अमरीकी सरकार ने इन्हें ऐतिहासिक प्रतीक के रूप में मान्यता दे दी जिसके कारण इन्हें संरक्षण भी मिल गया । ऑस्ट्रेलिया का जंगली कुत्ता डिंगो (केनिस लुपस डिंगो) भी इसी प्रकार का फेरल पशु है । इसे लगभग सवा दो सौ वर्ष पूर्व यूरोप के यात्री उस महाद्वीप में लाए थे । जब इन पालतू कुत्तों को वहां छोड़ दिया गया और वे जंगली बन गए । इन्हें डिंगो नाम दिया गया । धीरे-धीरे ये पूरे ऑस्ट्रेलिया में फैल गए । एक अन्य मान्यता के अनुसार डिंगो लगभग १५,००० वर्ष पूर्व ऑस्ट्रेलिया के आदिम निवासियों द्वारा लाए गए थे । कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि इन्हें एशियाई नाविकों द्वारा ४-५ हजार वर्ष पूर्व यहां लाया गया था । डिंगो अधिकतर लाल, भूरे या सुनहरे-पीले रंग के होते हैं तथा देखने में कुत्ते जैसे लगते हैं । ये भौंक नहीं सकते है, लेकिन कुत्तों की रोने वाली आवाज निकाल सकते हैं । ये अपना शिकार प्राय: रात के समय करते हैं । इनके शिकारों में चूहे, गिलहरियां व खरगोश से लेकर भेड़ व कंगारू तक होते हैं । इनकी शिकार की आदतों के कारण अनेक ऑस्ट्रेलियावासी इन्हें अपना शत्रु समझते हैं । वे उनकी भेड़ों तथा दूसरे पालतू पशुआें को उठा ले जाते हैं । इनसे सुरक्षा के उद्देश्य से दक्षिण पूर्वी ऑस्ट्रेलिया में वर्ष १८८० में ८५०० किलोमीटर लंबी कंटीली बाड़ का निर्माण चालू किया गया था । यद्यपि यह बाढ़ लगभग आधी ही बन पाई थी, किंतु फिर भी इस योजना से काफी बचाव किया जा सका है । इसी प्रकार से आम तौर पर पाया जाने वाला एक अन्य फेरल पशु बिल्ली है । वैसे तो कोई भी घरेलू बिल्ली घर से बाहर निकल जाने के बाद वन्य पशु मानी जा सकती है । किन्तु वास्तविक रूप से फेरल पशु की श्रेणी में बिल्लियां आती हैं, जो जंगलों या सुदूर पहाड़ियों पर रहती हैं तथा शिकार द्वारा जीवन निर्वाह करती है । इसी प्रकार के फेरल पशुआें में जंगली सुअर, जंगली भेड़, जंगली भैंस, जंगली गधे, खरगोश आदि शामिल हैं, जो पालतू वातावरण से निकल जाने के बाद जंगली बन चुके हैं । इसके अलावा फार्म की पालतू मछलियां तथा पालतू पक्षी (जैसे कबूतर, मुर्गे) आदि भी फेरल जीवों की श्रेणी में आते हैं । (वैसे कुछ सीमा तक जंगली पेड़-पौधे, खरपतवार आदि भी इसी श्रेणी में आते हैं ।) हमारे देश में भी कुछ ऐसे स्थल हैं जहां पर इस प्रकार के फेरल पशु पाए जाते हैं । सबसे पहले तो उड़ीसा के हीराकुण्ड जलाशय के निकट संबलपुर से लगभग ९० किलोमीटर की दूरी पर स्थित कुमारबंध गांव में ऐसे पशुआें की बस्ती है, जो एक पहाड़ की चोटी पर स्थित है । यदि हीराकुण्ड बांध से नौका द्वारा यात्रा की जाए तो यह स्थान केवल १० किलोमीटर की दूरी पर है । वास्तव में जब हीराकुण्ड जलाशय का निर्माण हुआ था तो गांव खाली करते समय अनेक ग्रामवासियों ने अपने गाय-बैलों को वहीं छोड़ दिया था । चारों तरफ जल भर जाने के कारण ये पशु पहाड़ी पर ऊपर की ओर चले गए और उस टापूनुमा पहाड़ी का एक छत्र राज हो गया । ये गाय-बैल अधिकतर सफेद रंग के हैं तथा अत्यंत चौकन्ने, तेज और ताकत वाले हैं । यह जगह अब एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल बन चुकी है । यहां अनेक पर्यटक केवल इन पशुआें को देखने के लिए आते हैं । एक अन्य प्रसिद्ध स्थान अंडमान निकोबार के बैरन द्वीप में स्थित है । बैरन द्वीप अंडमान की राजधानी पोर्ट ब्लेयर से लगभग १३५ किलोमीटर पूर्व में स्थित है । यह ऐसी जगह है जहां देश का एकमात्र ज्वालामुखी स्थित है । इस वीरान द्वीप पर पशु-पक्षी नहीं पाए जाते हैं सिर्फ कुछ जंगली बकरियों को छोड़कर । ये बकरियां यहां कब और कैसे आई इस बारे में ठीक पता नहीं चल पाया है । ऐसा माना जाता है कि वर्ष १८९१ में इन बकरियों को कोई स्टीमर इस द्वीप पर छोड़कर चला गया था तब से ये यहां जंगली जीवन व्यतीत कर रही हैं । ये बकरीयां काले या भूरे रंग की हैं और इनकी कद-काठी काफी कुछ सामान्य बकरियों जैसी है । मगर सबसे रहस्यमयी पहेली तो यह है कि ये बकरियां बगैर पानी के अपना काम कैसे चला रही हैं क्योंकि बैरन द्वीप पर ताजा पानी उपलब्ध ही नहीं है । इस संबंध में पहले कुछ वैज्ञानिकोंका अनुमान था कि संभवत: ये समुद्र का खारा पानी पीती हैं । वैसे अब कुछ दूसरे वैज्ञानिक मानने लगे हैं कि ये बकरियां कुछ विशेष प्रकार के पेड़ों (जैसे जंगली जामुन) की पत्तियां खाकर पानी की कमी को पूरा कर लेती हैं । अब कुछ वैज्ञानिकों ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया है कि बैरन द्वीप में एक-दो स्थानों पर ताजे पानी के सोते हैं । उसी से ये बकरियां अपनी जलापूर्ति कर लेती हैं । फेरल पशुआें से लाभ व हानि दोनों ही होती हैं । वैसे हानि ही ज्यादा है हालांकि फेरल पशुआें से कुछ लाभ भी उठाए जाते हैं। उदाहरण के लिए कुछ देशों में भोजन प्रािप्त् के प्रयोजन से इन पशुआें का शिकार किया जाता है (पापुआ न्यू गिनी, अफ्रीका आदि देशों में जंगली सुअर का शिकार), कभी-कभी इन पर वैज्ञानिक प्रयोग भी किए जाते हैं । किंतु जहां तक हानि का सवाल है वह तो प्रत्यक्ष रूप से नजर आ जाती है । सबसे पहले तो फेरल पशु प्राय: स्थानीय जीव जंतुआें व पेड़-पौधों पर आक्रमण करके उन्हें क्षति पहुंचाते हैं तथा कभी-कभी तो उन्हें पूरी तरह से नष्ट ही कर देते हैं । इसके अलावा ये फेरल पशु स्थानीय जीवों के संसर्ग द्वारा हानिकारक या कमजोर वर्णसंकर प्रजातियां भी उत्पन्न करते हैं । कुछ मामलों में तो इन फेरल पशुआें से स्थानीय पशुआें में अनेक बीमारियां भी फैलती हैं । फेरल पशुआें द्वारा चारागाहों का नुकसान होता है तथा पालतू पशुआें के लिए भोजन की कमी भी पैदा होती है । माना जाता है कि वर्षो पूर्व समुद्री जहाजों के नाविक जब किसी सुदूर द्वीप पर डेरा डालते थे, तो उनके जहाजों से कुछ चूहे और बिल्लियां आदि भी कभी-कभी उन द्वीपों पर छूट जाते थे और वहीं बस जाते थे । इन चूहों, बिल्लियों और अन्य जीव-जंतुआें ने स्थानीय पर्यावरण को बहुत हानि पहुंचाई है । फेरल चूहों, बिल्लियों आदि पर रोक के अनेक प्रयास किए जा रहे हैं । न्यूजीलैंड के लिटिल बैरियर द्वीप में वर्ष १९८० में इन फेरल बिल्लियों का सफाया करने का प्रयास किया गया था । इससे सीगल जैसे कुक्स पेट्रेल नामक पक्षियों की मृत्यु दर तीन में एक से घट कर दस में एक हो गई । इसी आधार पर न्यूजीलैंड ने मार्च २००८ में अपने स्टेवर्ट द्वीप में चूहों, बल्लियों तथा पोरम पर नियंत्रण के लिए ३.५ करोड़ डालर खर्च करने की योजना तैयार की है । इसी प्रकार वर्ष २००७ में ऑस्ट्रेलिया के मेक्वैयर द्वीप में चूहों, बिल्लियों तथा खरगोशों पर नियंत्रण के लिए १.६५ करोड़ ऑस्ट्रेलियाई डॉलर खर्च करने की योजना लागू की गई है । अमरीका के हवाई द्वीप समूह के द्वीपों में अनुमान के अनुसार लगभग ८०,००० फेरल सुअर घूम रहे हैं जो स्थानीय जीव-जंतुआें को भयंकर हानि पहुंचा रहे हैं । इनमें शिकार द्वारा प्रति वर्ष लगभग १०,००० सुअर समाप्त् कर दिए जाते हैं, फिर भी इनकी संख्या बढ़ती जा रही है । सरकार प्रयास कर रही है कि अन्य साधनों द्वारा इन पर अधिक से अधिक नियंत्रण किया जा सके । ***
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