मच्छरों से निपटने में नकली फूलोंकी मदद
मच्छर वैसे तो खून चूसने के लिए मशहूर हैं लेकिन वे ज्यादातर समय फूलों का रस ही चूसते हैं । जॉर्जिया सदर्न विश्वविद्यालय के थॉमस कोलार्स मच्छरों की इस आदत और फूलों के आकर्षण का इस्तेमाल मलेरिया, डेंगू पीत, ज्वर जैसे रोग फैलाने वाले मच्छरों को पकड़न का प्रयास कर रहे हैं । इसके लिए कोलार्स ने नीले, हरे, लाल, पीलें रंगों के फूलों के आकार के प्लास्टिक के पिंजरे तैयार किए हैं । ये रंग आम तोर पर मच्छरों को लुभाते हैं । पिंजरे के बीच में एक तश्तरी पर मीठा द्रव रखा जाता है जिसमें एक बैक्टीरिया (बीटी) का विष घोल दिया गया है । बीटी विष वास्तव में एक कीटाणु नाशी है जो मच्छरों को मारने के लिए विशेष रूप से तैयार किया गया है । एक पतली जाली की मदद से बन्य कीटों को अंदर आने से रोका जाता है और सिर्फ मच्छरों की सूंड ही अंदर घुस पाती है । प्रयोगशाला में किए गए प्रयोग के दौरान यह यंत्र मच्छरों को मारने में सफल रहा । कोलार्स अब इसका परीक्षण प्रयोगशाला के बाहर मैदानी परिस्थिति में करने जा रहे हैं ।
खून का मलबा पकड़वाएगा खिलाड़ियों को
खेलकूद प्रतिस्पर्धाआें में प्रदर्शन बेहतर बनाने के लिए कुछ एथलीट्स दवाईयों का सेवन करते हैं । प्रतिस्पर्धा के आयोजक इस तरह के तौर-तरीकों पर अंकुश लगाने और इन्हें पकड़ने के लिए तरह-तरह की जांच का सहारा लेते हैा । मगर एक नाजायज़ तरीका ऐसा है जिसे पकड़ने के लिए परीक्षण विकसित करना खासा मुश्किल रहा है । अब लगता है कि यह तरीका भी जांच के दायरे में आ ही जाएगा । खिलाड़ी करते यह हैं कि प्रतिस्पर्धा से कुछ समय पहले अपना कुछ खून निकालकर अलग रख देते हैं । शरीर इस खून की पूर्ति कर लेता है । फिर प्रतिस्पर्धा से पहले खिलाड़ी वह निकालकर रखा गया खून वापिस अपने शरीर में डाल लेते हैं । इस तरह से उनके शरीर में अतिरिक्त खून हो जाता है और उनकी मांसपेशियों को अतिरिक्त ऑक्सीजन मिलती है, जिससे वे बेहतर काम कर पाती हैं । चूंकि डाला गया खून स्वयं का होता है, इसलिए इसकी जांच नहीं हो पाती। मगर जर्मनी के फ्राइबर्ग विश्वविद्यालय के ओलफ शूमाकर और उनके साथियों ने इस धोखाधड़ी को पकड़ने का एक तरीका खोज निकाला है । शूमाकर व साथियों ने ६ सामान्य लोगों के शरीर से कुछ खून निकालकर अलग रख दिया और ३५ दिन बाद उसे वापिस उनके शरीर में डाल दिया। एक और दो दिन बाद इन लोगों के रक्त के नमूनों की जांच करने पर पता चला कि उनके खून की सफेद रक्त कोशिकाआें में वह जीन अधिक सक्रिय था जो क्षतिग्रस्त कोशिकाआें को पहचानने व उनका सफाया करने में भूमिका निभाता है। शूमाकर के मुताबिक शरीर से निकालकर भंडारण के दौरान लाल रक्त कोशिकाएँ टूटने लगती हैं और उनकी कोशिका झिल्लियों वगैरह का मलबा जमा हो जाता है । जब इस खून को वापिस शरीर में डाला जाता है तो सफेद रक्त कोशिकाएँ इस मलबे को साफ करने सक्रिय हो उठती है । इस प्रक्रिया को देखा जा सकता है क्योंकि जीन के सक्रिय होने पर उसका परिणाम सफेद रक्त कोशिकाआें की सतह पर नजर आता है । वैसे अभी यह नहीं कहा जा सकता कि यह परीक्षण अगले ओलंपिक खेलों (२०१२) तक इस रूप में विकसित हो जाएगा कि इसका इस्तेमाल किया जा सके क्योंकि किसी भी परीक्षण को अपनाने से पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि कहीं उसमें बेगुनाह एथलीट्स तो नहीं फंसेंगे । यानी अभी काफी शोध कार्य की जरूरत होगी । फिर भी इस खोज में एक दिशा तो मिली ही है ।
चेतना पूरे दिमाग में फैली है
वैज्ञानिक इस बात पर लंबे समय से शोध करते आए हैं कि क्या मनुष्य के मस्तिष्क में चेतना का कोई विशेष स्थान है या यह पूरे दिमाग के समन्वय का परिणाम है। यहां चेतना से आशय भावनाआें के अलावा खास तौर से इस बात से है कि क्या व्यक्ति स्वयं को एक स्वतंत्र इकाई मानती है और क्या उसे यह भान है कि अन्य व्यक्तियों की भी उसी की तरह स्वतंत्र मंशाएं और इरादे हैं । मस्तिष्क में यह चेतना कहां स्थित है, इस बात का पता लगाना आसान काम नहीं है । हाल ही में मिर्गी ग्रस्त कुछ मरीजों के अध्ययन से इस दिशा में कुछ संकेत मिले है। चेतना की प्रक्रिया का अन्वेषण करने में दिक्कत यह आ रही है कि हमारे पास तकनींके है उनमें दिमाग में इलेक्ट्रोड वगैरह फिट करने होते हैं । यदि इनके बगैर अनुसंधान की कोशिश की जाए तो पूरी जानकारी नहीं मिलती । अब यह तो संभव नहीं है कि अच्छे-खासे स्वस्थ लोगों के दिमाग में इलेक्ट्रोड लगाकर शोध कार्य किया जाए । मगर फ्रांस के इलेक्ट्रोड लगाकर शोध कार्य किया जाए । मगर फ्रांस के इनसर्म के तंत्रिका वैज्ञानिक राफेल गैलार्ड और उनके साथियों ने एक अनोखे अवसर का लाभ उठाकर यह काम करने का प्रयास किया है । उन्हें १० ऐसे मरीज़ मिल गए जो दवा-प्रतिरोधी मिर्गी से पीड़ित हैं और इसलिए उपचार हेतु उनके दिमाग में वैसे ही इलेक्ट्रोड लगाए गए हैं। गैलार्ड ने इन मरीजों में चेतना संबंधी प्रयोग किए । उक्त इलेक्ट्रोड्स से प्राप्त् संकेतो का निरीक्षण करते हुए गैलार्ड व साथियों ने इन लोगों के सामने २९ मिलीसेकंड के लिए कुछ शब्द चमकाए । ये शब्द या तो डराने वाले थे (जैसे हत्या, गुस्सा) या भावात्मक दृष्टि से उदासीन थे (जैसे रिश्तेदार, देखना)। कभी-कभी इन शब्दों के बाद दृश्य `नकाब' होती थी, जिसकी वजह से शब्द को सचेत रूप से पकड़ पाना मुश्किल हो जाता था । कई बार ऐसा भी होता था कि इस `नकाब' का उपयोग नहीं किया जाता था । मरीज़ को उस शब्द की प्रकृति बतानी होती थी । इससे शोधकर्ताआें को यह पता चल जाता था कि व्यक्ति उसके प्रति सचेत है या नहीं। इस तरह से शोधकर्ताआें को इन व्यक्तियों के जवाब और साथ में इलेक्ट्रोड के ज़रिए मस्तिष्क के विभिन्न भागों की गतिविधि की जानकारी प्राप्त् हो गई । इस अध्ययन से स्पष्ट हुआ कि जब व्यक्ति शब्द के प्रति सचेत होता है, तो मस्तिष्क से उत्पन्न संकेतों का वोल्टेज बढ़ जाता है । दूसरा यह भी पता चला कि सचेत प्रयास में दिमाग के विभिन्न हिस्सों के संकेत आपस में तालमेल बनाते हैं । इसका मतलब है कि दिमाग के अलग-अलग हिस्सों में तंत्रिकाएं तालमेल से सक्रिय होती है ।और इस तरह की समन्वित गतिविधि तभी देखने को मिली जब व्यक्ति शब्द के प्रति सचेत हो। इसके आधार पर गैलार्ड का निष्कर्ष है कि चेतना का दिमाग में कोई एक निर्धारित स्थान हैं बल्कि वह पूरे दिमाग की समन्वित क्रिया का नतीजा है ।
वैम्पायर का कंकाल मिला
वेनिस मेें एक कब्र की खुदाई करने पर एक कंकाल मिला है जिसके बारे में कहा जा रहा है कि वह एक वैम्पायर का है ावैम्पायर यूरोप में बहुत प्रसिद्ध रहे हैं और उनके बारे में कहा जाता था कि वे इंसानों का खून पीते थे । मध्य युग में जब यूरोप में प्लेग फैला था तब हजारों लोग मारे गए थे । कई जगहों पर इन्हें सामूहिक रूप से दफनाया गया था । इटली के फ्लोरेंस विश्वविद्यालय के मैटियो बोरिनी वेनिस में लेज़रेंटो नुओवो द्वीप पर ऐसी ही सामूहिक कब्र खोद रहे थे । यहां से उन्हें एक महिला का कंकाल मिला जिसके मुंह में एक इंर्ट फंसी हुई है । यह इंर्ट फंसा कंकाल एक दंतकथा का प्रमाण पेश करता है । जिस समय इस महिला की मृत्यु हुई थी, उस समय कई लोग मानते थे कि प्लेग वैम्पायरों द्वारा फैलाई जाने वाली बीमारी है । ये वैम्पायर लोगों का खून पीने क ी बजाए मरने के बाद अपने कफन को चबाते हैंऔर बीमारी को फैलाते हैं। प्रचलित मान्यता के चलते कब्र तैयार करने वाले ऐसे संदिग्ध वैम्पायरों के मंुह में एक इंर्ट फंसा देते थे ताकि वे कफन न चबा सकें । वैम्पायरों के बारे में इस मान्यता का आधार शायद यह था कि कभी कभी शव के मुंह से खून टपकता है जिसके कारण कफन मुंह में धंस जाता है और फट जाता है। ***
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