गुरुवार, 19 नवंबर 2009

६ कविता

पथिक का संकल्पसंजय प्रधानगर्मियों की धूप में पथिकचला जा रहा राह परतपस से बुरा हाल था, उसका ।
सूर्य देव की चमकअपने प्रचण्ड तेज सेपवन देव थे, विलुप्त्छाया नहीं थी, पेड़ों कीपरिन्दे थे अकुलाये ।।
प्यास लग रही थी, उसेमन वो सोच रहा था,मिलें, बून्द दो शीतल जलकी तो प्यास बुझे उसकी ।।
गुबार धूल का उठ रहा,जंगल कंकरीट का दिख रहा,होठ शुष्क हो गये, उसकेपर जल नजर नहीं आरहा था उसे ।।
चलते-चलते थक गया जबसोचकर, आराम करूं कुछदेर वृक्ष के नीचे, उसे किसीकी आवाज आई, पथिक ने पूछाकौन हो भाई, मुझे मत करोंपरेशान मेरे भाई ।।मुझसे पूछते हो कि कौन हूँ,मैं हूँ पर्यावरण, जिसकातुमने ये हाल किया, तुमने ही बार-बार मेरा चीर हरणकिया और सब कुछबरबाद किया ।।
मैं हूँ तुम्हारा भूत भविष्यअपने लिये नहीं अपने बच्चेंके लिये ही, मुझ पर प्रहार मतकरों मेरे भाई ।।
अगर मैं नाराज हो गया तोसमझा रहा हूैं, सब खत्म हो जायेगा,रहेंगे जंगल कंकरीट के,वनस्पति समाप्त् हो जायेगी ।।
सुनकर पथिक हैरान था, किक्या वृक्ष बोलते हैं, और अपनीव्यथा कहते हुये, फिर उठा पथिकसोच के ये बात, वृक्षारोपण कर, पर्यावरण बचाना है, जन-जागरणकर जल संचय करवाना है ।।
सोच कर मन में लक्ष्य उसनेमंथन किया, और संकल्प भरमन में बढ़ता गया-बढ़ता गया ।।
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