उत्तराखंड : सम्पदा ही विपदा
वीरेन्द्र पैन्यूली
पर्वतीय क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधनों का बहुत ही सोच समझकर प्रयोग किया जाना चाहिए । यहां के प्राकृतिक संसाधनों का अनाचार भरा प्रयोग कर मैदानी इलाकों के शहरी क्षेत्र तो अपनी आवश्यकता की पूर्ति कर रहे हैं परंतु इस प्रक्रिया में पहाड़ों की पूरी अर्थव्यवस्था को समाप्त् कर रहे हैं । जब पर्वतीय क्षेत्र कटे-कटे थे, आवागमन व संचार की दुरूहता थी तो स्थानीय संसाधनों पर निर्भरता ही आर्थिक विकास का पैमाना थी । इससे देशज ज्ञान भी पनपता थी । परंतु आज किसी भी क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के संदर्भ पूर्ववत नहीं रहे हैं । सभी क्षेत्रों में बदलाव आ रहे हैं। परिवेश में, पर्यावरण में, इच्छाआे में, जरूरतों में, नैतिक मूल्यों में एवं विज्ञान टेक्नॉलॉजी की क्षमताआें में बदलाव आए हैं। अत: अब आर्थिक आत्मनिर्भरता की बहस भी बदले परिवेश में ही की जानी है। आर्थिक आत्मनिर्भरता पाने की खोज व इच्छा मनुष्य में अनंत काल से विद्यमान रही है । कोई देश या व्यक्ति यह नहीं चाहेगा कि उसे किसी के सामने हाथ फैलाना पड़े । इससे उसके सामने हित में निर्णयों को लेने की स्वतंत्रता पर असर पड़ता है । यह उन संस्कृतियों के लिए तो बहुत ही विवशता भरी स्थितियां हैं जो अपनी अलग पहचान बनाना चाहती हैं । उदाहरण के लिए उत्तराखंड आंदोलन के दौरान उत्तराखंडी पहचान बनाना भी राज्य पाने की लड़ाई का एक मकसद था । ऐसी उग्र इच्छाआें के बीच जब खाने, बोलने, सुनने, पहनने का ही संकट हो तो कम से कम पहचान की बात करने वाले पूरे देश में फैले समूहों को आर्थिक आत्मनिर्भरता की बात गंभीरता से करना होगी । अधिकांशत: ऐसे समूह अब तक पहुंच के बाहर रहे हैं और तथाकथित विकास की मुख्य धारा से भी दूर रहकर प्राकृतिक संसाधन के प्रचुर क्षेत्रों में ही स्थापित रहने की कोशिश कर रहे हैं । किंतुयोजनाआें ने अधिकांश ऐस क्षेत्रों को उन स्थितियों में पहुंचा दिया है जहां उनकी कार्य प्रणाली व वित्त आधारित सोच ने भी परियोजना आधारित विकास को मॉडल मानते हुए अपने क्षेत्रीय जल, जमीन, जंगल, खेती को बचाने व बढ़ाने के लिए भी बाहर के धन की आवश्यकता प्रतिपादित कर दी है । नि:संदेह जंगल, जल, जमीन जिसमें खनिज व जैविक सम्पदा भी है विकास की मूलभूत पंूंजी रही हैं । अब तक क्षेत्रीय निवासी उसी के आधार पर अपनी आर्थिक विकास की बात सोचते थे किंतु अब वे उनमें कमी आती देख रहे है । अत: जब मूल पूंजी मे ही कमी होने लग जाए तो फिर ऐसा आर्थिक विकास जो उसी पूंजी पर आधारित है वह भी प्रभावित होगा । श्रम भी पूंजीका एक महत्वपूर्ण स्रोत है । परंतु जब रोजगार के साधन ही सीमित हों, श्रम को कहीं मौका ही न मिले व उचित मूल्य भी न मिले तो उपरोक्त आधारों पर आर्थिक आत्मनिर्भरता नहीं पाई जा सकती । सम्पूर्ण हिमालयी उत्तराखंड श्रेत्र की भूगर्भीय कारणों से अस्थिर है । भूकम्पकीय व अन्य भूगर्भीय हलचलें जारी है । हिमालय अभी भी अपना संतुलन बना रहा है । भूस्खलन, भूकम्प व जलस्त्रोतो में परिवर्तन मानवजनित करणों से ही नहीं पर्यावरणीय कारणो से भी हो सकते हेै । ऐसे में विकास की परियोजनाआें के लिए यहां की विशिष्टाताआें एवं संवेदनताआें को देखते हुए विशेष पर्वतीय तकनीक की भी अवश्यकता है । सड़कें जो आर्थिक विकास का महत्वपूर्ण घटक मानी गई हैं के लिए तो पहाड़ो मे पर्वतीय जोखिम अभियांत्रिकी का उपयोग शुरु भी हो गया है । पर्वतीय क्षेत्रों में आर्थिक विकास के लिए वैकल्पिक ऊर्जा व परिवहन की आवश्यकता है । इससे एक लाभ यह भी होगा कि पर्यावरण और विकास के जिस द्वन्द्व में ये क्षेत्र फंसे उनसे बाहर निकल सकेंगे । सवाल यही उठता है कि प्रासंगिक विज्ञान व तकनीक व विकास के लिए उत्तराखंड व ऐसे ही अन्य पिछड़े क्षेत्रों में धन कहां से आएगा? यदि आर्थिक विकास के दौरान ही इन क्षेत्रों पर ध्यान नहीं दिया गया तो इनकी प्राकृतिक सम्पदा ही विपदा बन जाएगी । जमीन ही ढहते हुए भूस्खलनों के साथ घरों को तबाह कर देगी । कटते, जलते जंगल ही मौसम में परिवर्तन ले आएंगे । जल, जंगल, जमीन का ऐसा संबंध विकसित करना होगा कि इन क्षेत्रों में आपदाएं न आएं । आपदा प्रबंधन, वैश्विक स्तर पर भी संवेदनशील क्षेत्रों में एक आवश्यक विधा मानी जा रही है । कई बार हम समझते हैं कि हम विकास को कार्यान्वित कर रहे हैं किन्तु प्रत्युत्तर में इससे विनाश हो जाता है और खेती, जल स्त्रोतों से, वनों से, मवेशियों व शरीर से पूरी उत्पादकता प्राप्त् नहीं हो पाती है । इसके फलस्वरूप आर्थिक विकास का भयावह व अमानवीय चेहरा भी उभर आता है । पूरे विश्व में ऐसे अनेक उदाहरण है जब आर्थिक विकास तो होता है किंतु रोजगार व अन्य मानवोचित सेवाआें में गिरावट आती है । इसी के साथ प्रजातंत्र व आर्थिक आत्मनिर्भरता के संबंधों पर विशेष ध्यान देना होगा । खासकर ग्रामीण पिछड़े क्षेत्रों और पंचायती राज के अंतर्गत जहां उन्हें विकेन्द्रित नियोजित अनुशासित विकास को स्वयं के ही संसाधनों को जुटाकर या बढ़ाकर करने की न केवल सीख दी जाती है बल्कि उनसे इसकी अपेक्षा भी जाती है। पिछड़े व पहाड़ी क्षेत्रों में पंचायतों के पास ग्राम सभाआें में ही आय बढ़ाने के साधन, चुनावी प्रजातांत्रिक विवशताआें के बीच लोकप्रिय नहीं हुए । अत: आर्थिक आत्मनिर्भरता के आयाम में पंचायती राज की मजबूती के लिए यह जरूरी है कि जगह-जगह संसाधन विकास केन्द्र भी स्थापित हों । जब बाजार की बात आती है तो आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए यह भी जरूरी है कि राज्यों के पिछड़े क्षेत्रों के उत्पादों की खपत का बाजार हमेशा बाहर ही न ढूंढा जाए बल्कि इन क्षेत्रों के भीतर भी इन्हें बनाया जाये, इससे बाहरी अस्थिरता कम प्रभावित करेगी । स्थानीय आर्थिक आत्मनिर्भरता बढ़ाते समय स्थानीयजन के मनोविज्ञान, परम्परा व परिवेश का भी स्वाभाविक ध्यान रखना होगा । मार्टिन लूथर किंग के ये शब्द बहुत महत्वपूर्ण हैं कि `सारी प्रगति बहुत ही संवेदनशील संतुलन में रहती है और एक समस्या का निदान हमें दूसरी समस्या से सामना करवा देता है ।' फलस्वरूप इलाज मर्ज से ज्यादा खराब हो जाता है। आर्थिक विकास या आर्थिक आत्मनिर्भरता पाने के उपायोें को इन्हीं संदर्भो में भी देखना होगा । आर्थिक आत्मनिर्भरता के कुछ प्रतीक भी चुनौती के रूप में स्वीकार करने होंगे । जैसे आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी ने चरखा का प्रतीक लिया था । अत: यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि आर्थिक विकास हम किन आधारों व किन संसाधनों व किस वातावरण में कर रहे हैं। जैसे स्थाई सतत विकास की बात की जाती है वैसे ही आर्थिक आत्मनिर्भरता के विकास में भी सततता लाने का प्रयास होना चाहिए । आर्थिक आत्मनिर्भरता क्षणिक नहीं होनी चाहिए । घर जलाकर रोशनी करना अंधकार से लड़ने का बेहतर तरीका नहीं है । पिछड़े क्षेत्रों में आर्थिक आत्मनिर्भरता पाने के लिए कई तरह के उद्योगों की बात की जाती है । संबंधित क्षेत्रों में ऐसे प्रतिमानों के आदर्श स्थापित करने की जरूरत है जिन्हें क्षेत्रीय जन वास्तव में स्वीकार कर सकें । अत: खर्चो पर नियंत्रण भी आवश्यक है । महंगे तरीकों से आर्थिक आत्मनिर्भरता पाने की बहुत ज्यादा संभावनाएँ नहीं है । पूंजी को लेकर कई सवाल उठते हैं । जैसे यह पिछड़े क्षेत्रों में कैसे आएगी ? ज्यादा पूंजी कैसे पैदा होगी ? प्राकृतिक संसाधनों की भरपाई कैसे होगी व उनका बेकार जाना कैसे कम होगा और वह किस प्रकार नागरिकता के मूल्यों को मजबूती प्रदान करेगी ? यही वे प्रमुख प्रश्न है जिनका उत्तर खोजना क्षेत्रीय आत्मनिर्भर आर्थिक विकास के लिए अत्यंत जरूरी है ।***
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