वन्य जीव विनाश: ज़िम्मेदार कौन ?
- सुनील
वन्य प्राणियों की घटती संख्या आधुनिक दुनिया की एक प्रमुख चिंता है । कुछ प्रजातियां लुप्त् होने की कगार पर है ओर उनके संरक्षण के लिए कई कदम उठाए जा रहे हैं । भारत में १९७३ से प्रोजक्ट टाइगर चलाया जा रहा है । शेरों और अन्य वन्य प्राणियों को बचाने के लिए राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य एवं टाइगर रिज़र्व बनाए जा रहे हैं । देश में अभी तक लगभग ६०० राष्ट्रीय उद्यान एवं अभयारण्य अधिसूचित किए जा चुके हैं । इनमें से कई को प्रोजेक्ट टाइगर में शामिल करके करीब ३० टाइगर रिजर्व बना गए हैं । इन तमाम क्षेत्रों में स्थानीय गांववासियों द्वारा जंगल के उपयोग - वनोपज संग्रह, चराई, निस्तार, खेती और निवास पर तरह-तरह की पाबंदियां लगाई जा रही हैं । साल-दर-साल यहां के नियम कानूनों को और सख्त बनाकर ये पाबंदियां बढ़ाई जा रही हैं । इन क्षेत्रों के अंदर बहुत सारे गांव भी हैं । करीब ४० लाख लोग यहां रहते हैं जिनमें से ज़्यादातर आदिवासी हैं । इन गांवों को हटाकर बाहर बसाने की भी मुहिम चल रही हैं । इन पाबंदियों और विस्थापन से गांववासियों पर काफी बड़ी मुसीबत आ गई है । कई जगह वे विरोध भी कर रहे हैं । लगभग हर संरक्षित क्षेत्र में वन विभाग और स्थानीय गांववासियों के बीच टकराव और असंतोष के हालात बने हुए हैं । वन्य प्राणियों के संरक्षण की इन योजनाआें और नियम कानूनों के पीछे यह सोच एवं मान्यता है कि उनके नष्ट होने के प्रमुख कारण वहां पर गांवों की मौजूदगी, उनके द्वारा जंगल का उपयोग और इसके कारण पैदा होने वाला दबाव हैं, यदि उन्हें हटा दिया जाए और जंगल मे घुसने से रोक दिया जाए, तो वन्य प्राणी बच जाएंगे । इस मान्यता की कभी ज़मीनी जांच नहीं हुई । वैज्ञानिक अध्ययन एवं शोध भी इसकी पुष्टि नहीं करते । आलोचकों का कहना है कि आदिवासी तो हज़ारों सालों से जंगलों में रह रहे हैं, जंगल एवं वन्य प्राणियों के साथ उनका सहअस्तित्व रहा है । यदि उनके रहने से और उनके द्वारा जंगल के उपयोग से शेर एवं अन्य वन्य प्राणी नष्ट होते तो कई सदियों पहले ही नष्ट हो जाने चाहिए थे । जंगलों एवं वन्य जीवन के नष्ट होने के दूसरे बाहरी कारण हैं, जिन्हें खोजा जाना चाहिए और दूर किया जाना चाहिए । पिछले कुछ समय में ऐसे अध्ययन एवं जानकारियां सामने आई हैं, जिनसे इस बहस का अंतिम फैसला हो जाना चाहिए । एक महत्वपूर्ण किताब भारत का वन्य जीवन इतिहास कुछ साल पहले छपकर आई है । इसके लेखक वनों के एक प्रसिद्ध अध्येता महेश रंगराजन है । श्री रंगराजन ने अच्छी तरह से बताया है कि भारत में जंगलों एवं जंगली जानवरों का सबसे बड़ा, व्यवस्थित और योजनाबद्ध विकास अंग्रेजों के राज में हुआ था । ज़्यादा से ज़्यादा राजस्व कमाने के चक्कर में अंगे्रज़ शासकों ने जंगल जमकर कटवाया, बेचा और खेती का विस्तार किया। खेती और पशु पालन के विस्तार में शेरों व अन्य जंगली जावरों को एक रूकावट माना गया । श्री रंगराजन के अनुसार अंग्रेज़ी राज ने शेरों व जंगलों के खिलाफ एक तरह का युद्ध छेड़ दिया था । शेरों एंव अन्य हिस्र पशुआें का मारने के लिए उन्होंने तथा उनकी देखादेखी देशी राजाओं ने इनाम घोषित किए थे । स्वयं अंग्रेज़ सरकार के रिकॉर्ड के मुताबिक १८७५ से १९२५ के बीच ८०,००० से ज़्यादा शेर, १,५०,००० तेंदुए और २,००,००० भेडिए मारे गए थे । ये वे संख्याएं है, जिनके लिए इनाम दिए गए थे । श्री रंगराजन का मानना है कि वास्तविक शिकार इससे तीन गुना ज़्यादा हुए होंगे । इसी अवधि में भारतीय चीता हमेशा के लिए लुप्त् हो गया । शिकार को मनोरंजन और मौज-मस्ती के एक खेल के रूप में भी इस काल मे बहुत बढ़ावा मिला । विशेषकर राजा-महाराजाआें, नवाबों ओर जागीरदारों-जमींदारों ने इस काल में शिकार के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए । अंग्रेजों के पराधीन होने के बाद ये सब लोग फुरसत में थे । उनकी बहादुरी की परीक्षा जंगलों में शिकार में ही होने लगी । हर राजमहल में शेरों व बारहसिंगों के मस्तक शोभा बढ़ाते टंगे रहते थे । सरगुजा के महाराजा रामानुजशरण सिंहदेव सबसे बड़े शूरवीर साबित हुए । उन्होंने अकेले ११८० शेरोंओर २००० तेंदुआें का शिकार किया । उदयपुर महाराजा ने भी अपने जीवनकाल में एक हज़ार से अधिक शेरों को मारा । ग्वालियर के सिंधिया महाराजा और उनके मेहमानों ने ९०० से अधिक शेर मारे । गौरीपुर और रीवा के राजा ने पांच-पांच सौ शेर मारे । रीवा रियासत के जंगलों में तो दुर्लभ सफेद शेर पाए जाते थे, जो अब लगभग लुप्त् हो गए हैं । पिछले डेढ़ सौ सालों में ३६४ सफेद शोरों का शिकार हुआ है । बीकानेर के महाराजकुमार सार्दुल सिंह की शिकार डायरी प्रकाशित हुई हैं, जिसके मुताबिक उन्होंने अपनी रियासत के अलावा भरतपुर, सौराष्ट्र, मध्यभारत और नेपाल की तराई तक और अफ्रीका के जंगलों में भी जाकर शिकार का शौक पूरा किया । सार्दुल सिंह ने कुल लगभग ५०,००० जानवरों ओर ४६०० पक्षियों को शिकार किया, जिनमें एक सिंह और ३३ शेर शामिल थे । टोंक के नवाब ने कुल ६०० शेर मारेथे । जयपुर के कर्नल केसरी सिंह का दावा था कि उन्होंने शेरों के एक हज़ार से ज़्यादा शिकार में भाग लिया है । जयपुर की महारानी गायत्री देवी भी शिकार करने जाती थी । वे शादी से पहले कूचबिहार की राजकुमारी थी, जहां उन्होंने ५ वर्ष की उम्र में पहला शिकार किया था और १२ वर्ष की उम्र में एक तेंदआ मार गिराया था । शेरों और वन्य प्राणियों के इस कत्लेआम में अंगे्रज़अफसर भी पीछे नहीं रहे । शिकार के लिए अंगे्रजी शब्द गेम और पशु के सिर के लिए ट्राफी शब्द इसी समय से भारत में प्रचलित हुए । वर्ष १९०० से पहले ४०० शरों कों मारने वाल जॉर्ज मूल और २२७ शेर मारने वाले मोन्टेग्यू गेरार्ड बड़े शिकारी थे । विलियम राइस ने १८५० से १८५४ के बीच १५८ शेरों का शिकार किया था । कर्नल नाईटेन्गल ने हैदराबाद रियासत में ३०० से ज़्यादा शेरों को मारा । गार्डन कमिंग ने लगभग १०० शेर मारे । ब्रिटेन वायसरायों ने भी भारत में शेरों का शिकार किया । जिम कॉर्बेट के नाम से आज उत्तर भारत का एक प्रमुख राष्ट्रीय उद्यान है। उन्हें भारत में शेरों के शिकार के किस्सों की उनकी किताब ने उन्हें अंग्रेजी पाठकों में बहुत लोकप्रिय बनाया । देश आज़ाद होने के बाद भी शेरों और अन्य जंगली जानवरों का शिकार खुलेआम चलता रहा । वर्ष १९७२ में वन्य प्राणी संरक्षण कानून बनने के बाद यह गैर कानूनी घोषित हुआ और रूका । एक अनुमान के मुताबिक १९०० में देश में लगभग ४० हज़ार शेर थे । अंधाधुध शिकार के चलते १९७२ तक उनकी संख्या घटकर १८०० रह गई थी । ज़ाहिर है, इस देश केे शेरों व अन्य वन्य प्राणियों के विनाश के असली गुनहार राजा-महाराजा-नवाब हैं जिन्हें १९७२ के पहले वन्य प्राणियों को बचाने की सुध नहीं आई थी । शेरों और अन्य जंगली जानवरों पर संकट आने का एक और बड़ा कारण जंगलों का सिमटते जाना है । बड़े बांधों, खदानों, कारखानों, राजमार्गोंा, शहरीकरण और ,खेती के विस्तार ने काफी जंगल निगल लिया है । वन्य प्राणियों के रहने की जगह व भोजन कम होता जा रहा है । वे खेतों और गांवों की ओर रूख कर रहें हैं तथा गांववासियों से उनका टकराव बढ़ता जा रहा है । जंगल कम होते जाएंगे और जंगली जानवर बच जाएंगे, यह उम्मीद करना फिज़ूल है । विकास की पूरी दिशा बदले बगैर मात्र कुछ राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य या टाइगर रिज़र्व बनाकर वन्य प्राणियोंको बचाने की कोशिश अपने आप में विसंगतिपूर्ण है, जिसके कारण कई समस्याएं पैदा हो रहीहैं । इसके चलते वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों एंव अन्य वनवासियों पर काफी अत्याचार हो रहे हैं । वे पहले से देश के सबसे दलित, वंचित, उपेक्षित और गरीब समुदाय हैं । जंगल और ज़मीन उनकी जिंदगी की प्रमुख सहारा हैं । उसे भी छीना जा रहा है । जिस गुनाह में उनकी कोई भागीदारी नहीं रही, उसकी सज़ा उन्हें दी जा रही है । विडंबना यह है कि देश के जिस शासक वर्ग और अभिजात्य वर्ग ने शरों का शिकार किया और जो आधुनिक विकास का भरपूर फायदा उठा रहा है, वही आज वन्य प्राणी संरक्षण का चैम्पियन बन गयाहै । एक.के.रणजीतसिंह स्वयं राजपरिवार से थे, १९७२ के कानून का मसविदा तैयार करने में उनकी प्रमुख भूमिका रही । वन्य जीव संरक्षण की बढ़-चढ़कर हिमायत करने वाले कई लोग स्वयं महंगे वातानुकूलित घरों, दफ्तरो व गाड़ियों में रहते हैं, हवाई यात्राएं करते हैं, जंगलों की लकड़ी का बढ़िया से बढ़िया फर्नीचर इस्तेमाल करते हैं, लेकिन जंगलों में रहने वाले लोगों को कोई रियायत ओर अधिकार नहीं देना चाहते । विडंबना यह भी है इन सारे राष्ट्रीय उद्यानों, अभयारण्यों एवं टाइगर-रिज़र्वोंा में इको-पर्यटन के नाम पर देशी-विदेशी सैलानियों को बुलाया जाता है और मौज-मस्ती की पूरी सुविधाएं दी जाती हैं । वे गाड़ियों से घने जंगलों हैं । इससे वन्य प्राणियों के जीवन में कोई व्यवधान नहीं होता है, लेकिन हज़ारों सालों से वहां रहने वाले आदिवासियों की पारंपरिक गतिविधियों से वन्य जीवन पर संकट आ जाता है, यह तर्क समझ से परे है । मध्यप्रदेश का पचमढ़ी हिल स्टेशन एवं कस्बा, सतपुड़ा टाइगर रिज़र्व में पहाड़ों और जंगलों की बीचों-बीच स्थित है । टाइगर रिज़र्व को खाली कराने की मुहिम चल रही है । उनके जीवन पर कई पाबंदिया लगा दी गई हैं । लेकिन पचमढ़ी कस्बे, वहां के होटलों एवं वहां स्थित फौजी अड्डों को हटाने या वहां प्रति वर्ष आने वाले लाखों सेलानियों पर नियंत्रण की कोई चर्चा भी नही हैं । आदिकाल से वहां रहने वाले मूल निवासियों का कोई हक नहीं, और बाहर से आकर व्यवसाय और मौज मस्ती करने वालों का पूरा हक बन गया ? यद शेर और वन्य प्राणियों को बचाना पूरे मानव समाज की जरूरत एवं प्राथमिकता है, तो सबसे पहले उन बड़े बांधो, खदानों, कारखानों, राजमार्गो, फोजी छावनियों, शहरो, होटलो और पर्यटन अड्डो को हटाना चाहिए । जिन्होने पिछले १००-१५० सालों में जंगलों व शहरों के आवास पर अतिक्रमण किया है । इसकी बजाय निरपराध आदिवासी को हटाने-मिटाने पर तुले हैं क्या इसलिए कि वे आज की व्यवस्था में सबसे नीचे की पायदान पर स्थित सबसे गरीब एवं नीरीह लोग है जिनकी कोई आवाज एवं ताकत नहीं है ? यह भी एक प्रकार का नस्ल भेद और साम्राज्यवाद है । पिछले दिनों पारित वन अधिकार कानून से भी वन वासियों को कोई विशेष राहत नहीं मिल पाई । सरकारी प्रतिष्ठानों में बेठे पर्यावरणीय कट्टरतावादी तत्वों ने इस कानून मे यह प्रावधान डाल दिया है कि राष्ट्रीय उद्यानों एवं अभयारण्यों में संकट पूर्ण वनजीव आवासो या कोर एरिया में ग्राम वासियों के अधिकार खत्म किये जा सकते हैं । इस कानून के नियम बनाने में जान बूझकर देरी की गई । १ जनवरी २००८ को नियम बनाने के बाद लागू होने से पहले के डेढ़ महिनों में देश के सारे टायगर रिजर्वो में ताबा तोड़ कोर एरिया की अधिसूचनाएं जारी कर दी गई । इनके निर्धारण के लिए न तो कोई वैज्ञानिक अध्ययन या सर्वेक्षण कराया गया और न स्थानीय ग्रामवासियों को अपना पक्ष रखने का मौका दिया गया । किसी आदिवासी नेता या मंत्री ने भी इसका विरोध नहींकिया । वन क्षेत्रों के आदिवासियों पर दबाव, अत्याचार, अनिश्चितता एवं विस्थापन का कहर जारी है । मुम्बई के ताज ओर ऑबेराय पांच सितारा होटलों से अलग यह एक लगातार चलने वाली आतंकी प्रक्रिया है, जिसकी चर्चा कोई टीवी चैनल या अखबार का मुखपृष्ठ नहीं करता । आप चाहे तो इसे पर्यावरणीय आतंकवाद कह सकते हैं । लेकिन इसकी चर्चा न केवल मीडिया में बल्कि जन सामान्य के बीच भी होनी चाहिये, जिससे वन विनाश के जिम्मेदार तत्वों की पहचान हो सके ।***
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें