देश में हर वर्ष पाँच करोड़ टन कचरा
देश में छोटे-छोटे गली- मोहल्लों से लेकर देश की औद्याोगिक नगरियों तक कचरा एक बड़ी समस्या बन गया है । भले ही सबके लिए कचरा की मात्रा थोड़ी होती हो, लेकिन यदि इसे एकत्रित रूप में देखा जाए तो हमारे देश में प्रतिवर्ष करीब पाँच करोड़ टन कचरा निकलता है । दुनिया के १०५ देशों का कचरा हमारे समुद्र तटो ंपर कानूनी, गैर कानूनी ढंग से उतारा जा रहा है । यह कचरा इतनी तेजी से फैल रहा है कि भविष्य में जलसंकट के बाद यह दूसरी बड़ी समस्या पैदा हो जाएगी । भारत भवन की पत्रिका `पूर्वग्रह' के अनुसार भारत में १९९७ से २००५ के बीच कचरे के अनुपात में ६२ प्रतिशत की वृद्धि हुई है । सामान्य मानदंडों के हिसाब से कचरे का ३८ प्रतिशत पुनर्उत्पादन के जरिए दोबारा इस्तेमाल होना चाहिए और करीब ४ प्रतिशत को जला दिया जाना चाहिए, जबकि शेष ५८ प्रतिशत कचरा जमीन के अंदर दबाया जा सकता है । इसके लिए कचरे के जैविक एवं सिंथेटिक, प्लास्टिक अंशों को अलग किया जाना पहले सबसे जरूरी है, लेकिन इनमें से किसी भी हिससे पर नियंत्रण की कोई व्यवस्था हमारे समाज में नहीं है । पत्रिका में कहा गया है कि प्लास्टिक उद्योग भी इस कचरे के लिए जिम्मेदार है । दरअसल देश का दमदार प्लास्टिक उद्योग जिसमें कई दिग्गज शामिल हैं, सत्ता के उच्च्तम गलियारों तक अपनी पहुंच रखता है । देश के कई राज्यों में प्लास्टिक खाने से प्रतिदिन कई गायें मरने लगी हैं । पत्रिका के अनुसार सिर्फ दिल्ली शहर में तीन लाख कचरा बीनने वाले हैं, जो हर रोज कूड़े के ढेरों से प्लास्टिक का कचरा बटोर कर इसे उत्पादकों या ठेकेदारों को लौटाते हैं । इनमें से आधे से अधिक बच्च्े हैं और शेष महिलाएं तथा बूढ़े हैं जिन्हें यह समाज किसी भी अन्य काम के काबिल नहीं समझता । कचरा बीनने का यह जरिया ही उनकी जीविका का एकमात्र साधन है । जब तक भारत में कचरा फेंंकने वालों को सजा नहीं दी जाएगी, तब तक इस समस्या से निजात पाना आसान नहीं है । इसके लिए विदेशों से कई बातें सीखी जा सकती हैं , जैसे सिंगापुर की शहरी सीमाआें के भीतर कचरा या कागज का एक टुकड़ा अनाधिकृत रूप से फेंकने पर न्यूनतम दंड सौ डॉलर यानी पाँच हजार रूपए के करीब है । वहीं जर्मनी में जमीन पर तेल फेंकने के जुर्म में भारी दंड के अलावा जेल भी जा सकते हैं । इसी डर की हमारे देश में भी जरूरत है । ***
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