डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
आज हम यह बात शिद्दत से समझ चुके है कि हमारी हर समस्या के मूल में बढ़ती हुई आबादी है । पर्यावरण तो इस जनाधिक्य से सीधे तौर पर प्रभावित है । हम यह भी जानते हैं कि प्रकृति अपनी परिवर्तनशील गत्यात्मकता से आत्म नियमन द्वारा हर विद्रूप स्थिति से स्वयं ही उबरती है । अब जबकि हम तमाम प्रयासों के बाद भी जनसंख्या को नियंत्रित नहीं कर सके और थक हार कर इस मुद्दे पर उदासीन भी हो गये है तब प्रकृति को ही अंकुश लगाना पड़ा । अकंुश बना है मानुषीकृत अतिशय प्रदूषण । पैर पसार रही है प्रदूषण जनित नपुंसकता जिससे घट रही है मानुषी प्रजनन क्षमता । यही है प्रकृति की शक्ति का जनाधिक्य पर अंकुश । अध्ययन के अनुसार पुरूषों तथा स्त्रियों में प्रजनन क्षमता की दर में होने वाला ह्रास हमारा ध्यान अपनी ओर खींचने लगा है । जब हम घर, पास पडौस और समाज पर दृष्टिपात करते है तो पाते है कि हर पाँचवा युगल गर्भ धारण सम्बन्धित समस्या से ग्रसित है और अपनी संतान प्रािप्त् हेतु तरस रहा है । अपनी संतान की चाहत होना प्रत्येक जीव का नैसर्गिक गुण है और संतान देकर पितृ ऋण से उऋण होने का विधान शास्त्र सम्मत है । किन्तु प्रकृति के प्रति हमारा अनुचित व्यवहार ही प्रकृति प्रतिशोध के रूप में हमारे सामने आ रहा है, जो हमें तरसा रहा है । प्रकृति की गत्यात्मकता में उसकी सकारात्मक तथा नकारात्मक शक्तियों का द्वैत ही सहायक होता है । घटती प्रजनन क्षमता में वहीं अपनी भूमिका निभा रहा है । जनाधिक्य जनित पर्यावरणीय प्रदूषण प्रकृति के इस कार्य को अंजाम तक पहँुचा रहा है। जब हम आदिम से आदमी हुए और आधुनिक सभ्यता के मापदंडो के अनुसार हमें मनुष्य कहलाने का अधिकार मिला तो हमने अपने अधिकारों का दुरूपयोग करते हुए प्रकृति को सहचरी के स्थान पर अनुचरी समझने की भूल की । हम विकास और विनाश के अंतर को ही भुल गये । उत्तरोत्तर विकास के पायदान चढ़ते हुए हम स्वयं ही प्रदूषण की चपेट में आकर विषमयता से घिर गये और कर रहें हैं अनचाहा विषपान बन रहे हैं जान कर अंजान । यही कारण है कि प्रदूषणकारी पूतना हमारे शिशुआें को जन्म ने से पूर्व ही भ्रूणावस्था में ही मार रहीहै । विचारणीय प्रश्न यह है कि किस प्रकार विष तत्व हमें नुकसान पहुँचा रहे हैं हम अपना पुंसत्व खोते जा रहे हैं ? क्यों हैं नवयुगल प्रजनन हेतु अक्षम ? संयुक्त राष्ट्र संघ की रपट के मुताबिक वर्तमान में कोई भी गर्भ पूर्ण सुरक्षित नहीं है । भ्रूण शिशु के लिए गर्भ वह कारा होती है, जिसमें वह माँ के माध्यम से संसार से संवाद रखता है । माँ का गर्भ ही शिशु के लिए छोटी सी दुनिया होती है । बाह्य वातावरण का प्रदूषण माँ के गर्भ में पल रहे शिशु को भी विचलित करता है । गर्भ धारण से लेकर भ्रूणीय विकास तथा सुरक्षित प्रसव तक सभी क्रियाएँ बड़ी ही संवेदनशील एवं जटिल होती है । भ्रूणीय शिशु और उसकी माँ के माध्यम रक्त में घुले हार्मोंास द्वारा ही मार्मिक संवाद होता है । किन्तु प्रदूषण ने माँ की ममता पर आघात किया है । विषाक्त पदार्थ वैज्ञानिक शब्दावली में ``टेरोटोजेन्स'' कहलाते है । इनके घातक प्रभाव से स्पान्टेनियस एर्बोसन (अचानक गर्भपात), स्टिल बर्थ (मृत शिशु का जन्म) अथवा नियोनटल डेथ (जन्म के तुरन्त बाद शिशु की मृत्यु) की घटनाएं नित्य सामने आ रही है । यदि जन्म के बाद बच्च जीवित रहता भी है तो व्याधिग्रस्त एवं कमजोर होता है । आज हमको पग पग पर प्रदूषण का सामना करना पड़ रहा है । चाहे कृषि की बात हो अथवा औद्योगिकीकरण की, हर ओर से प्रदूषणकारी तत्व हमारे पर्यावरण में समा रहे हैं जो जल वायु जमीन मिट्टी और यहाँ तक कि हमारे भोजन में भी विषाक्त तत्वों को भर रहेहैं । हम जहर को कितना आत्मसात कर रहे हैं यह हमें पता ही नहीं चलता । यह प्रदूषणकारी तत्वों का विष भ्रूण के विकास को ही प्रभावित नहीं करते वरन् माँ और भ्रूणशिशु के मध्य सेतु जाते हैं । गर्भनाल एक फिल्टर की तरह कार्य करता है किन्तु विष तत्व गर्भनाल के फिल्टर को भी धोखा देकर भ्रूण तक पहुँच जाते हैं यही कारण है कि गर्भस्थ शिशु बाह्य पर्यावरण से आहत हो रहा है । विशेषज्ञों के अनुसार प्रदूषकों का अणुभार एवं रासायनिक संरचना गर्भस्थ शिशु के आहार से मिलती जुलती है । इसी कारण से घातक तत्व भी गर्भ नाल के माध्यम से गर्भ तक पहुँच जाते हैं । यद्यपि पर्यावरण के प्रदूषक तत्वों के प्रति हर महिला की प्रभाविता हर वक्त रहतीहै तथापि विकृत जीवन शैली के कारण विषाक्त पदार्थ प्रसूता के शरीर मेंअधिक पहुँचते हैं । यह विष तत्व भ्रूण की संरचना को प्रभावित करते हैं । भ्रूण में आसमान्यताएं उत्पन्न कर सकते हैं । यहाँ तक कि यह तत्व प्रसूता एवं प्रसव की जीनी संरचना को भी बदल डालते हैं । विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बार-बार चेतावनी दी है । इसके बाद भी हम इस ज्वलंत मुद्दे पर मौन हैं । चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार तीव्र औद्योगिकीकरण आणविक एवं चुम्बकीय विकिरण, संक्रमित कचरा, इलैक्ट्रोनिक उपकरणोंसे निकलने वाला विकिरण, कृत्रिम प्रकाशजन्य एवं शोर प्रदूषण, जीवाणु एवं विषाणु युक्त वातावरण, विषाक्त असुरक्षा तथा बढ़ते रासायनिक प्रयोग ने जीवन की गुणवत्ता को कम किया है तथा प्रजनन संबंधी समस्याआें को उकसाया है । हमारा आहार-विहार, आचार-विचार विकृत हो गये है । हम प्रकृति के नियमों को भूल गये है । बालिकाएं समय से पूर्व ही यौवन की दहलीज को लाँघ रही हैं । विशेषज्ञों के अनुसार तरूणावस्था के लिए जिम्मेदार प्राकृतिक ओस्ट्रोजेन्स हार्मोन्स के साथ प्रदूषण जन्य अप्राकृतिक रासायनिक पदार्थ लड़कियों को समय से पहले ही जवान कर रहे हैं (तथ्यों के अनुसार जो इंजेक्शन दुधारू पशुआें को लगा कर उनसे जबरन दूध प्राप्त् किया जाता है वह सबसे अधिक नुकसान दायक हो जाताहै । तरूणियाँ जब मातृत्व बोझ संभालती हैं । तब यही रसायन माँ के दूध को भी जहरीला कर रहे हैं । इसलिए वर्तमान पीढ़ियाँ अशक्त एवं कंातिहीन होती जा रही हैं । विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारी धात्विक रसायनो में सीसा सर्वाधिक खतरनाक है । लेड पुरूषो की प्रजनन क्षमता को कम करता है । रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक जैसे रसायन परितंत्र की आहार श्रंखला के साथ हमारे शरीर में भी पहुँचकर वहाँ वसा में संग्रहित होकर जीवन के स्पंदन को अवरूद्ध कर रहे हैं । घातक गैसे भी वायुमण्डल में व्याप्त् हैं । अध्ययन के मुताबिक गर्भ-धारण करने वाली महिलाआें पर कार्बन मोनो ऑक्साइड गर्भस्थ शिशु की आक्सीजन आपूर्ति को रोकती है । यह गैस भ्रूण के रक्त संचार से जुड़ जाती है जिससे कार्बाक्सी हीमोग्लोबिन की मात्रा बढ़ जाती है और आक्सीजन घट जाती है जिसके परिणाम स्वरूप भ्रुण के दिल एवं दिमाग में आक्सीजन कम हो जाती है और गर्भस्थ शिशु गर्भ में ही शौंच कर देता है । जिससे प्रसविता की देह में जहर फैल जाता है । चिकित्सा विज्ञानी इस अप्राकृतिक घटना को मीकोनियम कहते हैं । इससे माँ एवं शिशु दोनो के जीवन को खतरा होता है । हाल ही में प्रदूषण जनित नपुंसकता के अध्ययन और शोध के हवाले से खबर आई है कि मनुष्य जल्दी ही संतानोत्पति की क्षमता को खो सकताहै । इसका कारण है पुरूष वीर्य में शुक्राणुआें की संख्या में निरंतर ह्रास । प्रदूषण जनित नपुंसकता पर सबसे पहले सन् १९९२ में अमेरिका के वैज्ञानिक ई. कार्लमेन ने ध्यान आकृष्ट किया था । उन्होंने ५० वर्षोंा में पुरूष वीर्य में शुक्राणुआें की संख्या में ४० प्रतिशत की कमी दर्ज की। हमारे देश में मुम्बई स्थित प्रजनन अनुसंधान संस्थान में भी पुरूष वीर्य के १५०० नमूनो का अध्ययन किया गया और यही निष्कर्ष निकाला कि पुरूष वीर्य की गुणवत्ता काफी गिर गई है और इसमें लगातार गिरावट जारी भी है । इस बीच एक और चौंकाने वाला तथ्य समाने आया है कि आदमी को औरत बना सकता है प्रदूषण । अर्थात अब लिंग विभेंद मिट रहा है । एण्डोक्राइन डिस्रप्टर्स के कारण पुरूषों का स्त्रीकरण एवं स्त्रियों का पुरूषीकरण हो रहा है । इन एण्डोक्राइन डिस्रप्टर्स को जेण्डर बेर्न्डस के नाम से भी जाना जाता है । यह एजेंट हमारे हॉरमोनल सिस्टम (अन्त: स्रावी तंत्र) पर विपरीत प्रभाव डालते हैं । ऐसे एजेन्ट शरीर में पहुँचकर हार्मोन की तरह काम करने लगते हैं तथा शरीर के हारमोनल सिस्टम पर हावी हो जाते हैं । यदि यह इसी प्रकार प्रभावी होते रहे तो एक दिन यह हमारे सम्पूर्ण अन्त: स्रावी तंत्र की कार्य प्रणाली को परिवर्तित कर देंगे, जिससे हमारे शरीर की कार्यकी बुरी तरह प्रभावित होगी । हार्मोन्स ही लिंग निर्धारण में अहम् भूमिका निभाते हैं । यह चिंता थियो कोलर्बोन व अन्य के द्वारा रचित पुस्तक `आवर स्टोलेन फ्यूचर' में भी व्यक्त की गई है । पुस्तक में ऐसे ६१ कृत्रिम रसायनों की पहचान की गई है जो मानव सेक्स हार्मोन्स की नकल करते हैं तथा एस्ट्रोजन एवं एण्ड्रोजन जैसे चिर परिचित सेक्स हार्मोन्स की कार्यकी (फिजियोलॉजी) को बदल देते हैं । इसके अलावा ब्रिटेन के प्लेमाथ विश्वविद्यालय के प्लेमाथ एनवायरमेन्टल रिसर्च सेंटर में कार्यरत भारतीय वैज्ञानिक प्रोफेसर अवधेश एन.झा. ने भी अपने अध्ययन से यही निष्कर्ष निकाला है । शहरी वायु प्रदूषण में एक बड़ा हिस्सा पोलीसायक्लिक एरोमैटिक हायड्रोकार्बन (पी.ए.एच.) का है । इन पदार्थोंा में २ से ७ तक बेंजीन रिंग होती है । यह पदार्थ कैंसरकारी होने के साथ साथ प्रजनन तथा प्रतिरक्षा प्रणाली को भी प्रभावित कर रहे हैं । केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इनकी बढ़ती मात्रा के प्रति आगाह भी किया है । अत: हमें समय रहते सचेत हो जाना चाहिए । भौतिकवाही सोच का परित्याग कर प्रकृतिपरक हो जाना चाहिए अन्यथा पर्यावरण प्रदूषण के खतरनाक परिणाम हमें ही नही वरन हमारी संततियों को भी तबाह कर देंगे । ईश्वर हमें सद्बुद्धि दे कि हम जनसंख्या का नियंत्रण परिवार नियोजन अपनाकर स्वयं करें । प्रकृति का इस कार्य में हस्तक्षेप न करना पड़े और अप्रिय स्थितियाँ ने बने । दूधों नहाओ पूतो फलों का आशीर्वाद विवेकपूर्णता से फलतारहे । ***
चांद की जमीन के बंटवारे पर मंथन करीब ४० साल पहले अमेरिका ने चंद्रमा पर अपना झंडा फहराया था । लेकिन अब चांद की बेशकीमती प्रॉपर्टी के लिए दुनिया भर के देशों में होड़ बची हुई है । भारत, जापान और चीन अपने यानों से चांद के चक्कर काट रहे हैं । ये यान अगले साल नासा के लूनर रिकॉनिसंस ऑर्बिटर में स्थापित हो जाएेंगें । प्रॉपर्टी की इस दौड़ को गूगल ने और तेज कर दिया है । गूगल चंद्रमा पर रोबोट भेजने और वहां ५०० मीटर तक चहलकदमी करने वाली टीम को तीन करोड़ डॉलर देगा । इसका मकसद चंद्रमा के विडियो, तस्वीरें और आंकड़ों को पृथ्वी तक लाना होगा । चंाद पर किसका कितना हिस्सा होगा, इसमें विशेषज्ञों का सुझाव है कि इस बारे में कानून बनाया जाना चाहिए । जो पहले कभी हो चुका होता है, ज्यादातर कानून उसी के आधार पर बनाए जाते हैं । विशेषज्ञों का मानना है कि जिस तरह समुद्री सीमा की हिस्सेदारी होती है, वैसा ही कानून चांद के लिए भी हो सकता है ।
चांद की जमीन के बंटवारे पर मंथन करीब ४० साल पहले अमेरिका ने चंद्रमा पर अपना झंडा फहराया था । लेकिन अब चांद की बेशकीमती प्रॉपर्टी के लिए दुनिया भर के देशों में होड़ बची हुई है । भारत, जापान और चीन अपने यानों से चांद के चक्कर काट रहे हैं । ये यान अगले साल नासा के लूनर रिकॉनिसंस ऑर्बिटर में स्थापित हो जाएेंगें । प्रॉपर्टी की इस दौड़ को गूगल ने और तेज कर दिया है । गूगल चंद्रमा पर रोबोट भेजने और वहां ५०० मीटर तक चहलकदमी करने वाली टीम को तीन करोड़ डॉलर देगा । इसका मकसद चंद्रमा के विडियो, तस्वीरें और आंकड़ों को पृथ्वी तक लाना होगा । चंाद पर किसका कितना हिस्सा होगा, इसमें विशेषज्ञों का सुझाव है कि इस बारे में कानून बनाया जाना चाहिए । जो पहले कभी हो चुका होता है, ज्यादातर कानून उसी के आधार पर बनाए जाते हैं । विशेषज्ञों का मानना है कि जिस तरह समुद्री सीमा की हिस्सेदारी होती है, वैसा ही कानून चांद के लिए भी हो सकता है ।
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