कैसे हो अंतिम संस्कार ?
डॉ. ओ.पी.जोशी/डॉ.जयश्री सिक्का
जीवन के पश्चात एक ही स्थिति निश्चित है और वह है मृत्यु । अंतिम संस्कार के विभिन्न स्वरूपों से पर्यावरण के दूषित होने की संभावनाएं बढ़ती जा रही हैं । भूमि की कमी और घटते जंगलों ने इस समस्या को और भी अधिक विस्तारित कर दिया है । आवश्यकता इस बात की है कि अंत्येष्टि का कोई ऐसा सर्वमान्य तरीका ढूँढा जाए जो कि प्रदूषित रहित हो । लगभग सारी दुनिया में शवों के अंतिम संस्कार की समस्या बढ़ती जा रही है । प्राकृतिक संसाधन कम हो रहे हैं एवं पर्यावरण प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है । वर्तमान में दुनिया भर में अंतिम संस्कार की दो विधियां ज्यादा प्रचलित है उनमें एक, अग्नि को समर्पित करना और दूसरी, दफनाना । कहीं-कहीं पर जल समाधि की विधि भी अपनाई जाती है । अग्नि को समर्पित करने में टनों लकड़ी खर्च होती है एवं इससे निकली गैसें एवं राख वायु एवं जल प्रदूषण की समस्या पैदा करती है । संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के एक प्रारंभिक आकलन के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष डेढ़-दो करोड़ लोगों की मौत होती है एवं हिन्दू मान्यता प्राप्त् शवों को जलाने हेतु लगभग पांच करोड़ टन लकड़ी की आवश्यकता लगती है । सामान्यत: एक शव के अग्निदाह हेतु ३०० से ४०० किलो लकड़ी लगती है एवं बाद में ५०-६० किलो राख बचती है जिसे कहीं न कहीं जल स्त्रोत में डाली जाती है । इस प्रकार शव का अग्निदाह वन, वायुमंडल एवं जल स्त्रोत पर विपरीत प्रभाव डालता है । शवों को दफनाया जाना भी एकदम निरापद नहीं है क्योंकि यह प्रत्यक्ष रूप से भूमि को एवं परोक्ष रूप से जल स्त्रोतों को भी प्रभावित करता है । दुनिया के ऐसे देश जहां तापमान कम रहता है वहां शव के विघटन में दो वर्षो तक का समय लग जाता है । साथ ही शवों पर डाले गए कई सुगंधित पदार्थो में आर्सेनिक का प्रतिशत आधिक होने से यह भूगर्भीय जल को भी प्रदूषित करता है। साथ ही शवों को सुरक्षित रखने हेतु लगाया गया फार्मलडिहाइड भी जल के लिए खतरनाक साबित होता है । अमेरिकी पर्यावरणविदों के अनुसार शवों के दांतों में भरी गई डेंटल फीलिंग में उपस्थित पारा भी वायु एवं जल के लिए घातक है । अंत्येष्टि से जुड़ी तमाम सारी समस्याआें को देखते हुए वैज्ञानिक, पर्यावरणविद् एवं कई सामाजिक कार्यकर्ता एवं संगठन अब ऐसे प्रयासों में लगे हैं कि अंत्येष्टि की विधि पर्यावरण हितैषी एवं रास्ती हो । इस हेतु जो प्रयास किए जा रहे हैं उनमें से ज्यादातर इस बात पर आधारित हैं कि लकड़ी की खपत घटाई जाए एवं लकड़ी के स्थान पर अन्य ऊर्जा स्त्रोतों का उपयोग जैसे सीएनजी, एलपीजी एवं सौर ऊर्जा आदि को प्रचलन में लाया जाये । अंत्येष्टि में लकड़ी बचत का शायद प्रथम प्रयास लगभग ३५-४० वर्ष पूर्व मुम्बई के कुछ श्मशानों में किया गया था । तात्कालीन सिटी इंजीनियर श्री दाभोलकर ने मजबूत एवं मोटे लोहे की छिद्रों युक्त पेटी बनवाई थी । इसमें शवदाह की तुलना में लकड़ी की मात्रा आधी ही लगती थी । कुछ वर्षो बाद नई दिल्ली स्थित ऊर्जा पर्यावरण समूह के सी.पी. कृष्णन ने भी शवदाह हेतु एक ऐसी इकाई बनाई थी जिसमें लकड़ी की आधी बचत होती थी । इसकी लागत करीब १० हजार रूपए आती थी एवं ये इकाईयां शासकीय सहायता से हिमाचल प्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान एवं गुजरात के कुछ शहरों के श्मशानों में स्थापित की गई थी । इसी प्रकार लकड़ी बचाने का एक प्रयास ४-५ वर्ष पूर्व एक स्वयंसेवी संस्था मोक्षदा के संस्थापक अध्यक्ष एवं पेशे से सिविल इंजीनियर वी.के. अग्रवाल ने किया । शवदाह की इस पद्धति को मोखदा ही कहा गया । इस पद्धति में अष्टधातु का बना एक आयताकार छिद्र युक्त प्लेटफार्म होता है जो जमीन से लगभग एक डेढ़ फिट ऊँचा होता है । एक दिन में एक प्लेटफार्म पर पांच शवदाह संभव है । गंगा शुद्धिकरण योजना के तहत इस पद्धति का पहला प्लेटफार्म १९९२ में गंगा तट पर हरिद्वार के पास कनखल में लगाया गया था । बाद में छह राज्यों में ४० स्थानों पर ये प्लेटफार्म लगाए गए थे । संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने इस पद्धति को वैश्विक पर्यावरण सुधार कार्यक्रम में मान्य किया था । शवदाह में लकड़ी की बचत के साथ-साथ ऊर्जा के अन्य स्त्रोत जैसे विद्युत, सीएनजी, एलपीजी एंव सौर ऊर्जा के उपयोग पर भी सोचा गया एवं कुछ विधियां स्थापित भी की गई । शवदाह हेतु विद्युत चलित भटि्टयां देश के ज्यादातर नगरों एवं महानगरों के श्मशानों में लगाई गई । लंबी चिमनियों से निकले प्रदूषणकारी पदार्थ के कारण आसपास के क्षेत्र में दमा एवं श्वसन संबंधित रोग बढ़ने एवं मृतक के प्रति आस्था एवं देशभर में फैले विद्युत संकट के कारण यह पद्धति अभी भी उपेक्षित ही है । दिल्ली में सीएनजी की सुलभ उपलब्धता के कारण इसका प्रयोग शवहाद में किए जाने का प्रथम प्रयास निगम बोध घाट पर किया गया । यहां सीएनजी से संचालित ६ भटि्टयां लगाई गइंर् । विद्युत की तुलना में यह तीन गुना सस्ता है । निगम बोधघाट के बाद बेलारोड़ एवं पंजाबी बाग स्थित श्मशानों पर भी चार-चार सीएनजी की भटि्टयां लगाई गई थी । सूरत में तो शवदाह में सीएनजी का प्रयोग वर्षो से किया जा रहा है । सीएनजी का प्रयोग सफल होते देख एलपीजी के प्रयोग पर भी सोचा गया एवं मध्यप्रदेश की व्यावसायिक राजधानी इंदौर शहर के रामबाग श्मशान में एक वर्ष पूर्व एलपीजी चलित भट्टी शवदाह हेतु लगाई गई । इसमें एक शव के संस्कार में एक सिलेंडर की गैस लग जाती है । यहीं पर सन् २००३ से विदेशी तकनीक पर आधारित डीजल चलित भट्टी में शवदाह की व्यवस्था की गई थी । शवदाह हेतु सौर ऊर्जा के उपयोग पर प्रयास तो किए जा रहे हैं परंतु इनके उपकरण काफी महंगे हैं । काफी वर्षो पूर्व जवाहरलाल नेहरू वि.वि. नई दिल्ली के पर्यावरण विभाग में कार्यरत डॉ. जी.सी. पांडे ने सौर ऊर्जा से शवदाह की अवधारणा रखी थी । सन् १९९९ में गुजरात के बलसाड़ में विश्व का प्रथम सौर ऊर्जा आधारित शवदाह गृह बनाने की घोषण की गई थी । इस शवदाह गृह में ५० वर्गमीटर के कांच एवं स्टील से बनी सोलर डिश से सूर्य की किरणें परिवर्तित कर शव पेटी पर डालने की व्यवस्था की गई थी । शव के अग्निदाह से होने वाली पर्यावरण की हानियों को ध्यान में रखकर स्वर्गीय बाबा आमटे ने आनंदवन में अपने शव को दफनाकर उस पर वृक्ष लगाने की पद्धति १९७६ से अपनाई थी । सन् १९९९ में सेवाग्राम आश्रम में शांतिवन की स्थापना के साथ ही इसी के समान अंतिम संस्कार की वृक्ष जीवन क्रियाकर्म पद्धति प्रारंभ की गई जहां अभी तक ३० से अधिक लोगों का अंतिम संस्कार इससे किया जा चुका है । म.प्र. के प्रमुख सर्वोदयी कार्यकर्ता मणींद्र कुमार इसके कट्टर समर्थक हैं एवं उन्होंने इस पर एक छोटी पुस्तक मृत्यु से जीवन की ओर लिखी है। केचुआें से खाद बनाने वाले पुणे के प्रसिद्ध डॉ. उदय भवालकर केचुआें की ही मदद से अंत्येष्टि का प्रयास कर रहे हैं। कुछ वर्षो पूर्व लॉस एेंजिल्स में पर्यावरण मुद्दों पर आयोजित एक सम्मेलन में यह सुझाव रखा गया था कि शवों को एकत्र कर पृथ्वी सतह से २० हजार कि.मी. ऊपर अंतरिक्ष में फेंक दिया जाए जहां वे गुरूत्वाकर्षण के अभाव मेंघूमते रहेंगे । कुछ वैज्ञानिकोंने यह भी सुझाया था कि शरीर में ८०-९० प्रतिशत पानी होता है । अत: किसी सस्ती विधि से शव का निर्जलीकरण किया जावे एवं बाद में अंतिम संस्कार किया जावे तो काफी ऊर्जा बच सकती है । कुल मिलाकर यह माना जा सकता है कि शवदाह की कोई एक पद्धति सर्वमान्य नहीं हो सकती क्योंकि संसाधनों की उपलब्धता एवं आर्थिक स्तर में भिन्नताएं हैं । सस्ती एवं पर्यावरण हितैषी विधि ही भविष्य में मान्य की जावेगी । अमेरिका में तो अब लोग अपनी आर्थिक स्थिति अनुसार दफन की पूर्व योजना बना रहे हैं । एवरेस्ट नामक कम्पनी जो अमेरिका में पहली बार इस प्रकार का कार्य करेगी उसे अभी तक ६५ हजार आर्डर प्राप्त् हो चुके हैं । ***
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