बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

१२ महिला जगत

महिला वैज्ञानिकों की समस्यायें
विनीता बाला
कुछ वर्ष पहले की बात करें तो भारतीय महिला वैज्ञानिकों की कमी का ज़िक्र उनकी सालाना फोरम की बैठक में ही हुआ करता था । लेकिन कुछ वर्षोंा से चीजें बदल रही हैं, वह भी बेहतरी की दिशा में । वर्ष २००३ में भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, नई दिल्ली ने भारत में विज्ञान के क्षेत्र में कार्य कर रही महिलाआें की स्थिति का पता लगाने के लिए एक समिति का गठन किया था । लगभग इसी समय इंडियन एकेडमी ऑफ साइंस, बैंगलूर ने भी कुछ इसी तरह के व्यापक उद्देश्यों को लेकर विज्ञान में कार्यरत महिलाआें भौतिक शास्त्रियों ने १९९९ से ही अंतर्राष्ट्रीय नवाचारों में कंधे-से-कंधा मिलाकर अपनी हिस्सेदारी शुरू कर दी थी । इससे भी बहुत पहले सन् १९७३ में ही इंडियन वीमेन सांइटिस्ट एसोसिएशन (खथडअ) की स्थापना मुम्बई में हो चुकी थी । जिसकी सदस्य संख्या २०००से ज्यादा हैं । यह दु:खद है कि इतनी जल्दी शुरूआत हो चुकने और सदस्य संख्या के बाबजूद खथडअ ने महिलाआें को विज्ञान के क्षेत्र और में आगे लोने के लिए समक्ष दबाव समूह की तरह काम नहीं किया ।स्कूल छोड़ने की ऊंची दर, विज्ञान के क्षेत्र में कुशल महिलाआें की कमी, रोजगार के कम अवसरों और तरक्की की नवीन संभावनाआें को राष्ट्रीय स्तर तक एक चिंताजनक विषय के रूप में २१ वीं सदी में ही लिया गया । इस क्षेत्र में एक बड़ा कदम उठाते हुए विज्ञान एवं टेक्नॉलॉजी मंत्रालय ने दिसम्बर ०५ विज्ञान में महिलाआें पर एक टास्क फोर्स गठित किया । इसका प्रमुख कार्य ऐसी सलाह देना था जो लैंगिक समानता लाने,महिलाआें की क्षमताआें के हो रहे-नुकसान को बचाने और महिलाआें को विज्ञान एक कैरियर के रूप में अपनाने हेतु प्रोत्साहित करने में मददगार हो भारतीय महिला वैज्ञानिकों की स्थिति अन्य विकसित और विकासशील देशों की महिला वैज्ञानिकों से बहुत अलग नहीं है । बल्कि महिला वैज्ञानिकों को जिन समस्याआें का सामना करना पड़ रहा है लगभग वैसी ही परिस्थितियां अन्य भारतीय कामकाजी महिलाआें के साथ भी बनती हैं । भारत जैसे पितृसत्तात्मक समाजों में महिलाआें की भूमिका पुरूष के सहयोगी या अधीनस्थ की रही है । परिवार में उसका मुख्य काम अन्य लोगों की देखभाल करना और सेवा करना है, न कि पैसे कमाना । हर परिवार बालिका के आगमन पर खुशी नहीं मनाता जैसा कि वर्ष २००१ की जनगणना से प्राप्त् लिंग अनुपात के आंकड़े बताते हैं । आंकड़ों के अनुसार शहरी भारत में ०-६ वर्ष के बीच १००० बालकों पर सिर्फ ९०६ बालिकाएं हैं । अलबत्ता, शहरी मध्यम वर्गीय परिवार अपनी लड़कियों को शिक्षा दिलाने के प्रति उत्साहित हैं । वर्ष २००१-०२ में भारतीय विश्वविद्यालयों में विज्ञान क्षेत्र में हुए कुल नामांकन का ३९.४ प्रतिशत हिस्सा लड़कियों का था। लेकिन विज्ञान में उच्च् शिक्षा प्राप्त् करने से सामाजिक सोच नहीं बदलता । विज्ञान में एक उच्च् शिक्षित मां अपने बच्च्े की शिक्षा के समय उसकी अच्छी मददगार जरूर साबित हो सकती है लेकिन उसे इतनी स्वतंत्रता नहीं है कि अपनी उन्हीं क्षमताआें का उपयोग बाहर एक नौकरी में कर सके ।ऐसे परिवारों में भी, जहां महिलाएं काम कर रही हैं और अपनी आय से परिवार की बेहतर जीवन शैली में भरपूर योगदान दे रही हैं, वहां भी उनकी आय को सिर्फ द्वितीयक आय के रूप में ही देखा जाता है । शहरी मध्यम वर्गीय भारत का आकार लगातार बढ़ता जा रहा है और ये उन्ही परिवारों का समूह है जो विज्ञान और टेकनॉलॉजी को सबसे ज्यादा महिला कर्मी उपलब्ध करा रहा है । यदि सभी शिक्षित मध्यमवर्गीय कामकाजी महिलाआें की समस्याएं एक ही सामाजिक मानसिकता की उपज हैं तो ऐसे में महिला वैज्ञानिकों को अलग से विेशेष तरजीह देने की ज़रूरत बनती है क्या ? मुझे लगता है कि उनके विशेष कामकाज के चलते शायद यह ज़रूरत बनती है । विज्ञान एवं टेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में अनुसंधानकर्ता का काम एक ऐसा काम है जिसमें खोज के विषयक े बारेमें लगातार पढ़ते रहना पड़ता है, चिंतन करना पड़ता है, लगातार अपने ज्ञान को उन्नत करते हुए उसे सुदृढ़ करना पड़ता है । इस क्षेत्र में सम्मानजनक उत्पादकता हासिल करने के लिए अत्यधिक मानसिक दबाव होता है और समय की जरूरत पड़ती है । यदि विज्ञान से जुड़ी महिलाआें से ८ घण्टे के सामान्य कार्यालयीन समय की ही उम्मीद की जाए क्योंकि उसके ऊपर घर परिवार और बच्चें की जिम्मेदारियां भी हैं तो वह अपने कार्यक्षेत्र में अन्य लोगों से मिलने-जुलने व अन्य काम करने का समय नहंी निकाल पाएगी और बहुत हद तक संभावना है कि वह अपने पुरूष सहकर्मियों के बराबर सफल नहंी हो सकेगी । यदि नौकरी मिलने के बाद भी महिला वैज्ञानिक स्वयं को अपने नियोक्ता को कार्य संतुष्टि नहंी दे पाती तो इसमें नुकसान किसका है ? वास्तव में यह सिर्फ संस्था और कर्मचारी का नहंी बल्कि समाज का भी नुकसान है क्येांकि ये महिलाएं काफी खर्च करके तैयार किए गए कार्यकर्ता दल की सदस्य हैं । सामान्यतया उनका प्रशिक्षण या तो शासकीय या शासकीय सहायता प्राप्त् संस्थाआें में हुआ होता है । विज्ञान और टेक्नॉलॉजी में स्नातकोत्तर उपाधि हो या डॉक्टरेट, इसे करने वाले व्यक्ति द्वारा और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सरकार द्वारा काफी धन खर्च किया जाता है ।और अब यदि यह महिलाकर्मी अनुत्पादक साबित हो या उसका पूरा और सही उपयोग न हो, तो यह राष्ट्रीय सम्पदा की भारी क्षति है । क्या किया जाए ? हाल ही में यह बात देखने में आई है कि विज्ञान स्नातक कोर्सेज़ में दाखिला लेने वाले लड़के और लड़कियों के अनुपात में शहरी मध्यमवर्गीय परिवारों में ज्यादा अंतर नहीं है । इनमें बहुत अधिक और दुखद अंतर सामाजिक रूप से पिछड़े लेगों में देखा जाता है जहां लड़कियों का स्कूलों में प्रवेश ही बहुत कम संख्या में हो पाता है । आगे बढ़ने पर यह संख्या तो और भी निम्न स्तर तक पहुंच जाती है । इसी तरह का एक बड़ा महिला श्रम शक्ति का नुकसान डॉक्टरेट व उसके बाद देखा जा सकता है । जीव विज्ञान की कुछ प्रतिष्ठित संस्थाआें से प्राप्त् आंकड़ों से जो तस्वीर बनती है उसके अनुसार पी.एच.डी. के लिए होने वाले कुल नामांकन में से ५० प्रतिशत महिलाएं हैं । इन संस्थाआें में फैकल्टी के रूप में लगभग २५ प्रतिशत महिलाएं कार्यरत हैं । प्राकृतिक विज्ञान की अन्य शाखाआें में भी लगभग यही आंकड़े होंगें । विज्ञान के क्षेत्र में ऊँची से ऊँची डिग्रियां लेने में आगे रहने के बावजूद केवल कुछ महिलाएं ही क्षमता के अनुरूप व्यवसायिक अवसर प्राप्त् कर पाती हैं । स्थिति तब और बदतर हो जाती है जब इतना सब कुछ करने के बावजूद बच्चें के लालन-पालन की सारी जिम्मेदारी सिर्फ उन्हीं के सिर थोप दी जाती है । इस प्रकार भारतीय विज्ञान संगठनों के समक्ष बड़ी चुनौती विज्ञान में उच्च् शिक्षित महिलाआें की उपलब्धता की नहीं है, बल्कि यह है कि उन्हें चुनकर काम में शामिल करें और नौकरी में बरकरार रखें यदि कोई शादीशुदा युगल इस क्षेत्र में नौकरी कर रहा है या नौकरी की तलाश कर रहा है तो हमारे पास कुछ ऐसी नीतियां होनी चाहिए कि उन्हें एक ही संस्थान या शहर में काम उपलब्ध कराया जा सके ।किसी व्यक्ति के संभावित नियोक्ता यह कदम उठा सकते हैंउसकी पत्नी/पति को भी वही रोजगार मिल जाए ताकि कार्यबल में महिलाआें का प्रवेश बढ़ाया जा सके । परिसर में ही रहने की व्यवस्था यकीनन उनके जीवनस्तर को सुधार सकती है ।परिसर में ही घर देते समय संस्थाएं महिलाआें को वरीयता दें । यदि अच्छे साफ सुथरे बालगृह और डे-केयर होम्स जैसी सुविधाएं घर या कार्यस्थल के नज़दीक उपलब्ध कराई जा सके तो यह एक और मददगार कदम होगा। बच्च्े जब तक कुछ बड़े न हो जाएं तब तक उन्हें शिशु पालन भत्ता उपलब्ध कराना एक अन्य सुविधा हो सकती है । महिलाआें के लिए स्वस्थ और अनुकूल वातावरण उन्हें काम के लिए प्रोत्साहित कर सकता है । इसके लिए संस्था मे ंसमय-समय पर जेंडर संवेदनशील कदम जरूरी है । किसी भी संस्था में काम का महिला - अनुकूल वातावरण और समुचित सुरक्षा उपलब्ध कराना संस्था प्रमुख की जिम्मेदारी होनी चाहिए ।विकल्प जरूरी कुछ महिलाएं पोस्ट - डॉक्टरल प्रशिक्षण के बाद विज्ञान से अपना नाता तोड़ लेती हैं क्योंकि एक अंतराल के बाद उन्हें फिर से काम नहीं मिल पाता । इस प्रकार से प्रशिक्षित महिला शक्ति की हानि को कम से कम किया जाना चाहिए । देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग तरह के रिफ्रेशर कोर्स चलाए जा सकते हैं, इस तरह से स्थानीय रोजगार की जरूरतों को भी पूरा किया जा सकता है । जहां विज्ञान में मिली शिक्षा का अधिक लाभ मिल सके । जैसे - विधि और पेटेन्ट नियम की जानकारी , विज्ञान पत्रकारिता आदि । कई ऐसे काम हैं जो पार्ट-टाईम आधार पर दो कर्मचारियों द्वारा आसानी से किए जा सकते हैं । ऐसे कार्योंा के लिए दो महिलाआें का चयन कर उन्हें यह ज़िम्मेदारी सौंपी जा सकती हैं । यह एक सकारात्मक कदम होगा । कुछ काम ऐसे भी होते हैं जिनके कार्य समय में शिथिलता दी जा सकती है । ऐसे कामों में महिलाआें को प्राथमिकता दी जानी चाहिए । पितृत्व अवकाश जो प्रत्येक बच्च्े के जन्म के बाद पिता को उपलब्ध कराया जाता है , भारत में बहुत कम लोग इसका लाभ उठाते हैं । इसमें कुछ सुधार करते हुए इन छुटि्टयों को चाइल्ड केयर के नाम से बढ़ाकर कुछ वर्षोंा का किया जा सकता है ताकि इसका वास्तव में सदुपयोग हो सके और महिलाआें को भी रोज़गार में अपनी पुरानी स्थिति को बरकरार रखने में मदद मिल सके । इस बात का हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि कामकाजी महिलाआें को काम में बहुत से विकल्पों की ज़रूरत होती है । ऐसे में योजना बनाने और उन्हें लागू करने वालों की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि उन्हें विधि विकल्प उपलब्ध कराए ।फायदा किसे होगा महिलाओ को विज्ञान के क्षेत्र में बनाए रखने और उन्हें वापस लाने के लिए अपनाए जाने वाले उपायो और तरीकों की घोषणाएं बहुत ही महत्वपूर्ण साबित हो सकती है । ऐसा होने पर उन सरकारी एवं शासकीय वित्त पोषित संस्थाआें का वास्तविक मतलब भी निकल सकेगा । पिछले एक दशक पर नज़र डालें तो विज्ञान और टेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में हो रहे ज़्यादातर विकास निजि संसाधनों से हो रहे हैं । इनमें सूचना प्रौद्योगिकी, दवा कंपनियों,क्लीनिकल शोध संस्थाआें और बायोटेक संस्थानों और रोज़गार के अवसरों का सृजन हो रहा है । ये इसी प्रकार आगे भी प्रगति करते रहेंगें क्योंकि वर्तमान वैश्विक मंदी ज़्यादा दिनों नहीं टिकने वाली ऐसे परिवेश में प्रशिक्षित महिलाआें को कुछ अतिरिक्त सुविधाएं देकर कार्य में बरकार रखना निजी संस्थाआें के लिए भी लाभप्रद होगा । ऐसे उपायों की सिर्फ घोषणा कर देना ही काफी नहंी है बल्कि एक ऐसे निगरानी तंत्र की ज़रूरत भी होगी जो दक्षता संवर्धन के लिए उपलब्ध कराई जा रही सेवाआें को लागू करने के आंकड़े इकट्ठे कर प्रत्येक पांच वर्षोंा में इनका परीक्षण और प्रभाव का अध्ययन करे, आवश्यक होने पर इनमें बदलाव की सिफारिश करे । महिला शक्ति के बिखराव को रोककर उसका संचय कर विज्ञान के क्षेत्र में काम कर रही प्रशिक्षित महिलाआें के अनुपात को बढ़ाना सिर्फ महिलाआें के हित में ही नहीं बल्कि पूरे समाज के हित में है । इससे न सिर्फ हमारी अर्थव्यवस्था को फायदा होगा बल्कि सामाजिक विकास भी आएगा । जितनी अधिक महिलाएं आर्थिक स्तर पर स्वतंत्र, स्वायत्त और आत्मनिर्भर होगी, समाज में उतनी बेहतर लिंग समानता स्थापित हो पाएगी । ***पाठकों से पर्यावरण डाइजेस्ट की सदस्यता अवधि समाप्त् होने पर भी अभी तक जिन सदस्यों ने अपनी सदस्यता का नवीनीकरण नहीं कराया है, वे शीघ्र ही राशि भेजकर नवीनीकरण करवा लें ।- प्र. सम्पादक

कोई टिप्पणी नहीं: