अश्वत्थ वृक्ष की गुत्थी
डॉ. किशोर पंवार
पीपल का पेड़ काफी बड़ा होता है । मूल रुप से यह भारतीय पेड़ है जो जंगलो में प्राकृतिक रुप से पाया जाता है। वहीं मंदिरों और दरगाहो के अहाते में विशेष रुप से लगाया जाता है । यह एक पतझड़ी किस्म का वृक्ष है जिसकी सारी पुरानी पत्तियां फरवरी-मार्च में झड़ जाती है और पूरा पेड़ ऐसा लगता है कि शुष्क हवाआें के प्रभाव से सूख गाया हो। परंतु मार्च खत्म होते - होते नई कोपलें फूटती है और नई लाल-तांबई रंग की चमकदार पत्तियां शाखाआें पर अपना डेरा डाल लेती है । लगभग इसी समय इस पर अंजीर और गूलर जैसे फल लगते हैं जिन्हें पीपली कहते हैं। ये फल मई-जून तक पकते हैं। इस समय पीपली खाने वाले तरह-तरह के जीव-जंतुओ का डेरा जम जाता है । पेड़ पर सुबह-शाम बुल-बुल, मैना व कोयलों का जमघट लगा रहता है । गिलहरियां भी इधर-उधर कूदती-फांदती रहती है । बरगद की तरह पीपल के बीज भी पक्षियों की विष्ठा से निकलकर अंकुरित होते हैं और यही कारण है कि ये अक्सर पुराने भवन व पेड़ो की शाखाआें पर उगे नज़र आते है । जहां इन पक्षियों की बीट गिरती है ये बीज वहीं उग आते है । दूसरे बड़े पेड़ो की शाखाआें पर उगे पीपल के ऐसे पेड़ो को उपरिरोही कहते हैं। पीपली का एक ऐसा ही बड़ा पेड़ मैंने आम के पेड़ पर उगा देखा है । उस पेड़ से सटकर धीरे-धीरे इनकी जड़ें नीचे उतरती हैं और फिर ज़मीन से इनका संपर्क हो जाता है । कई बार आधार पेड़ मर जाता है । पीपल की पत्तियां बड़ी, हृदयाकार, चिकनी एवं चमकदार होती हैं। इनका डंठल बड़ा होता है और पत्तियों का सिरा भी बहुत लंबा, पतला, फीतेनुमा होता है । नई कोपलें चांदनी रात में ऐसे चमकती हैं जैसे हज़ारो दीपक जला दिए गए हों । पत्तियां लटकने वाली होती है और ज़रा-सी हवा चलने पर ही झूमने लगती है । इसकी पत्तियों को देखकर ही कहा गया है -बिन बोलाए मूरख बोलेबिन बयार के पीपल डोले । इसके पत्तो की फीते नोंके जब एक-दूसरे से आपस में टकराती हैं, तो ऐसा लगता है कि बारिश की बूंदे गिर रही है । कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि ये पत्तियां भगवान बुद्ध के उपदेशो को दोहरा रही हैं । उल्लेखनीय है कि पीपल ही वह वृक्ष है जिसके नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त् हुआ था जिसका प्राचीन नाम उरुवेला था । इस बोधि वृक्ष को बौद्ध जगत में बड़ा सम्मान प्राप्त् है । सातवीं शताब्दी में भारत आए चीनी धर्माचार्य ह्यू-एन-त्सांग ने अपने यात्रा वृतांत में इस बोधि वृक्ष के बारे में लिखा है ``इस अश्वत्थ वृक्ष के पत्ते पतझड़ और गर्मियों में भी नही झड़ते । केवल बुद्ध निर्वाण के दिन ही इसके पत्ते झड़ते हैं और दूसरे ही दिन इसमें नई कोपले फूट पड़ती है ।'' दरअसल बुद्ध पूर्णिमा मई में आती है और तब तक इसमें नई कोपलें फूट जाती है । सम्राट अशोक ने इस वृक्ष की रक्षा के लिए चारों और इंर्टो की दीवार बनवा दी थी । अशोक की पुत्री संघमित्रा २८८ ईसा पूर्व जब बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए श्रीलंका गई थी तब वे इसी बोधि वृक्ष की एक शाखा अपने साथ ले गई थी । इसे अनुराधापुर में समारोह पूर्वक रोपा गाया था । वह शाखा आज भी वहां विशाल वृक्ष के रुप में विद्यमान है । कई विद्वानों की धारणा है कि पीपल का ही दूसरा नाम अश्वत्थ है, भारतीय संस्कृति में पीपल को असाधारण पवित्र स्थान प्राप्त् है । वैदिक काल के पूर्व से ही पीपल को पवित्र और पूजनीय माना गया है । इसमें अनेक देवताआें का वास है, ऐसी श्रद्धा प्राचीन काल से भारतीय जन मानस में है। यही कारण है कि पीपल के वृक्ष को काटना पाप समझा जाता है । जहां एक और पीपल में अनेक देवताआें का वास माना गया है वहीं दूसरी तरफ यह धारणा भी है कि पीपल का वृक्ष तरह-तरह की आत्माआें का डेरा है । यह मृतकों की आत्माआें की प्यास बुझाता है। इसीलिए वर्ष के कुछ विशेष दिनों में पीपल को पानी से सींचते हैं, दुध चढ़ाते हैं । कुछ लोग यह भी मानते है कि पीपल के पेड़ पर अनेक तरह के भूत और अनिष्टकारी आत्माएं निवास करती है । कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि इस पेड़ पर देवताआें का वास हो या भूतोें का डेरा, इसे काटना उचित नहीं । यही संदेश समाज के बुद्धिमान लोगों ने समाज के सामान्य लोगोंतक पहुंचाया है । हमारा पवित्र पीपल ही थाईलैंड का `फो' भी है। थाई लोग भी इसकी पूजा करते हैं । इन्ही मान्यताआें के कारण ये पेड़ बचे हुए है । इसे ही `ट्री आफ लाईफ' भी कहा गया है । श्री कृष्ण ने गीता के दसवें अध्याय में अपने विभूति योग का वर्णन किया है वहां भी पीपल का जिक्र आया है । उन्होंने कहा है -अश्वत्थ: सर्व वृक्षाणाम अर्थात वृक्षों में मैं अश्वत्थ अर्थात पीपल हँू । गीता के पन्द्रहवें अध्याय में उन्होंने विश्व को अश्वत्थ वृक्ष की उपमा दी है :उर्ध्वमूलमध: शाखमश्वथं प्राहुरव्ययम । छंदांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्। वे कहते हैं, यह संसार रूपी वृक्ष बड़ा विचित्र है । इसकी जड़े ऊपर की ओर तथा शाखाएं नीचे की ओर गमन करने वाली हैं । विद्वान लोग जिस संसार रूपी पीपल को अविनाशी कहते हैं, जिसके पत्ते वेद कहे गए हैं, उस संसार रूपी वृक्ष को जो पुरूष समूल जानता है वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है । सवाल यह है कि क्या पीपल ही वह पेड़ है जिसका वर्णन श्री कृष्ण ने गीता में अश्वत्थ नाम से किया है । पीपल की जड़ें ऊपर की ओर नहीं होती । शाखाएं भी ऊपर की ओर ही वृद्धि करती हैं । पीपल अविनाशी भी नहीं है । इससे ज्यादा उम्र वाले वृक्ष हिन्दुस्तान में मिलते हैं, बरगद उनमें से एक हैं । पीपल की तुलना में बरगद की आयु ज्यादा होती है ।पन्द्रहवें अध्याय श्लोक तीन देखें -न रूपमस्येह तथोपलभ्यतेनान्तो न चार्दिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।अश्वत्थमेनं सुविरूठमूल मसङ शस्त्रेण दृढेन छित्वा ।। इस संसार रूपी वृक्ष का स्वरूप जैसा शास्त्रों में कहा गया है वैसा पीपल का नहीं होता । अश्वत्थ अनादि है अनंत है, अश्वत्थ सुविरूठमूल यानी मजबूत गहरी जड़ों वाला वृक्ष है । और इसका रूप विचित्र है । पीपल भारत का सबसे ज्यादा जाना पहचाना पेड़ है । यह हर शहर, हर कस्बे और गांव की चौपाल पर लगा मिलता है । तो फिर श्री कृष्ण ने यह क्यों कहा कि यह यहां नहीं मिलता । और पीपल की जड़ें ज्यादा गहरी भी नहीं जाती । आंधी तूफान में इसके पेड़ उखड़ जाते हैं । डॉ. एच. सांतापाड ने अपनी पुस्तक `कामन ट्री' में लिखा है कि पीपल ऐसी जगहों के लिए उपयुक्त नहीं है जहां भूमिगत जल काफी ऊपर हो, जैसे कोलकाता, मुंबई वगैरह । ऐसी जगहों पर इसकी जड़ें ज्यादा गहरी नहीं जातीं और जरा सी मानसूनी हवाएं चलने पर पेड़ उखड़ जाते हैं । यानी यह मजबूत जड़ों वाला नहीं हैं । पीपल तो दिखता भी अच्छा है यानी इसकी स्थिति, रूप रंग सभी अच्छा है परंतु गीता में जिस संसार रूपी अश्वत्थ का वर्णन श्री कृष्ण ने किया है वह तो ऐसा नहीं है । पीपल न तो उम्रदराज है, न ऊर्ध्वमूल है, न दृढ़मूल, न ही विचित्र रूपवाला । तो कहीं अश्वत्थ कोई और पेड़ तो नहीं है । विवेचना से तो लगता है कि पीपल अश्वत्थ नहीं हो सकता । तो फिर कौन हो सकता है कृष्ण का अश्वत्थ । इतना तो यह तय है कि पीपल एक सुंदर पर्णपाती किस्म का, गर्मियों में छाया, चारा व फल प्रदान करने वाला जीवनदायी भारतीय मूल का पेड़ है, जिसके नीचे गौतम तपस्या कर गौतम बुद्ध हुए और पीपल का पेड़ बोधि वृक्ष कहलाया । इसे भारत ही नहीं श्रीलंका, चीन, जापान, नेपाल, जहां-जहां हिंदू व बौद्ध अनुयायी रहते हैं वहां-वहां पूजा जाता है । गीता का उक्त वर्णन हमारे देशी पीपल पर लागू नही होता जिसे अश्वत्थ मान लिया गया है । और पीपल की जड़ों को काटने की बात (अश्वत्मेनं सुविरूढ़मूल, मसंग शस्त्रेण दृढ़ेन धित्वा) गले नहीं उतरत। जो पेड़ भारतीय संस्कृति में अनादिकाल से पवित्र और पूजनीय हो उसे उपमा के रूप में भी काटना उचित जान नहीं पड़ता। वर्णन के मुताबिक अश्वत्थ पीपल नहीं हो सकता । तो फिर कौन-सा पेड़ इस परिभाषा पर खरा उतरता है । इसका उत्तर प्रसिद्ध वनस्पति विज्ञानी के.एम. वैद के एक बहुत पुराने लेख में मिलता है, जो अपने जमाने की प्रसिद्ध साप्तहिक पत्रिका `धर्मयुग' में छपा था । उनके अनुसार अश्वत्थ भारतीय नहीं, अफ्रीकी मूल का पेड़ बाओबाब है । अफ्रीका में दुनिया का सबसे बड़ा, विचित्र आकृति का बहुत फैला हुआ वृक्ष मिलता है जिसे संसार का अत्यधिक विलक्षण पेड़ कहा गया है । यह उस जगह का वृक्ष है जहां मनुष्य का जन्म हुआ था। कहते हैं ब्रह्मा ने दुनिया बनाने के बाद सेमल के नीचे आराम किया था । उल्लेखनीय है कि सेमल व बाओबाब के पेड़ शल्मली द्वीप (अफ्रीका) में प्राकृतिक रूप से उगते हैं । (यह लगभग सिद्ध हो चुका है कि मनुष्य की उत्पत्ति अफ्रीका में हुई थी ।) ये दोनों पेड़ बोम्बेकेसी कुल के हैं । जिस तरह हमारे पीपल को पूजा जाता है ठीक उसी तरह अफ्रीका में बाओबाब को पूजा जाता है । बाओबाब को हम गोरख इमली के नाम से जानते हैं। पूजा उसकी होती है जो उपयोगी हो, मनोकामना पूरी करता हो, जिससे जीवन की आवश्यकताएं पूरी हो । बाओबाब से यह सब कुछ होता है । सूूखे में जहां कई किलोमीटर तक कोई वनस्पति नजर नहीं आती, वहां बाओबाब ही दिखते हैं । यह पतझड़ी वृक्ष है जो सूखे के सालों में कोई पत्ती धारण नहीं करता । इसका तना अति विशाल होता है, जिसका घेरा २० से ३० मीटर तक होता है । मोटे तने के नीचे से ही विशालकाय लंबी-लंबी शाखाएं निकलती है जो ३० मीटर तक क्षैतिज में फैलकर फिर नीचे की ओर आने लगती हैं । तना भूरे रंग की स्पंजी छाल से ढका रहता है, जो बारिश का ढेर सारा पानी सोख लेती है । इस पर साल में चार-पांच महीने ही पत्तियां रहती हैं । इसकी ऊपरी पतली- पतली शाखाएं जड़नुमा दिखाई देती हैं । ऐसी अवस्था में यह बिल्कुल ऊर्ध्वमूल लगता है । बारिश के समय पर बड़ी-बड़ी संयुक्त हस्ताकार पत्तियां लगती हैं जिन पर मुख्य रूप से पांच पत्रक होते हैं, पांच वेदों की तरह । भागवत पुराण में पांच वेद कहे गए हैं । ये पेड़ दीर्घजीवी हैं । अनादि, अनंत । कुछ पेड़ों की आयु ३००० से ४००० साल तक होती है । पीपल की आयु सैकड़ों वर्ष ही होती है । इसकी तुलना में ये अश्वत्थ अर्थात कभी मरने वाले ही हुए । इनकी जड़ें जमीन में कई मीटर गहरी जाती हैं ये जड़ें ही उसकी संप्रतिष्ठा है । यह वृक्ष आंधी-तूफान में भी नहीं उखड़ता । माइकेल एंडसन ने एक अफ्रीकी बाओबाब की जड़ों की गहराई ३५ मीटर तक देखी है । माइकेल एंडसन के नाम पर ही बाओबाब को एंडसोनिया डिजिटेटा नाम दिया गया है । गीता में कृष्ण ने जिस वृक्ष में अपनी विभूति बतलाई है, अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणाम कहा है, उसमें सुंदर सुगंधित फल न हों ऐसा कैसे हो सकता है । पीपल के फूल तो इतने छोटे होते हैं कि दिखाई ही नहीं देते और फल भी बहुत छोटे चने के फूल बड़े विलक्षण अद्भुत एवं सुंदर हैं । खिलने पर लंबाई-चौड़ाई १५ से.मी. पंखुड़ियां बड़ी-बड़ी मखमली सफेद । पुंकेसर का गुच्छा हल्का जामुनी रंगत लिए हुए होता है । ये सुंदर फूल दिन में नहीं, रात में खिलते है । यानी अश्वत्थ में सब कुछ विचित्र है, विलक्षण है, अुद्भुत है । इसके फल भी तुम्बी जैसे होते हैं । इसका छिलका कड़क और गहरा सुनहरी भूरा व रोएंदार होता है । इसके अंदर ढेर सारा खट्टा-सा गूदा भरा होता है जिसे क्रीम ऑफ टाइटर कहते हैं । पुराने जमाने में इसके फलों के खोल चांदी के सिक्के भरने के काम में आते थे अत: इसका एक नाम ज्यूडास बैग भी है । इस अश्वत्थ यानी बाओबाब के पत्तों और फलों को चित्रण एलोरा की गुफा नंबर ३२ में भी हुआ है । जहां इंद्रसभा का चित्रण हैं जिसमें पीछे की ओर एक वृक्ष दिखाया गया है । चित्र में फलों को तोड़ते हुए एक बंदर भी दिखाया गया है । ये चित्र अफ्रीका के बाओबाब से मिलते-जुलते हैं, पत्तियां भी फल भी । उल्लेखनीय है कि बाओबाब का एक नाम मंकीज़ ब्रेड भी है । यह बंदरों का प्रिय फल है । इन सब बातों से तो यही लगता है कि गीता में कृष्ण जिस अश्वत्थ की बात करते हैं वह पीपल नहीं, अफ्रीकी मूल का बाओबाब ही है क्योंकि अश्वत्थ के सारे गुणधर्म इसी से मेल खाते हैं । कृष्ण ने जिसे अपनी विभूति कहा हो वह कोई साधारण पेड़ कैसे हो सकता है । सवाल यह भी है कि तथाकथित समुद्र मंथन में जो कल्प वृक्ष निकला था कहीं वह यही बाओबाब तो नहीं था । वर्तमान में बाओबाब के पेड़ कोलकाता, लखनऊ , चेन्नै, उज्जैन, इंदौर, महू, और राजस्थान में पाए जाते हैं। कहा जाता है कि मुस्लिम शासक और समुद्री व्यापारी इसे अपने साथ भारत लाए थे और उन्होने की इसे भारत में फैलाया था । शायद यही कारण है कि जहां-जहां मुगलों का शासन रहा वहां और समुद्री किनारों पर यह पेड़ आम तौर पर पाया जाता है । ***
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