प्राचीन साहित्य में पेड़ पौधे
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
भारतीय संस्कृतिवृक्ष पूजक संस्कृति है । हमारे देश में वृक्षों में देवत्व की अवधारणा और उसकी पूजा की परम्परा प्राचीन काल से रही है । जहां तक वृक्षों के महत्व का प्रश्न है भारतीय प्राचीन ग्रंथ इनकी महिमा से भरे पड़े हैं । वृक्षों के प्रति ऐसा प्रेम शायद ही किसी देश की संस्कृति में हो जहां वृक्ष को मनुष्य से भी ऊंचा स्थान दिया जाता है। हमारी वैदिक संस्कृति में पौधारोपण एवं वृक्ष संरक्षण की सुदीर्घ परम्परा रही है । पौधारोपण कब, कहा और कैसे किया जाये, इसके लाभ और वृक्ष काटे जाने से होने वाली हानि का विस्तारपूर्वक वर्णन हमारे सभी धर्मो के ग्रंथों में मिलता है । हमारे प्राचीन साहित्य में सभी ग्रंथों में वन सुरक्षा और वन संवर्धन पर जोर दिया गया है । भारतीय संस्कृति में वृक्षों को भी देवता माना गया है । हमारे प्राचीन ग्रंथकारों की धारणा थी कि संसार में ऐसी कोई वनस्पति नहीं हैं जो अभैषज्य हो, इसलिये हरेक वृक्ष वन्दनीय है । पेड़ पौधों के प्रति ऐसे अप्रतिम अनुराग की दूसरों देशों में कल्पना भी नहीं की जा सकती है, जो कभी हमारे सामाजिक जीवन के दैनिक क्रियाकलापों का हिस्सा था । हमारे ऋषि मुनियों ने वनों में हरियाली के बीच रहकर गंभीर चिंतन- मनन कर अनेक ग्रंथों का निर्माण किया । वेदों से लेकर सभी प्राचीन ग्रंथों में वृक्ष महिमा में अनेक प्रसंग है, जो आज भी हमें प्रेरणा देते हैं । इसमें से कुछ प्रसंगों का यहाँ उल्लेख किया गया है -किन्नररोगरक्षांसि देवगन्धर्वमानवा: ।तथा ऋषिगणाश्चैव महीरूहान् ।।महाभारत अनु. पर्व ५८/२९ अर्थ - किन्नर, नाग, राक्षस, देवता, गन्धर्व, मनुष्य और ऋषियों के समुदाय ये सभी वृक्षो का आश्रय लेते हैं।अहो एषां वरं जन्म सर्व प्राण्युपजीवनम् ।सुजनस्येव धन्या महीरूहा येभ्योनिराशा यान्ति नार्थिन: ।।भागवत १०-२२-३३ अर्थ - समस्त प्राणियों को जीवन प्रदान करने वाले इन वृक्षों का जन्म कितना उत्तम है सज्जनों जैसे कितने धन्य हैं वे, जिनके पास से कोई याचक निराश नहीं लौटता है !छायामन्यस्म कुर्वन्ति तिष्ठन्ति स्वं ममातये ।फलान्यसि परार्थाय वृक्षा: सस्तपुरूषाइव ।।विक्रम चरितम् ६५ अर्थ - वृक्ष तो सज्जनों जैसे परोपकारी होते हैं । स्वयं धूप में खड़े हुए भी वे दूसरों को छाया देते हैं । इनके फल भी दूसरों के उपयोग के लिए ही होते हैं।इन्धनार्थ यदानीतं अग्निहोमं तदुच्येत ।छाया विश्राम पथिकै : पक्षिणां निलयेन च ।।पत्रमूल त्वगादिमिर्य औषर्ध तु देहिनाम् ।उष कुर्वन्ति वृक्षस्य पंचयज्ञ: स उच्यते ।।वराह पुराण, १६२-४१-४२ अर्थ - वृक्षों के पाँच महा उपकार उनके महायज्ञ हैं । वे गृहस्थों को इंर्धन, पथिकों को छाया एवं विश्राम-स्थल, पक्षियों को नीड़, पत्तो-जड़ों तथा छालों से समस्त जीवों को औषधि देकर उनका उपकार करते हैं ।पत्रपुष्पफलच्छायामूलवल्कलदारूभि: ।गन्धनिर्यासभस्मास्थितोक्मै: कामान् वितन्वते ।।श्रीमद्भागवत, स्कन्ध दशम्, अ.२२,श्लो. ३४ अर्थ - वृक्ष अपने पत्ते, फूल, फल, छाया, जड़, छाल, लकड़ी, गन्ध, गोंद, राख, कोयला, अंकुर और कोंपलों से भी प्राणियों की कामना पूर्ण करते हैं।पश्यैतान् महाभागान् परार्थैकान्तजीवितान् ।वातवर्षातपहिमान् सहन्तो वारयन्ति न: ।।श्रीमद्भागवत, स्कन्ध दशम्, अ.२२, श्लो. ३७ अर्थ - देखो, ये वृक्ष कितने भाग्यवान् हैं ! इनका सारा जीवन केवल दूसरों की भलाई करने के लिये ही है । ये स्वयं तो हवा के झोंके, वर्षा, धूप और पाला सब कुछ सहते हैं, फिर भी ये हम लोगों की उनसे रक्षा करते हैं ।अतीतानागतान् सर्वान् पितृवंशांस्तु तारयेत् ।कान्तारे वृक्षरोपी यस्तस्माद् वृक्षांस्तु रोपयेत् ।।शिवपुराण उमा संहिता -११/७ अर्थ - जो वीरान एवं दुर्गम स्थानों पर वृक्ष लगाते हैं, वे अपनी बीती व आने वाली सम्पूर्ण पीढ़ियों को तार देते हैं ।दशकूपसमो वापी, दशवापीसमो हृद: ।दशहृदसमो पुत्र:, दशपुत्रसमो द्रुम: ।।मत्स्यपुराण -५१२ अर्थ - दस कुआेंके बराबर एक बावड़ी, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र तथा दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष है ।धन्ते भरं कुसुमपत्र फलवनीनां, धर्मव्यथां वहति शीत भवांरूजं वा ।यो देहम् पर्यति वान्य सुखस्य हेतो:,तस्मै वदान्य गुरवे तरवे नमस्ते ।।भामिनी विलास ८६ अर्थ - हे तरूवर ! आप फूलों, पत्तों और फलों का भार वहन करते हैं, लोगों की धूप की पीड़ा हरते हैं और उनके ठंड के कष्ट मिटाते हैं । इस तरह दूसरों के सुख के लिये आप अपना तन समर्पित कर देते हैं । इन्हीं गुणों से आप उदार पुरूषों के गुरू हैं । अत: हे तरूवर! आपको मेरा नमस्कार है ।***
1 टिप्पणी:
I have never read such a beautiful article depicting our ancient literatures, so full of praise of plants and nature. Thank you, Sir.
एक टिप्पणी भेजें