निर्जला होती नदियाँ
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
हमारी धरती की रसवती नाड़ियाँ सरीखी नदियाँ, ऐसी जल रेखाएँ है जो हमारा भाग्य लिखती है । किन्तु आज हमारे सारे क्रियाकलाप जीवन का आधार खो रहे है । निर्जला नदियाँ प्यास से व्याकुल है । हमें अपना भविष्य सुरक्षित करने के लिए अपनी प्रकृति को निरापद रखना होगा ताकि उसकी गोदी में खेलती रहेे असंख्य नदियाँ । हमें अक्षय विकास की ऐसी सुखद बयार लानी है कि बहती रहे ये सरस धाराएँ । क्योंकि कोई भी नदी केवल जल वाहक ही नहीं होती है वह उपजाऊ धरती का मर्म संजोती है । संसार का हर व्यक्ति पेयजल, खाद्य पादर्थ, मत्स्य पालन, पशु पालन, कृषि एवं सिंचाई साधन आदि के लिए नदी जल परम्परा से जुड़ा है । जल चक्र की नियामक धारा स्वरूपा इन नदियों को सहेजना हमारा धर्म है । ताकि प्राण रक्षक तत्वों का प्रवाह हमारे जीवन में शाश्वत बना रहे और हमारी सभ्यता एवं संस्कृतिभी पोषित होती रहे । अब वक्त आ गया है कि हम उन कारणों को खोजे जो हमारी नदियों एवं जल वितरणिकाआें को निर्जला कर रहे है । हमारी रसवसना नदियों को सुखाकर अथवा प्रदूषित कर हमारी आँखों में आँसू भर रहे है । जब किसी नदी का जल पीने योग्य नहीं रहता और कोई प्यासा तट पर आकर प्यासा ही रह जाता है तो नदी भी यकीनन मर जाती है । अब तो सागर भी जलवायविक व्यतिक्रम तथा ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण तेजाबी होता जा रहा है। सागर में अम्लीयता बढ़ रही है । कार्बनिक एसिड पानी के पी एच स्तर को कम करता है, जिससे अम्लीयता बढ़ती है । जीवाश्म इंर्धन के दहन से उत्सर्जित कार्बन डाई आक्साइड का अवशोषण भी समुद्र के द्वारा होता है। तेजाबी होता हुआ समुद्र अपनी जैविकी खो रहा है । मानों आँसू पी पी कर सागर खारा हो रहा है । समुद्री धारा प्रवाह और ताप परिवर्तन के कारण बादल बनने की क्रिया भी प्रभावित हो रही है । कहीं पर वर्षा कम तथा कहीं पर सामान्य से अधिक हो रही है । कही नदियाँ सुखाड़ से प्रभावित है, तो कही बाढ़ से । जलाभाव हो अथवा जल भराव, दोनों ही स्थितियों में कष्ट तो नदी ही उठाती है । दर्द से नदियाँ कराह उठती है। कौन सुनेगा मरती हुुई नदी की आर्त पुकार? देखें तो जरा क्या है हमारी रस वसना नदियों का हाल। अमेरिका स्थित नेशनल सेंटर फॉर एटमोस्फिरिक रिसर्च (एन सी ए आर) के अध्ययन के अनुसार ग्लोबल वॉर्मिंग का जबरदस्त प्रभाव नदियों की प्राणता पर पड़ रहा है । वैज्ञानिकों ने ५६ वर्ष (सन् १९४० से २००४ तक) की दीर्घकालिक कार्ययोजना एवं अध्ययन के आधार पर विश्व की ९२५ नदियों के जलग्रहण एवं जलप्रवाह को आकलित किया । अध्ययन से यह ज्ञात हुआ कि ३०० नदियाँ जलवायु परिवर्तन से अधिक प्रभावित है। हिन्द तथा प्रशान्त महासागर में गिरने वाली २०६ नदियों के जल प्रवाह में कमी आई है और हिमनदीय आर्कटिक क्षेत्रों में होकर बहने वाली १०२ नदियों के जलप्रवाह में वृद्धि हुई है । इस प्रवाह वृद्धि का कारण तापन से पिघलते हिमनद तथा ग्लेशियर हैं और जिन नदियों में प्रवाह कम हुआ है उसका मुख्य कारक मनुष्य है । मनुष्य के अक्षम्य क्रिया कलाप न केवल जल का दुरूपयोग बढ़ा है वरन वह जल को विषाक्त भी कर रहे हैं । हम भूल रहे हैं कि अन्तत: यह विष हमें ही पीना पड़ेगा । किसी भी नदी के जल ग्रहण क्षेत्र तथा प्रवाह का सामान्य से कम या अधिक होना पर्यावरणविद्ों तथा भूवेत्ताओें को चिंतित करता है अब जन-जन को जल के सरोकार से जुड़ जाना चाहिए । यूँ तो किसी भी नदी का संकटापन्न होना गम्भीर बात है । तथापि वैश्विक रिपोर्ट में भारत की गंगा, चीन की पीली नदी, पश्चिमी अफ्रिका की नाइजर नदी तथा दक्षिणी अमेरिका की कोलोरेडो नदी को संकटापन्नता पर विशेष चिंता व्यक्त की गई है । हमें आंकड़ों की मुँहदेखी के बजाये सत्य से स्वयं साक्षात्कार करना चाहिए । आप अपने निकट की किसी भी जलधारा, सरिता अथवा नदी के तट पर जाकर स्वयं वस्तु स्थिति ज्ञात कर सकते हैं । नदियों के सूखे तटों तक झोंपड़ पटि्टयाँ बनी हुई मिल जायेगी । नदी के सुखाड़ों पर अवैध कब्जा जमाये हुए लोग, तट पर कूड़ा करकट करके नदी को नाला बनाने में मुख्य भूमिका निभाते है । उत्तराखण्ड पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण बोर्ड का हालिया बयान आने पर कि गंगा का पानी प्रदूषण के चलते सिंचाई योग्य भी नहीं रह गया है, जल प्रहरी चिंता में डूब गए है । जिस गंगा जल की पवित्रता, श्रृद्धा और भक्ति, विज्ञान को चुनौति देती रही, उसकी यह दुर्गति क्यों और कैसे हुई ? जिस गंगा जल में आक्सीजन को पानी में बरकरार रखने की विलक्षण क्षमता रही है वह भी स्वयं निष्प्राण हो रही है । हालांकि जीवन दायिनी गंगा को नवजीवन प्रदान करने की कोशिश में १२०० करोड़ की धन राशि व्यय भी हो चुकी है तथा प्रतिवर्ष ३५० करोड़ आगे भी व्यय किया जा रहा है किन्तु नतीजा शून्य है । क्यों शिखर पर ही मैली हो रही है । गंगा कि आचमन योग्य भी नहीं रहती ? क्या गंगा को यूँ ही मरने दिया जाये ? ज्ञातव्य है कि कई राष्ट्रों की जल पोषिता राइन नदी कुछ दशक पूर्व तक मृतप्राय थी किन्तु गंभीर प्रयासों द्वारा उसे नवजीवन मिला । विश्व की नदियाँ अचानक संकटापन्न नहीं हुई है । अविवेकपूर्ण अत्यधिक दोहन, जलवायविक परिवर्तन तथा जनसहयोग का अभाव नदियों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है । राष्ट्रो के बीच तथा एक ही राष्ट्र में राज्यों के बीच प्रवाहमान नदियाँ तो हमेशा विवाद के घेरे में रहती है । संकटापन्न नदियों की घाटियाँ भी प्रभावित हुई है । संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यू एन ई पी) तथा एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (ए आई टी) की हालिया रिपोर्ट, दक्षिण एशिया ताजा पानी संकट इसी ओर इंगित करती है । अत: आज ऐसे टिकाऊ विकास की आवश्यकता है जो हमारी धरती की नौसर्गिकता को भी अक्षुण्ण रख सके । प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधंुध दोहन से कुछ समय के लिए भले ही हम आर्थिक वृद्धि दर की चकाचौैंध में खो जाएं किन्तु दीर्घकालिक दृष्टि से यह घाटे का ही सौदा सिद्ध होता है । हम यह तथ्य भूल रहे है कि हमें प्रकृति से त्याग के साथ उतना ही ग्रहण करना चाहिए जो कि निहायत जरूरी है क्योंकि प्राकृतिक संसाधनों पर हमारी संततियों का भी हक है । अन्य जीव जन्तुआें का भी हक है । यदि एक नदी मरती है तो मर जाती स्थान विशेष की सभ्यता । हमने विकास की आड़ में विनाश का ताना-बाना बुन डाला है और आधुनिक विकास की विसंगतियाँ हिमालय की उन चोटियों पर भी पहुँच गई हैं जो शुभ धवल हिमाच्छित रहती थी, वहीं से निकलती है सरस धाराएं और विराजती रही प्राकृतिश्री समृद्धि । किन्तु अब वहाँ भी जनसंख्या की सघनता सुरम्यता को आहत कर रही है । कोई भी नदी हमारी संस्कृति और सभ्यता का आइना होती है किन्तु अब नदियों का जल इतना अधिक प्रदूषित है कि उसमें हमे अपना अक्स भी नहीं दिखता । आखिर कब तक महिमावंत नदियों के जल का अनादर करते रहेंगे हम । यह विचारणीय प्रश्न है । नदियों के संरक्षण हेतु नदियों का संज्ञान जरूरी है । उनके उद्गम स्थल, प्रवाह मार्ग, जलग्रहण क्षमता तथा जल वितरण को भी समझना जरूरी है । गंगा यमुना तथा उनकी सहायक नदियाँ प्राय: दक्षिण पूर्व की ओर बहती है । इसके विपरीत रावी, व्यास और सतलज नदियाँ दक्षिण पश्चिम की ओर बहती हैंं । बंगाल की खाड़ी के उत्तर में गंगा तथा ब्रह्मपुत्र की जलवितरिकाएं मिलकर बड़ा और उपजाऊ डेल्टा बनाती है । उत्तरी भारत की इन नदियों का उद्गाता हिमालय पर्वत है जिसकी हिमाच्छातिदत श्रेणियों से नि:सृज जल की सूक्ष्म धाराएं नदियों का पोषण करती है । वन प्रांतर इन धाराआें के रक्षक हैं । जब यह नदियाँ धरती की गोद में उठखेलियाँ करती हैं तब शिव का डमरू सा बजता है। शिवालिक की श्रेणियों के दक्षिण मंे भावर और तराई परिक्षेत्र नदियों के अवतरण के कारण ही उर्वर है। क्येंकि नदियां अपने साथ उपजाऊ मिट्टी लाकर धरती पर बिखरा जाती हैं । आजकल पहाड़ो पर होने वाले खनिज-खनन के कारण भी नदियाँ आहत हो रही हैं और जल प्लावनता खो रही हैं । खनन से नदी का रूप विकृत होता है वह सुकृत नहीं रह पाती और सूख जाती है । दक्षिण के त्रिभुजाकार पठार के उत्तर में अरावली सतलज और यमुना को पृथक करता है । पूर्वीघाट और पश्चिमी घाट श्रेणियों को काटकर महानदी, गोदावरी कृष्णा पेनार तथा कावेरी नदियों ने अपनी विस्तृत घाटियाँ बना ली है । नर्मदा तथा ताप्ती नदियाँ पठारी भाग से निकलकर पश्चिम की ओर चौड़े मुहाने के रूप में अरब सागर में गिरती है । यमुना की सहायक नदियाँ चम्बल बेतवा और केन उत्तर पूर्व की ओर बहती हुई यमुना में गिरती हैं । पठार से निर्गत नदियॉ भी उपेक्षा का शिकार होकर निर्जला होती जा रही है। आदिकाल से ही नदियों के तटों पर मानवीय सरोकर जुड़े रहे हैं । नदियों को उनकी मातृवत्सला पोषण शक्ति के कारण विश्व मातर कहा गया है । नदियों के प्रति हम कृतज्ञता का भाव व्यक्त करते हैं । नदियों के प्रति काका कालेलकर का भाव दृष्टव्य है ``नदी को देखते ही मन में विचार आता है कि यह कहां से आती है और कहंा जाती है ... आदि और अंत को ढूंढने की सनातन खोज हमें शायद नदी से ही मिली होगी ....। पानी के प्रवाह या विस्तार में जो जीवन लीला प्रकट होती है उसके प्रभाव जैसा कोई प्राकृतिक अनुभव नहीं । पहाड़ चाहे कितना उत्तुंग या गगन भेदी क्यों न हो, जब तक उसके विशाल वृक्ष की चीर कर कोई जलधारा नहीं निकलती, तब तक उसकी भव्यता कोरी, सूनी और अलोनी ही मालूम होती है।'' ऐसी उत्कृष्ट मनीषा और भावबोध से अनुप्राणित होने पर भी उत्तर आधुनिकता के व्यामोह में सभ्यता के शीर्ष पर विराज कर आदमी उसी डाल को काटने पर आमादा हो गया है जिस पर स्वयं बैठा हुआ है । विकास की हाड़ और धन अर्जन की दौड़ में प्रकृति संरक्षण का भाव तिरोहित हो गया है । यही कारण है कि विश्व की प्रमुख नदियों में जल प्रवाह क्षीण होता जा रहा है । आशंका व्यक्त की जा रही है कि यदि यही हालात चलते रहे तो कुछ ही दशक बाद नदियों हो जायेंगी सुखाड-निर्जला । नदियों के निर्जला होने का सबसे बड़ा कारण है हमारे विकास कार्योंा का नदियों की धारा के विपरीत होना । विकास के लिए हमने नदियों को नाथ डाला और मथ डाला है और बंधन का दुस्साहस किया है । आज हम नदियों की निर्झरता को जबरन रोक रहे है जबकि जल तो बेरोकटोक प्रवाह का सूचक है । प्रवाह ही जल को सप्राण रखता है । प्रवाह द्वारा ही जल आत्म शोधन करता है । हमने नदियों के तरों को पाट दिया है । नदियों के पथरेख पर सड़कों का जाल बुन दिया हैं। नदियां के पाटों को पुलो से बांध दिया है। जिससे घुटने लगी है नदियों की साँस और जल जीवों की घूटने लगी है आस जो जलजीव नदियों के उद्गम से लेकर विंधु मिलन तक साथ निभाते है । वह संकरी सुरंगो में दम तोड़ जाते हैं और नदी एक अनाम अपराध बोध से जीतेजी मर जाती है । आखिर निर्जला होती नदियों को कैसे बचायें ? नितांत जरूरी है कि हम जन मानस में पानी के प्रति उस चेतन धारा को बहाएं कि सब ही जल प्रोतों के परिरक्षण में जुट जाएं । वहाँ कतार बद्ध वृक्षारोपण करने से मिट्टी को बांधा जा सकता है । तटों पर अनधिकृत निर्माण को तुरन्त रोकना जरूरी है , इस बात की निगरानी करनी होगी कि ऐसा काम तो नहीं हो रहा जिससे नदी की नैसर्गिकता भंग हो रही हो और नदी के सर्पिलला पथरेख को बदला जा रहा है । जागरूकता के द्वारा ही हम नदियों को निर्जला होने से रोक सकते हैं ।जल संभरण से ही हमारा जीवन सुरक्षित एवं पुर्नजीवन की ईमानदार कोशिश नहीं हुई है । नदियों के संस्कार लोक व्यवहार रीति रिवाज को निरंतर हतोत्साहित किया गया, तभी तो जल स्रोतो की दुर्गति हुई है । गंगा तथा यमुना के उद्धार हेतु करोड़ो रूपया पानी की तरह बहाया किन्तु भ्रष्टाचार के कारण हमने क्या परिणाम पाया यह जग जाहिर है । अविरल जल धाराआें को जलाशयों में बांधना अपराध है क्योंकि इससे नदी भी नैसर्गिक नहीं रहती, उसका रूप विकृत हो जाता है । जिससे जल की गुणवत्ता में भी कमी आती है । कौन सुनेगा निर्जला होती हुई नदियों की करूण प्रकार ? कौन समझेगा जलाभाव से आक्रांत जीव जन्तुआें का दर्द ? बेदर्द अर्थान्धियों के बीच कब तक निर्वाक रहेंगे हम ? यह विचारणीय प्रश्न है ? आईये सुपौल (बिहार) की रचनाकार अनुप्रिया के मार्मिक भाव बचा रहे पानी का अवगाहन करें - ``बचा रहे पानी मेघ में/ करने को तृप्त् / नदियों के सूखे अधरों को / बचा रहे संवेदनाआें का पानी / हृदय में बनाये रखने के लिए/ उष्मा रिश्तों में / बचा रहे तुम्हारी आँखों का पानी / यकीन दिलाने को / धरती पर मनुष्यता कायम है / बर्फ नही हुई । ***डाइनोसॉर के सबसे बड़े पदचिन्ह पाए गए फ्रांस के लीओन के निकट प्लेग्ने मेंलंबी गर्दन वाले विशालकाय शाकाहारी सॉरोपोड डाइनोसॉर्स के पदचिन्ह पाए गए हैं । डाइनोसॉर्स के इन पदचिन्होंं का कुल व्यास १.५० मीटर तक है , जो बताता है कि यह जानवर २५ मीटर लंबे होंगे और इनका वजन ४० टन रहा होगा । मैरी-हेतने मारकॉड और पैट्रीस लैंड्री ने इन पदचिन्हों को खोजा था पैलीओएन्वायरॉनमेंट्स एट पैलीओबायोस्फीयर्स लेबोरेटरी के जीन माइकल माजीन और पेरी हांट्जपर्ग ने इन पदचिन्हों को प्रामाणिक बताया है । शोधकर्ताआें द्वारा किए गए शुरूआती परीक्षणों के मुताबिक डाइनोसॉर के अब तक मिले पदचिन्हों में ये सबसे बड़े पदचिन्ह हैं । अगले कुछ सालों में ऐसे और भी पदचिन्ह मिलने की उम्मीद है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें