शुक्रवार, 15 मई 2009

६ प्रदेश चर्चा

केरल : गुफा में रहता अंतिम समुदाय
एम.सुचित्रा/अजीब कोमाची
केरल के घने जंगलों में एक ऐसा आदिम समुदाय निवास करता है जिसने अपने पारंपरिक गुुफा निवास को अभी तक नहंी छोड़ा है । एशिया में यह आिख्ररी समुदाय है जो कि अभी भी गुफा में निवास कर रहा है । अपनी पारंपरिक जीवनशैली से उनका अद्भुत जुड़ाव है और तथाकथित आधुनिक सभ्यता उन्हें रास नहंी आई है । कोझीकोड से १०० कि.मी. का बस का सफर तय करके मैं और अजीब केरल के मालाप्पुरम जिले के छोटे से नगर निलांबर पहुंचे । कोझीकोड-ऊटी मार्ग पर स्थित इस नगर से कृष्णन जो कि राज्य के आदिवासी विभाग में अधिकारी हैं , भी हमारे साथ करूलाई संरक्षित वन में जाने के लिए साथ हो लिए । हम सब चोलानाईकन , एशिया में बची ऐसी एकमात्र जनजाति शेष है जो कि अभी भी गुफाआें में ही रहती है ,से मिलने जा रहे थे । करूलाई वर्षा वन पश्चिमी घाट स्थित उस नीलगिरि जीवनमंडल संरक्षित वन का हिस्सा है जो अपनी जैव विविधता के लिए जाना जाता है । हमें बताया गया था कि इस घने वन क्षेत्र में ११ `अलाई' (गुफा, बसाहटें) बिखरी हुई हैं । उबड़ - खाबड़ कच्ची सड़क जो कि २० किमी. लम्बे इमारती लकड़ियों के जंगल से गुजरती है, ने हमें मंजीरी तक पहुंचाया । यहां के स्थानीय निवासी मोईनकुट्टी हमारे साथ हो लिए जो पिछले २५ वर्षोंा से निलांबर जनजाति विकास सहकारी समिति के अंतर्गत वन उत्पाद संग्रहण केन्द्र संचालित कर रहे हैं । मोईनकुट्टी इस जनजाति की बोली से भी भलीभांति परिचित थे । यहां से हमने पैदल चलना शुरू किया । सबसे नजदीकी की अलाई ६ किमी पर करीमप्झा में स्थित है । नमीवाले, पर्णपानी व हमेशा हरे-भरे रहने वाले इस घन वन में सुबह ११ बजे भी बहुत थोड़ी सी धूप जमीन तक पहुंच पाती है । हमने अपना रास्ता घनी बेलों, बांस के झुरमुटों, चमकदार फूलों और चित्तीदार चिड़ियाआें के बीच से गुजरते हुए पार किया । इससे पहले हमनें कभी भी यह सबकुछ नहीं देखा था । नीचे गहराई में सुनहरी नदी झिलमिलाती सी दिखाई पड़ी । एकाएक मोईनकुट्टी ने हमें रोक। फुसफुसाती आवाज में उसने कहा `कृपया शांत रहिए' । उन्होंने कहा ` समीप ही हाथियों का झुंड है और तेज आवाजों और अपरिचित गंध से वे उत्तेजित हो सकते हैं । इसके बाद मोईनकुट्टी हमें नजदीकी रास्ते से आगे ले गए । हमनें एक पहाड़ पर चढ़ना प्रांरभ किया । इसके बाद हम बेलों, खुली जड़ों और बांस के झुरमुटों के सहारे नीचे उतरे । जरा सा गलत कदम हमें नीचे ढुलका सकता था। अचानक हमनें स्वयं को एक चट्टान के ऊपर पाया और सामने देखा कि अनेक चोलनाईकन हमें अचंभित होकर देख रहे हैं । हम एक प्राकृतिक गुफा बसाहट के नजदीक पहुंच गए थे । उस वक्त वहां पर केवल दो परिवार मौजूद थे। करीमबुझा मथान और उसकी पत्नी करिक्का और करीमबुझा रवि और उसकी पत्नी,माँ और चार बच्च्े । वे सब अंगीठी के पास बैठे थे । रवि की पत्नी खाना बना रही थी और बच्च्े को अपना दूध भी पिलाती जा रही थी । पास बैठी करिक्का टोकनी बुन रही थी । गुफा में टंगी टोकनियों को देखते ही मुझे ध्यान आया कि कई घरों के ड्राइंर्ग रूम में मैने ऐसी टोकनियां देखी हैं । तभी मेरा एकाएक ध्यान गुफा के प्रवेश द्वार पर गया । वहंा पर मलयालम फिल्मों के सुपर स्टार ममूटी का चित्र चिपका हुआ था जिसे किसी पत्रिका से काटा गया था । मोईनकुट्टी का कहना है किये बसाहटें तुलनात्मक रूप से छोटी है । इन गुफाआें में सात परिवार एक साथ रहते हैं। कुछ समय पूर्व तक चेलानाईकन को कुट्टूनाईकन जनजाति की शाखा माना जाता था जो इसी घाटी में स्थित पड़ौस के वायनाड वन में निवासकरती है । २००२ में केरल सरकार ने इन्हें आदिम समुदाय के रूप में मान्यता दी । केरल अनुसूचित जाति जनजाति शोध, प्रशिक्षण और विकास संस्थान के हाल के अध्ययन के अनुसार इस जनजाति की कुल आबादी ३६३ है और इसमें से महिलाआें की संख्या १६१ ही है । मोईनकुट्टी का कहना था कि इस विपरीत लिंग अनुपात का अर्थ है कि चेालानाईकुट्टी या तो कुट्टुनाईकनों से विवाह करें या फिर कुंवारे ही रहें । यह जनजाति कन्नड़, तमिल और मलयालम की मिश्रित बोली बोलती है । दो से पांच परिवार एक समूह के रूप में रहते हैं , जिसे चेम्मन कहा जाता है । वृक्ष, नदियों और चट्टानों से सीमा का निर्धारण होता है । बारिश के मौसम में यह समुदाय स्वयं को गुफा में समेट लेता है । ठंड और गर्मी में वे बाहर आकर कंद, जड़ें, सूखे मेवे, फल, शहद, अदरक, जंगली काली मिर्च और रीठा इकट्ठा करके इसे मंजीरी स्थित सहकारी समिति कोदेकर इसके बदले में चावल, नमक, तेल और मिर्ची ले आते हैं । मोईनकुट्टी ने बताया कि ` ये अपने राशन कार्ड भी संग्रह केन्द्र में ही रखे रहते हैं । अधिकांश ने अपने मतदाता परिचय पत्र फेंक दिये हैं । इनमें से कुछ को २४० रू. प्रतिमाह वृद्धावस्था पेंशन भी मिलती है । वे पैसों के लिए २० कि.मी. पैदल चलकर निलांबर जाते हैं और ६५० रू. देकर जीप में लौटते हैं। सन् २००२ में निलांबर में इस आदिम जनजाति के लिए ही एक विशेषकर रहवासी विद्यालय खोला गया था । चोलानाईकन समुदाय ने अपने बच्चें को इसमें पढ़ने भी भेजा था । मोईनकुट्टी का कहना था कि आधे बच्च्े तो प्राथमिक शिक्षा पूरी होने से पहले ही वापस लौट गए । उनका कहना है कि जब वे जंगल में अपनी आदिम जीवनशैली में लौटेंगें तो इस विद्यालय की पढ़ाई उनके किसी काम नहीं आएगी। अब चूंकि वन की अर्थव्यवस्था भी बाजार आधारित व्यवस्था में बदल रही है तो ये भी मजदूरी करने लगे हैं । इस व्यवस्था का मकड़जाल, बर्तनों, कपड़ों और शराब के रूप में स्पष्ट रूप से दिखाई भी देने लगा है । पहले ये न तो कभी शराब पीते थे और न ही कर्जे में रहते थे । इस समुदाय के अठारह परिवारों को जंगल के छोर पर बसाया गया था । परंतु केवल पांच ही वहां पर बसे और बाकी के अपने गुफा घरों में लौट आए। लौटने का कारण हाथियों द्वारा लगातार किए जा रहे हमलों को बताते हैं । परंतु सच्चई यही है कि उन्हें अपने प्राकृतिक आवास में ही अच्छा लगता है । हालांकि आधुनिक समाज के प्रति उनमें कुछ आकर्षण भी पैदा हुआ है । लौटते हुए हमनें चोलानाईकनों को अभिवादनस्वरूप हाथ हिलाया, वे हमें अचंभित हो देखते रहे । लेकिन किसी ने भी यहां तक कि बच्चें ने भी हमारे अभिवादन का प्रत्युत्तर नहीं दिया । *** पत्र, एक पाठक का पानी पर लोगों के हक का सवाल पिछले दिनों उच्च्तम न्यायालय ने लोगों के दिल की बात कही है जो सरकार लोगों को पानी नहीं दे सकती, उसे सत्ता में रहने का कोई हक नहीं है लेकिन हमारे राजनीतिक दलों के लिए लोकसभा चुनावों में यह कोई मुद्दा नहीं है । लगभग पूरे देश में पीने के पानी की समस्या गंभीरतम हो चुकी है । यह भविष्यवाणी सही हो या न हो कि अगला विश्वयुद्ध पानी को लेकर होगा, मगर लोगों के बीच पानी को लेकर शहर-शहर बस्ती पानी युद्ध जारी है । मालवांचल, छत्तीसगढ़ आदि तमाम क्षेत्रों के लोग पानी के लिए बुरी तरह तरस रहे हैं । न्यायमूर्ति काटजू और न्यायमूर्ति एचएल दत्तू को यह स्थिति परेशान करती है जिन्होंने दो महीने के अंदर विज्ञान तथा तकनॉलाजी सचिव के अंतर्गत एक समिति बनाने का सुझाव दिया है जो देश में जल समस्या के निवारण पर विचार करेगा । यह कितनी दुखद बात है कि हमारी तमाम सरकारें पेयजल की उपलब्ध्ता के बारे में इस बीच कोई दीर्घकालिक नीति नहीं बना पाई हैं , न लागू कर पाई हैं । इस बीच तालाबों और कुआें को सूखने-बर्बाद होने दिया गया । बरसाती जल के संरक्षण के लिए बड़े-बड़े बाँध बनाने के अलावा-जिनसे कि तमाम लोगों का मोटा कमीशन बनाता है - कोई गंभीर काम नहीं किया गया । समुद्रों के खारे पानी को मीठे जल में तब्दील करने की तकनॉलाजी के विकास में कोई दिलचस्पी नहीं ली गई, नदियों को सूखने दिया गया, उन्हें गंदगी से भर जाने दिया गया । जमीन से पानी खींचने के लिए हैंडपंप तथा ट्यूबवेल खोदने की निर्बाध छूट दी गई । यह उस देश में हुआ, जहाँ नदियाँ ही नहीं, कुआें तक की पूजा होती है, जहाँ प्यासे को पानी पिलाना धर्म माना जाता है । हमारी विशाल ग्रामीण आबादी पानी के संकट से कैसे जूझ रही है, इसकी कहीं से कोई खबर नहीं आती । किस तरह कारखानों का प्रदूषित कचरा जलस्रोतों को प्रदूषित कर रहा है, इसकी किसी को परवाह नहीं है । न्यायमूर्ति काटजू को निर्णय देते हुए रहीम का दोहा याद आया, रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून, पानी गए न उबरे, मोती, मानस, चून । यह दोहा पानी की बात एक अलग स्तर पर कहता है, मगर हमारे अपने समय के बड़े कवि रघुवीर सहाय ने पानी और इसकी राजनीति पर कोई तीन दशक पहले कविता लिखी थी । वह पानी के लिए तरसने की राजनीति की परतें उघाड़ते हुए कहती है कि जिस धरती को पानी नहीं मिला, उस धरती को आजाद नहीं कहा जा सकता है ।एस.एन. शर्मादक्षिण साकेत, नई दिल्ली -३०

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