कचरे से सोना निकालने वाले लोग
प्रो. रामप्रताप गुप्ता
मध्यप्रदेश के नीमच जिले के रामपुरा कस्बे में न्यारगर समाज के४०-४५ परिवार निवास करते हैं । इस समाज के लोगों की धूलधोया और मुल्तानी भी कहा जाता है । इन परिवारों का व्यवसाय देश के विभिन्न नगरों के सराफों, स्वर्णकारों द्वारा उनके परिसर की वर्ष भर में एकत्रित धूल को क्रय कर उसका शोधन कर उसमें जो भी सोनें तथा चांदी के कण रहते हैं उन्हें वापिस प्राप्त् करके नष्ट होने से बचाना है। धूलधोया नाम भी इन्हें इसी व्यवसाय के कारण मिला है । पूर्व में यह समाज एक घुमक्कड़ समाज था । परंतु २००-२५५ वर्ष पूर्व तत्कालीन होल्कर नरेश ने इन्हें रामपुरा में बस जाने के लिए प्रेरित किया और इस हेतु सुविधाएं भी प्रदान की । न्यारगर समाज के लोग रामपुरा के अतिरिक्त मंदसौर, कोटा, पाटन, नीमच जैसे नगरों में भी बसे हुए हैं । परंतु अब वे इस व्यवसाय को छोड़कर अन्य कार्य करने लगे हैं । मंदसौर में तो इनका पूरा एक मोहल्ला बस हुआ है जिसे मुल्तानी मोहल्ला कहा जाता है । न्यारगर समाज के लोग देश के विभिन्न गगरों के स्वर्णकारों, सराफों की वर्षभर में एकत्रित इस धूल की उसमें सोने चांदी के कण होने की संभावना के आधार पर वे ५ से ४० हजार तक की कीमत चुकाते हैं । धूल में सोने, चांदी के कणोका अनुमान ये उसके वजन, परिसर में वर्षभर होने वाले क्रय, विक्रय, गहनों के निर्माण व कार्य के आधार पर लगाते हैं । इस धूल को क्रय किए गए नगर में ही धोकर, उसमें से कम धनत्व वाले अंश को वहीं फेंक देते हैं तथा भारी भाग को रामपुरा ले आते हैं । फिर उसका शोधन कर उसमें से सोना, चांदी निकाल लेतेहैं । सोने चांदी के अतिरिक्त इस धूल में निकिल और केडमियम भी रहता है । केडमियम तो शोधन प्रक्रिया में ही नष्ट हो जाता हैै । इनका कहना है कि ये लोग इस धूल में प्रतिवर्ष नष्ट होने जा रहा ५ किलो सोना तथा २५० किलोग्राम चांदी निकाल कर राष्ट्र को आपूर्ति करते हैं । इस तरह राष्ट्र का ७५ लाख का सोना तथा ५० लाख की चांदी बचा लेते हैं । न्यारगर समाज के लोगों को धूल क्रय करने के लिए धन की आवश्यकता होती है । अत: वे साहूकारों से २.५ से ५.० प्रतिशत की ब्याज दर पर उधार लेते हैं । अगर हमारे व्यवसायिक अथवा सहकारी बैंक उन्हें कार्यशील पूंजी के लिए ऋण सुविधा प्रदान कर दें तो उन्हें साहूकारों के शोषण से मुक्ति मिल सकती है । जिस तरह किसानों के लिए क्रेडिट कार्ड की व्यवस्था की गई है, जिसके माध्यम से वे एक निश्चित मात्रा में राशि बैंक से कभी भी निकाल सकते हैं ऐसी ही व्यवस्था इस समाज के लिए भी कर दी जाए तो अपने इस कचरे से कंचन निर्माण के व्यवसाय में बड़ी सुविधा होगी । अनेक परिवार जो धन के अभाव में सराफों-स्वर्णकारों के परिसर की धूल क्रय ही नहीं कर सकते हैं वे श्हारों की नालियां साफ कर उसमें से धातुएं निकालते हैं । इस प्रक्रियामें उन्हें कभी-कभी सोना चांदी भी मिल जाता है । वर्षा ऋतु के दौरान इस तरह की चीजें मिलने की अधिक संभावना रहती हैं । परंतु इस कार्य को करने वालों की आय बड़ी अनिश्चित रहती है । कभी अच्छी कीमत की वस्तु मिल जाती है तो कभी कई दिनों तक उन्हें कुछ भी नहीं मिल पाता है । ये यथासंभव नष्ट हो रही संपदा को बचाकर राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में योगदान देते हैं । ये लोग वर्ष के अधिकांश समय रामपुरा से बाहर रहते हैं । अत: उनके बच्च्े पढ़ नहीं पाते हैं और शीघ्र ही विद्यालय जाना छोड़ देते है । अनेक परिवारों की महिलाएं भी परिवार की निम्नस्तरीय आर्थिक स्थिति के कारण मजदूरी करने को बाध्य हो जाती है । यह समाज शराब, जुए जैसे व्यसनों से मुक्तहै । इनके अधिकांश वैवाहिक संबंध मंदसौर कोटा व पाटन के न्यारगर लोगों के साथ ही है । अगर सरकार इस कचरे से कंचन बनाने वाले समाज को समुचित प्रोत्साहन दे, इन्हें व्यावसायिक बैंकों से चालू पूंजी दिलाने की व्यवस्था कर दी जाए, इस व्यवसाय को कुटीर उद्योग की मान्यता देकर उद्योग जैसा संरक्षण दिया जाए तो इस समाज के लोग तो प्रगति करेंगे ही, साथ ही राष्ट्र की नष्ट हो रही संपदा को अधिक बेहतर ढंग से बचा सकेंगे । सोने जैसी बहुमूल्य धातुआें को कचरे से पुन: खोजकर निकालना धूरे से सोना जैसे मुहावरों को पूरी तरह से चरितार्थ करता है । ***
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