बुधवार, 13 मई 2009

१२ विकास दर

आर्थिक उम्मीदें और प्राकृतिक संसाधन
- डॉ. टी.एन. नरसिंहन
वैश्विक व्यापार के इस दौर में भारत भविष्य में एक स्थिर दर से मज़बूत आर्थिक विकास की उम्मीद कर रहा है । व्यापार की दृष्टि से इस प्रकार की अपेक्षा को उचित माना जा सकता है, लेकिन भारत के जल और भूमि संसाधनों को लेकर किए गए एक अध्ययन से साफ होता है कि अगले कुछ दशकों में घटते जल संसाधनों और पर्यावरण व इकोसिस्टम में गिरावट के चलते सामान्य विकास दर को हासिल करना भी मुश्किल हो जाएगा । आजादी के छह दशकों के बाद आज भारत एक बेहतर आर्थिक भविष्य की ओर टकटकी लगाए देख रहा है । बीते एक दशक में देश में विदेशी पूंजी के अभूतपूर्व प्रवाह से भारत ने २००६-०७ में ९.६ फीसदी की शानदार विकास दर हासिल की । यदि भारत ६ फीसदी की विकास दर भी बनाए रखे तो प्रत्येक बारह साल में देश की अर्थव्यवस्था का आकार दुगना हो जाना चाहिए । इसलिए उम्मीद तो यही है कि भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) २००७ के एक ट्रिलियन डॉलर से बढ़कर २०३१ तक चार ट्रिलियन डॉलर और २०५५ तक पूरे १६ ट्रिलियन डॉलर तक हो जाना चाहिए । इन अपेक्षाआें को समझा जा सकता है, क्योंकि इनमें भारी-भरकम संख्याएं दांव पर लगी हुई हैं । इसका असर निश्चित रूप से आम आदमी की ज़िन्दगी परपड़ेगा । लेकिन क्या इस आर्थिक भविष्यवाणी को वाणिज्य और व्यापार से इतर अन्य पहलुआें के आधार पर नहीं परखा जाना चाहिए ? शायद हां । वाणिज्य और व्यापार से परे आर्थिक विकास दर का आकलन जल और भूमि के पैमानोंपर किया जा सकता है । इसकी एक वजह तो यह है कि समाज अपने अस्तित्व के लिए अंतत: प्राकृतिक संसाधनों जैसे जल, भूमि, खनिजों और इंर्धन पर निर्भर है । जिस गति से इन संसाधनों का दोहन किया जा रहा है, उससे ये बड़ी तेज़ी से खत्म होते जा रहे हैं । प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से इनके समाप्त् होने का खतरा तो है ही लेकिन साथ ही खनन कार्य से मनुष्य और अन्य प्राणियों के प्राकृतिक आवास पर भी गंभीर असर पड़ता है । मीठे पानी के संसाधनों की क्षति, ज़मीन में लवण की मात्रा बढ़ना, रेगिस्तानों का प्रसार, प्रकृतिक वास खत्म होना और कई प्रजातियों के अस्तित्व पर खतरे की तलवार लटकना ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं जो गंभीर असर के द्योतक हैं । ऐसे में यह जानना उचित होगा कि पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों के इसी गति के दोहन के मद्देनज़र भारत की आर्थिक विकास की संभावना क्या रहेगी । भारत के आर्थिक विकास के दो बड़े परिणाम निकलेंगे । एक, समाज के सभी लोगों के जीवन स्तर में सुधार की अपेक्षाएं बढ़ जाएंगी और दूसरा, व्यापार की ब़़ढती ज़रूरतों के मद्देनज़र वस्तुआें व सामग्री के उत्पादन में भी इज़ाफा हो जाएगा । इसका नतीजा यह निकलेगा कि धरती के प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव और भी बढ़ जाएगा । ऐसे में हमें देखना होगा कि भारत के प्राकृतिक संसाधनों का अभी कितना इस्तेमाल हो रहा है और प्रत्येक बारह साल में अर्थव्यवस्था को दुगना करने के लिए जिस आर्थिक विकास दर की ज़रूरत है, उसके मद्देनज़र वे कब तक दबाव को झेल सकते हैं । आज ही प्रौद्योगिकी दुनिया में भारत का आर्थिक विकास काफी हद तक धरती से सम्बंधित संसाधनों पर निर्भर करता है । इनमें जीवाश्म इंर्धन, रेडियोएक्टिव खनिज, लौह अयस्क, पानी, जंगल, मृदा और निर्माण सामग्री शामिल हैं । इस पूरे मुद्दे को समझने के लिए यहां हम बात को पानी और ज़मीन तक ही सीमित रखेंगे । भारत के ३२.८ लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल में हर साल औसतन ११७० मि.मी. बारिश होती है । घन किलोमीटर में देखें तो वर्षजनित पानी की मात्रा सालाना ३८४० घन किलोमीर होगी । इसमें से एक बड़ा हिस्सा सूर्य की गमी से होने वाले वाष्पीकरण और पौधों के वाष्पोत्सर्जन के फलस्वरूप वातावरण में चला जाता है । एक अनुमान के अनुसार विभिन्न महाद्वीपों में कुल बारिश का ६० से ८० फीसदी हिस्सा वाष्पीकरण के कारण वापस वातावरण में पहुं जाता है। भारत में वर्षा जल के ६९.५ फीसदी हिस्से का वाष्पीकरण हो जाता है । अगर ६० फीसदी के हिसाब से भी देखें तो यहां होेने वाली बारिश में से २३०० घन किलोमीटर पानी वातावरण द्वारा सोख लिया जाता है । शेष १५४० घन किलोमीट पानी या तो नदियों में बह जाता है या फिर ज़मीन के भीतर चला जाता है । मनुष्य के इस्तेमाल (कृषि कार्य, उद्योगों व घरेलू इस्तेमाल) के लिए जलापूर्ति ज़मीन के ऊपर बहने वाले पानी और भू-जल दोनों से होती है । चूंकि धरती पर रहने वाले तमाम जीव-जंतु और वनस्पतियां भी पानी केे लिए इन्हीं स्त्रोतों पर निर्भर रहते हैं, इसलिए मनुष्य को पानी का इस तरह से संतुलित वितरण करना होगा कि वनस्पतियां और जीव-जंतु उससे वंचित न रह जाएं । उपलब्ध अनुमानों के अनुसार भारत में वर्तमान में धरती के भीतर के ६३४ से ६४५ घन किलोमीटर पानी का दोहन किया जा रहा है जो पुनर्भरण क्षमता के लगभग बराबर है । दूसरे शब्दों मेंकहे तो भारत अपने जल संसाधनों का इस्तेमाल उनकी लगभग पूर्ण क्षमता तक कर रहा है । यदि अगले २५ सालों की अर्थव्यवस्था को चार गुना करना है तो इसका मतलब यही होगा कि पानी का इस्तेमाल भी इसी अनुपात में बढ़ेगा । औद्योगिक विकास और शहरीकरण के साथ-साथ प्रचंड आर्थिक विकास के फलस्वरूप विभिन्न प्रकार प्रकार के अपशिष्ट पदार्थोंा में भी भरी बढ़ोतरी होगी। इनमें ज़हरीले और गैर ज़हरीले दोनों प्रकार के अपशिष्ट होंगे । भारत के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान देने वाली सूचना प्रौद्योगिकी भी इलेक्ट्रॉनिक सामग्री के रूप में भारी मात्रा में ठोस व तरल कचरा पैदा कर रही है । कुछ दशक पहले तक ऐसे कचरे के बारे में कोई जानकारी नहीं थी । हालांकि अभी घरेलू व औद्योगिक कचरे की मात्रा को लेकर कोई विश्वसनीय अनुमान उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन देश के आर्थिक विकास के साथ ही इसमें भी बहुत ज्यादा बढ़ोतरी होना लाज़मी है । कचरे को ठिकाने लगाने का कोई उपाय नहीं है, इसलिए उसे धरती पर या धरती में किए गए ग ों में डाल दिया जाता है जहां वे आने वाली सदियों तक ऐसे ही पड़ा रहेगा । ग ों में डाले गए कचरे का एक दुष्परिणाम यह होगा कि इससे ज़मीन के भीतर कीमती जल प्रदुषित होता जाएगा । कचरा फेंकने के लिए स्थलों का चयन भू-वैज्ञानिक और जल विज्ञान सम्बंधी परिस्थितियों के आधार पर किया जाना चाहिए और स्थानीय लोगों की अनुमति भी ज़रूरी होनी चाहिए । ऐसी जगह पाना बहुत मुश्किल होगा । आर्थिक विकास के साथ सड़कों, पुलों, भवनोंे और अन्य सिविल इंजीनियरिंग निर्माणों में भी बढ़ोतरी होती है । निर्माण कार्य मुख्य तौर पर मिट्टी, रेत, बजरी और चूना पत्थर इत्यादि पर निर्भर करते हैं । यह सामग्री नदियों के तलों व तलछट और चट्टानों से हासिल की जाती है । इन पदार्थोंा के बड़ी मात्रा में दोहन से जल की प्रकृति में बदलाव आएगा, मिट्टी का कटाव बढ़ेगा और अंतत: मछलियों व वन्य जीवों के आवास स्थलों पर भारी असर पड़ेगा, वे नष्ट होते जाएंगे । पर्यावरणीय खतरों के मद्देनज़र निर्माण सामग्री का दोहन उस गति से नहीं किया जा सकता, जो अर्थव्यवस्था की गति को बनाए रखने के लिए जरूरी है । कचरे के निपटान और निर्माण सामग्री के खनन के इन उदाहरणों से पता चलता है कि जल संसाधन का प्रबंधन, भू-निर्माण योजना और इकोसिस्टम का संरक्षण तीनों परस्पर संबंधित हैं । १९९१ में देश में आर्थिक उदारीकरण के बाद से निर्माण कार्यो को अंधाधुंध गति से आगे बढ़ाया गया और इस बात की कोई परवाह नहीं की गई कि जल संसाधन, पर्यावरण और इकोसिस्टम पर इसका क्या प्रतिकुल असर पड़ेगा । निकट भविष्य में इस प्रवृत्ति पर विराम लगने का कोई संकेत भी नज़र नहीं आता । संक्षेप में कहे तो भारत अपने आर्थिक विकास के साथ जल संसाधन की संपूर्ण क्षमता का इस्तेमाल कर रहा है । लेकिन किसी समन्वित योजना और समग्र राष्ट्रीय जल नीति क अभाव में समाज के विभिन्न वर्गोंा के बीच जल संसाधन का वितरण बेहत असंतुलित है । जल वितरण की मौजूदा असंतोषजनक स्थिति में सुधार के मामले मेें भारत को नीति, प्रशासन और सामाजिक नज़रिए के स्तर पर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है । प्रकृति द्वारा मनुष्य को उपलब्ध है, वह भी अनियंत्रित इस्तेमाल व प्रदूषण की वजह से बर्बाद हो रहा है । इन तथ्यों की रोशनी में कोई भी इस बात की उम्मीद नहीं कर सकता कि भारत के जल संसाधन उभरती अर्थव्यवस्था की बढ़ती मांग के साथ कदम मिलाकर चल सकेंगे। यह तो साफ है कि भारत अपने महत्वकांक्षी आर्थिक विकास के लिए विज्ञान और प्रोद्योगिकी का इस्तेमाल कर रहा है । ऐसे में आर्थिक विकास में भूमि-विज्ञान की भूमिका की उपेक्षा कैसे की जा सकती है ? इसकी एक वजह तो यह मुगालता हो सकता है कि समसामयिक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में विकास के अलावा प्रतिस्पर्धा, वैश्विक बाज़ार व बौद्धिक संपदा अधिकार की वजह से मिलने वाले वित्तीय लाभ आर्थिक विकास की राह में आने वाली किसी भी बाधा से निपट लेंगे । लेकिन धरती के मामले में प्रौद्योगिकी पर इस भरोसे को थोड़ा कम करना चाहिए। हालांकि भौतिकी व रसायन शास्त्र के सिद्धांत धरती को समझने में अहम भूमिका निभाते हैं, लेकिन धरती और उसकी जैविक प्रणालियों के ऐसे भी कई पहलू हैं जो भौतिकी व रसायन शास्त्र से परे हैं । धरती और उसकी जैविक प्रणालियों की जटिलताआें व उनके बीच पारस्परिक संबंधों की वजह से उनके व्यवहार की भविष्यवाणी करने और कार्य प्रणालियों पर नियंत्रण करने में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की अपनी सीमा है । विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पानी की उपलब्धता को नहीं बढ़ा सकते, क्योंकि यह जलवायु पर निर्भर करती है । हां, अगर विज्ञान का इस्तेमाल समझदारी से किया जाए तो पानी का प्रभावी ढंग से उपयोग करने में सहायता ज़रूर मिल सकती है । यदि वैश्विक तापमान वृद्धि की वजह से सघन आबादी वाले निचले क्षेत्र डूब जाते हैं या सालों चलने वाले सूखों की वजह से वर्षा की मात्रा में कमी आती है, तो आर्थिक विकास से अपेक्षाएं और भी बेमानी हो जाएगी । भारत की आर्थिक सेहत मुख्य तौर पर जल एवं भूमि संसाधनों के विवेकपूर्ण इस्तेमाल करने की उसकी क्षमता पर निर्भर करेगी । इस समय भारत भू-जल के अत्यधिक दोहन, जल स्त्रोतों के प्रदूषण ओर अंधाधुंध भू-विकास की वजह से जल संकट के दौर से गुज़र रहा है । आर्थिक और राजनीतिक समस्याआें के तदर्थ समाधानोंकी वजह से दीर्घकालीन सोच का अभाव नज़र आता है । ऐसा मुगालता हर जगह है कि प्रौद्योगिकी और बाज़ार की ताकतों के बल पर पानी और प्राकृतिक संसाधनों की समस्या का समाधान निकाल लिया जाएगा। हालांकि धरती को लेकर हमार ज्ञान बताता है कि प्राकृतिक संसाधनों की समस्या का कोई आसान या तकनीकी समधान नहीं है । अभी जो पानी उपलब्ध है, उसके प्रभावी व समान वितरण के लिए भारत को गंभीरता के साथ ध्यान देना होगा और ऐसे नीतियां बनानी होगी जो प्राकृतिक संसाधन तंत्रों के महत्व को मान्यता प्रदान करें । अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में भारत के शानदार प्रदर्शन के बावजूद भारतीय सोच में उस संतुलन का अभाव है जो धरती को समझ सके । इस धरती पर ही समाज निर्भर है और इस पर केंद्रित मानव मूल्यों की परिधि के भीतर ही विज्ञान, प्रौद्योगिकी और धन संपदा को कार्य करना होगा । इस संतुलन के अभाव में आने वाले दशकों में भारत की आर्थिक विकास की अपेक्षाआें के कोई मायने नहीं रह जाएंगे । ***क्या है जंगल के उपकारमिट्टी पानी और बयार, मिट्टी पानी और बयार ये हैं जिंदा रहने के आधार

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