भोजपत्र पत्ता है या छाल ?
डॉ. किशोर पंवार
भोजपत्र का ख्याल आते ही उन प्राचीन पांडुलिपियों का विचार आता है जिन्हें भोजपत्रों पर लिखा गया है । दरअसल कागज की खोज के पूर्व हमारे देश में लिखने का काम भेाजपत्र पर किया जाता था। गौरतलब है कि भोजपत्र पर लिखा हुआ सैकड़ों वर्षोंा तक वैसा ही रहता है । हमारे देश के कई पुरातत्व संग्रहालयों में भोजपत्र पर लिखी गई सैकड़ों पांडुलिपियां सुरक्षित रखी हैं । जैसे हरिद्वार के गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय का संग्रहालय । हाल ही मुझे भोजपत्र देखने का मौका मिला । कालिदास ने भी अपनी कृतियों में भोज-पत्रों का उल्लेख कई स्थानों पर किया है । उनकी कृति कुमारसंभवम् में तो भोजपत्र को वस्त्र के रूप में उपयोग करने का जिक्र भी है । भोजपत्र का उपयोग प्राचीन रूस में कागज़ की मुद्रा `बेरेस्ता' के रूप में भी किया जाता था । इसका उपयोग सजावटी वस्तुआें एवं चरण पादुकाआें -जिन्हें `लाप्ती' कहते थे -के निर्माण में भी किया जाता था । सुश्रुत एवं वराह मिहिर (५००-५५० ईसवी) में भी भोजपत्र का जिक्र किया है । भोजपत्र का उपयोग काश्मीर में पार्सल लपेटने में और हुक्कों के लचीले पाइप बनाने में भी किया जाता था । वर्तमान में भोजपत्रों पर कई यंत्र लिखे जाते हैं । दरअसल भोजपत्र भोज नाम के वृक्ष की छाल का नाम है, पत्ते का नहीं। इस वृक्ष की छाल ही सर्दियों में पतली - पतली परतों के रूप में निकलती है जिन्हें मुख्य रूप से कागज़ की तरह इस्तेमाल किया जाता था । भोज वृक्ष हिमालय में ४५०० मीटर तक की ऊँचाई पर पाया जाता है । यह एक ठंडे वातावरण में उगने वाला पतझड़ी वृक्ष है जो लगभग २० मीटर तक ऊँचा हो सकता है । दूसरा नाम (बहुवल्कल) ज़्यादा सार्थक है - बहुवल्कल यानी बहुत सारे वस्त्रों /छाल वाला वृक्ष । भोज को अंग्रेजी में हिमालयन सिल्वर बर्च और विज्ञान की भाषा में बेटूला युटिलिस कहा जाता है । यह वृक्ष बहुउपयोगी है । इसके पत्ते छोटे और किनारे दांतेदार होते हैं । वृक्ष पर शहतूत जैसी नर और मादा रचनााएं लगती हैं जिन्हें मंजरी कहा जाता है । छाल पतली, कागजनुमा होती है जिस पर आड़ी धारियों के रूप में तने पर मिलने वाला लेंटीसेल्स (वायुरन्ध्र) बहुत ही साफ गहरे रंग में नज़र आते हैं । यह लगभग खराब न होने वाली होती है क्योकि इसमें रेज़िनयुक्त तेल पाया जाता है । छाल के रंग से ही इसके विभिन्न नाम (लाल, सफेद, सिल्वर और पीला) बर्च पड़े हैं । भोज के पेड़ हल्की, अच्छी पानी की निकासी वाली अम्लीय मिट्टी में अच्छी तरह पनपते हैं । इकॉलॉजी के लिहाज से इन्हें शुरूआती (पायोनियर) माना जाता है । आग या अन्य दखलअंदाजी से ये बड़ी तेजी से फैलते हैं । भोज से कागज़ के अलावा इसके अच्छे दाने वाली, हल्के पीले रंग की साटिन चमक वाली लकड़ी भी मिलती है। इससे वेनीर और प्लायवुड भी बनाई जाती है । बेटूला वेरूकोसा (मैसूर बर्च)से उम्दा किस्म की लकड़ी प्राप्त् होती है । छोटे रेशों के कारण उसकी लुगदी से टिकाऊ कागज़ भी बनता है । बर्च की लकड़ी का उपयोग ड्रम, सितार, गिटार आदि बनाने में भी किया जाता है । बेलारूस, रूस, फिनलैंड, स्वीडन और डेनमार्क तथा उत्तरी चीन के कुछ हिस्सों में बर्च के रस का उपयोग उम्दा बीयर के रूप में होता है । इससे ज़ाइलिटाल नामक मीठा एल्कोहल भी मिलता है जिसका उपयोग मिठास के लिए होता है । बर्च के पराग कण एलर्जिक होते हैं । पित्त ज्वर से प्रभावित कुछ लोग इसके परागकणों के प्रति संवेदी पाए गए हैं । सफेद बर्च पर उगने वाले मशरूम कैंसर के उपचार में उपयोग में लाया जाता है । बर्च की छाल में बेटूलिन और बेटुलिनिक एसिड और अन्य रसायन मिले हैं । जो दवा उद्योग में उपयोगी पाए गए हैं । आचार्य भाव मिश्र (१५००-१६००) रचित भाव प्रकाश निघंटु के अनुसार इसकी छाल का उपयोग वातानुलोमक एवं प्रतिदूषक होता है ।इसे कामला, पित्त ज्वर में दिया जाता है । कर्णस्राव एवं विषाक्त व्रण प्रक्षालना में भी इसका उपायोग होता है । इसके पत्ते उत्तेजक एवं स्तम्भक माने जाते हैं । भारतीय वन अनुसंधान केंद्र देहरादून के वैज्ञानिक कहते हैं कि भोजपत्र का उपयोग दमा और मिर्गी जैसे रोगों के इलाज में किया जाता है । उसकी छाल बहूुत बढ़िया एस्ट्रिन्जेट (कसावट लाने वाली) मानी जाती है इस कारण बहते खून और घावों को साफ करने में इसका प्रयोग होता है । उत्तराखण्ड में गंगौत्री के रास्ते में १४ किमी पहले भोजवासा आता है । भोजपत्र के पेड़ों की अधिकता के कारण ही इस स्थान का नाम भोजवासा पड़ा था परंतु वर्तमान में इस जगह भोज वृक्ष गिनती के ही बचे हैं । यही हाल गंगोत्री केडनास दर्रेंा का भी है । सन् २००७ में डेक्कन हेराल्ड में छपी रिपोर्ट के अनुसार यह पेड़ विलुिप्त् की कगार पर है । इसे सबसे ज्यादा खतरा कांवरियों से है जो गंगोत्री का पानी लेने आते हैं और भोज वृक्ष को नुकसान पहुंचाते हैं । इस बहुउपयोगी वृक्ष के अति दोहन से उसके विलुप्त् होने का खतरा पैदा हो गया है । भोज वृक्ष के संरक्षण से जुड़ी हर्षवन्ती विष्ट का कहना है कि इंर्धन के लिए भोजवृक्ष की लकड़ी का दोहन इस खतरे को बढ़ा रहा है । उन्होंने उसे बचाने के लिए `सेव भोजपत्र' (भोजपत्र बचाओ) आंदोलन चलाया है । उत्तराखण्ड में भोजवासा में ५.५ हैक्टर क्षेत्र को कंटीले तारों की बागड़ लगाकर स्थानीय स्तर पर संरक्षण के प्रयास किए जा रहे हैं । भोज हमारी प्राचीन संस्कृति का परिचायक वृक्ष है । यह हिमालयीन वनस्पतियों का एक प्रतिनिधि पेड़ है । अति महत्वपूर्ण्ण औषधि गुणों से भरपूर इस वृक्ष को बचाना जरूरी है । ***विलुप्त् प्रजाति के मेमने का क्लोन वैज्ञानिक ों के एक प्रयोग ने पशुआें को विलुप्त् प्रजातियों के फिर से प्रकट होने की संभावना पैदा कर दी है । संरक्षित उत्तक की क्लोनिंग से स्पेन के वैज्ञानिकों ने एक विलुप्त् प्रजाति की जंगली बकरी (पीरेनीन इबेक्स) को तैयार कर दिया है । इस प्रयोग में लगभग उसी तकनीक का प्रयोग किया गया जिससे पहली बार क्लोनिंग के जरिए भेड़ डॉली को तैयार किया गया था । पीरेनीन इबेक्स प्रजाति की अंतिम ज्ञात बकरी के वर्ष २००० में उत्तरी स्पेन में मौत के बाद उसे आधिकारिक तौर पर विलुप्त् घोषित कर दिया गया था, लेकिन सौभाग्य से वैज्ञानिकों ने उसकी मौत से पहले उसकी त्वचा का नमूना तरल नाइट्रोजन में संरक्षित कर लिया था जिससे डीएनए निकालकर घरेलू बकरियों के अंडाणुआें को जैविक तत्व की जगह डाल दिया । इस अंडाणु से बने भ्रूण को फिर बकरी के गर्भ में प्रत्यारोपित कर दिया गया इस तरह जिस मेेमने का जन्म हुआ,वह पीरेनीन इबेक्स प्रजाति की बकरी थी।
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