निर्धन होता एशिया
ची योक हिआेंग
वैश्विक आर्थिक संकट के गहराते संपूर्ण एशिया में गरीबी में और भी वृद्धि हो रही है । आज एशिया में एक अरब से अधिक व्यक्ति घटती आमदनी, रोजगार की हानि और निर्यात आधारित वृद्धि जो कि एशिया की समृद्धि को मुख्य मार्ग थी, के घटते विपन्नता का शिकार हो गए हैं । गौरतलब है कि दुनिया की सर्वाधिक गरीब आबादी एशिया में ही निवास करती है । पहले कहा जा रहा था कि विकसित देशों की मंदी एशिया पर प्रभाव नहीं डालेगी परंतु यह बात गलत साबित हुई । एशिया विकास बैंक (एडीबी) के अनुसार इस वर्ष एशिया महाद्वीप में वृद्धि दर के तीन प्रतिशत तक गिरकर ३.४ प्रतिशत के निम्न स्तर तक पहुंच जाने की आशंका है, जो कि १९९७-९८ के बाद न्यूनतमहै ।इस स्थिति में परिवर्तन अमेरिका, यूरोपीय यूनियन और जापान की मंदी की व्यापकता और अवधि पर निर्भर करता है क्योंकि इन देशों में एशिया के निर्यात के ६० प्रतिशत होती है । एडीबी के अनुसार धीमी वृद्धि दर मायने हैं विकासशील एशिया में ८ करोड़ से अधिक व्यक्ति जिसमें से १.४ करोड़ अकेले चीन में हैं और २०१० तक २.४ करोड़ की अतिरिक्त आबादी का, गरीबी की चपेट में आ जाना । ये वो लोग हैं जो कि गरीबी के शिकंजे से मुक्त हो सकते थे बशर्तेंा वर्तमान आर्थिक संकट न आता और आर्थिक वृद्धि दर पूर्ववत कायम रहती । संयुक्त राष्ट्र संघ का भी अनुमान है कि कम वृद्धि दर वाली अर्थव्यवस्थाआें में गरीबों की संख्या और गरीबी दर में बढ़ोत्तरी हो सकती है । जमीनी हकीकत यह है कि इस वैश्विक उथल-पुथल ने गरीबो को सर्वाधिक चोट पहुुंचाई है । हालांकि खाद्य पदार्थोंा एंव इंर्धन के मूल्य अपने जीवन स्तर से नीचे आ गए है परंतु लोगों को जीवन स्तर २००७ के स्तर पर वापस नहीं आ पाया है । साथ ही अब यह व्यापक रूप से स्वीकार किया जा रहा है कि वर्तमान वैश्विक आर्थिक संकट ने पिछले दशक में गरीबी को कम करने में पाई गई सफलता पर पानी फेर दिया है । ब्रिटेन स्थित विकास अध्ययन संस्थान (आईडीएस) द्वारा पांच राष्ट्रों की शहरी और ग्रामीण आबादी जिसमें बंगलादेश और इंडोनेशिया भी शामिल हैं, में किए गए जमीनी अध्ययन से पता चलता है कि निर्धन समुदाय के भोजन की मात्रा में कमी आई है, उनके भोजन में विविधता समाप्त् होती जा रही है एवं पोषण खाद्य पदार्थ भी उनकी पहुंंच से बाहर हो गए हैं । कुछ मामलों में व्यक्ति अपना उपचार स्वयं करने को मजबूर हो गए हैं क्यांकि वे महंगी स्वास्थ्य सेवाआें के भुगतान मेंअसमर्थ हैं । इतना ही नहीं इस मंदी के कारण बच्चें की शिक्षा तक खतरे में पड़ गई हैं और अनेक लोगों ने अपने बच्चें को स्कूल से निकाल कर सस्ते मदरसो में भर्ती करा दिया है । इंडोनेशिया के शहरी इलाकों में रहने वाले बड़ी तादाद में २००८ के अंत में अपने मूल निवास की ओर लौटने लगे क्योंकि निर्यात में आई कमी के कारण उनके अनुबंधो का नवीनीकरण नहीं हो पा रहा था । वहीं ढाका में वस्त्र निर्माण में कार्यरत श्रमिकों का कहना है कि उन्हें अब बेहतर कार्य स्थिति वाले कारखानों के बजाए जोखिम भरे व गंदे कारखानों में ही कार्य मिल पा रहा है । वहीं अनेक स्थानों पर लोग सोना खनन जैसे जोखिम भरे अथवा तस्करी जैसे असामाजिक कार्योंा की ओर मुड़ गए हैं । वहीं चीन में शंघाई एवं गुंआंगझो जैसे निर्यात आधारित औद्योगिक शहरों से २ करोड़ आंतरिक अप्रवासी अपने घरों को लौट गए हैं । एडीबी के अनुसार २००८ की चौथी तिमाही में विकासशील एशिया जिसमें पूर्वी एवं दक्षिण पूर्वी एशिया शामिल हैं की वृद्धि दर में ३० प्रतिशत तक की कमी आई हैं । वहीं दक्षिण एशिया में भी यह दोहरे अंकों में पहुंच चुकी है । विश्व बैंक का अनुमान है कि यूरोप, अमेरिका ओर मध्यपूर्व में आई मंदी के फलस्वरूप विकासशील देशों में आवर्जन के माध्यम से आने वाले धन में पिछले दो वर्षो में करीब १५ अरब डॉलर तक की कमी आई है । फिलीपींस जैसे देश जो कि इस तरह के धन पर अत्यधिक आश्रित हैं, कंगाली के कगार पर पहुंच चुके है । दक्षिण एशिया जिसमें भारत, बांगलादेश और पाकिस्तान शामिल हैं, में २००८ में इस धनराशि में १६ प्रतिशत की वृद्धि हुई थी जो कि २००९ में घटकर शून्य पर आ गई । इंडोनेशिया के ४० लाख नागरिक विश्वभर में कार्य करते हैं । एक अनुमान के अनुसार इनसे २ लाख से अधिक को स्वदेश लौटना पड़ सकता हैं । आर्थिक गिरावट की गंभीरता को अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि सन् २००७ से २००९ के मध्य एशिया में कार्य करने वाले गरीबों की संख्या में ५ से १२ करोड़ तक की वृद्धि हुई है । इन परिस्थितियों का सर्वाधिक विपरीत प्रभाव महिलाआें पर पड़ा हैं । क्योंकि वे वस्त्र निर्माण, कपड़ा और इलेक्ट्रानिक उद्योग में बहुतायत में कार्य कर रहीं थी और इन्हीं उद्योगों पर मंदी का सर्वाधिक प्रभाव भी पड़ा है । इन उद्योगों में पांच महिलाआें के मुकाबले दो पुरूषों को नियुक्त किया जाता था अतएव जीविका के साधने से उन्हें ही अधिक संख्या में हटाया गया । पूंजी बाजार की जाखिम लेने की क्षमता में कमी का खमियाजा भी एशिया के देशोंको उठाना पड़ रहा है । एडीबी का मानना है कि इन देशों में सीधे विदेशी निवेश में काफी कमी आई है और अधोसंरचना आधारित परियोजनाआें में तो निवेश का सूखा-सा पड़ गया है । अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं अन्य वैश्विक विकास बैंकों में प्रस्तावित सुधार के पश्चात यह उम्मीद बंधी है कि विकासशील देशों को कुछ अतिरिक्त धन प्राप्त् हो पाएगा परंतु वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए इसके बहुत न्यन होने की आशा है । इसी के समानांतर वर्तमान पूंजी बाजार का अत्यंत संरक्षणवादी रवैया भी चिंता पैदा कर रहा हे । पिछले कुछ महीनों में अमीर देशों ने अपने घरेलू वित्तीय क्षेत्र को विभिन्न तरीकों से सहायता पहुंचाई है । आईडीएस के शोध में बताया गया है कि मंदी की वजह से बढ़ रहे तनावों की वजह से घरेलू हिंसा के प्रकरणों में भी वृद्धि हुई है । इसी के साथ छोटे अपराध, ड्रग्स और शराब पीकर हंगामा करने के मामलों में भी तेजी आई है । इतना ही नहीं बच्चें और बूढ़ों को त्यागने और युवाआें द्वारा अपराधों की संख्या मे भी वृद्धि हुई है ।इन परिस्थितियों में वैश्विक अंतरनिर्भरता को भी चर्चा के दायरे में ला खड़ा किया है और इसके लाभों को लेकर बहस प्रारंभ हो गई हैं । सत्यता तो यही है कि गरीबी की समस्या सिर पर आकर खड़ी हो गई है और अधिकांश देश इसके लिए तैयार नहीं हैं । ***
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