अब २५ साल तक रोशन रहेगा बल्ब !
वर्तमान में बिजली की बचत के लिए अधिकांश स्थानों पर सीएफएल बल्ब का प्रयोग किया जा रहा है, जिससे बिजली की खपत भी कम होती है और साल भर की गारंटी में पूरी कीमत भी वसूल हो जाती है । मगर अब एक ऐसा बल्ब भी आ गया है जिसे रोज चार घंटे जलाया जाए तो यह दो या चार नहीं बल्कि पूरे पच्चीस साल तक साथ निभाता है । केवल इतना ही नहीं यह सीएफएल से भी ज्यादा रोशनी बचाएगा ओर इसकी रोशनी भी ६० वॉट के सामान्य बल्ब जैसी ही होगी । इतने सारे गुणों वाला यह जादुई बल्ब ब्रिटेन के बाजारों में बिकना भी शुरू हो गया है । दिक्कत सिर्फ यह है कि फिलहार इसकी कीमत करीब २४०० रूपए है । बल्ब निर्माताआें का दावा है कि फैरोक्स नाम का यह बल्ब मात्र तीन सालों में ही अपनी कीमत वसूल करा देगा और फिर २२ सालों तक यह मुफ्त सेवा देता रहेगा। इसकी रोशनी रेग्यूलेटर की मदद से कम ज्यादा भी की जा सकेगी । बिजली की बचत करने वाले कॉम्पैक्ट फ्लोरोसेंट लैंप (सीएफएल) पहले से ही बाजार में बिक रहे हैं लेकिन कछ लोगों को इसकी रोशनी सामान्य बल्बों से भिन्न होने के कारण पसंद नहीं आती । इसके अतिरिक्त सीएफएल बल्बों में पारे का इस्तेमाल होता है, जिसके कारण इसके फ्यूज होने के बाद नष्ट करने में काफी एहतियात बरतने की जरूरत होती है । निर्माताआें का कहना है कि इसमें पारे का इस्तेमाल नहीं किया है । ब्रिटिश समाचार पत्र डेली मेल के अनुसार यह बल्ब फ्रास्टिड ग्लास का बना है और इसमें रोशनी के लिए चार सफेद और दो लाल डायोड्स (एलईडी) लगे हैं । एक एलईडी एक लाख घंटे यानी करीब ५० साल तक चल सकता है ।मसूरी में इको टैक्स हवा-पानी बदलने की खास तौर से शहरियों की चाहत ने देश के हिल स्टेशनों की आबोहवा ऐसी खराब कर दी है कि अब उसे सुधारने के लिए इको टैक्स लगाने और टूरिस्टों का कोटा तय करने जैसे उपायों पर विचार किया जा रहा है । जहां उत्तराखंड स्थित पहाड़ों की रानी कहे जाने वाले मसूरी की नगरपालिका ने प्रति टूरिस्ट १००-२०० रूपये वसूलने का फैसला किया है, वहीं केंद्र सरकार पर्वतीय राज्यों के धार्मिक और गैर-धार्मिक पर्यटक स्थलों पर यात्रियों की संख्या तय करने की योजना बना रही है । उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, सिक्किम और अरूणाचल प्रदेश में यात्रियों का कोटा तय करने के पीछे जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने का तर्क काम कर रहा है । हर साल टूरिस्ट सीजन में प्राय: इन सभी जगहों पर जुटने वाली भीड़ से बचाने वाले ऐेसे उपायों का स्वागत ट्रेवल एजेंसियों, होटलों और टूरिस्टों के बल पर चलने वाले बिजनेस के पालिकों के सिवा हर कोई करना चाहेगा । इको टैक्स के अपने फायदे हो सकते हैं । इससे मिलने वाले धन का उपयोग कूड़े-कचरे के निपटारे, वृक्षारोपण, पुरानी धरोहरों के रखरखाव, सौंदर्यीकरण और टूरिस्टों के लिए सुविधाएं जुटाने में किया जा सकता है । पर सवाल है कि आखिर टैक्स और कोटे जैसी नौबत आई ही क्यों ? क्या देश में पर्यटन स्थलों की कमी हो गई है या अचानक लोगों में घुमक्कड़ी का शौक पैदा हो गया है ? ये समस्याएं भेड़चाल और उपभोगवादी टूरिस्टों की देन ज्यादा लगती हैं । गर्मियों में हर कोई चार धाम हो आना चाहता है, तो बच्चें को भी छुटि्टयों में मसूरी, शिमला कुल्लू-मनाली, नैनीताल तक धावा मार लेने का जोखिम लोग यह जानने के बाद भी लेने को उतारू रहते हैं कि वहां के होटलों को छोड़िए, शायद मॉल रोड़ कहलाने वाली सड़कों पर तिल रखने की जगह भी न मिले । यही टूरिस्ट कहीं भी कचरा फेंक देने की अपनी आदतों से इन जगहों को कूड़ाघर में बदलने के लिए जिम्मेदार हैं। बेशक , कुछ गिने-चुने और नामी पर्यटक स्थलों का इन्फ्रास्ट्रक्चर टूरिस्टों के माफिक है, वहां आना-जाना आसान है, पर अब जरूरत देश में कुछ नई भ्रमण योग्य जगहों की खोज की हैं । हिमाचल की रेणुका झील या उत्तराखंड का श्यामला ताल पर्वतीय सौंदर्य की झलक देने और मन को सुकून पहुंचाने वाली जगहें हो सकता है, बशर्ते उन्हें भी बेहतरीन इन्फ्रार्स्टक्चर मुहैया कराया जाए और उनका प्रचार-प्रसार हो । ऐसा खोजें टूरिस्टों को भी खुद को भीड़-भड़क्के से बचाने के लिए करनी चाहिए । इसी तरह टैक्स और कोटे से ज्यादा जरूरत आत्म-अनुशासन विकसित करने की है ताकि पहाड़ों में ही नहीं, नदियों, पार्कोंा और शहरों-कस्बों में भी प्रदूषण पर रोक लग सके। एक गोली बड़ा देगी इंसान के २५ साल इंसान को अमर बनाने और ताउम्र जवां बनाए रचाने की तमाम कोशिशें चल रही हैं । कहा जा रहा है कि २० साल बाद इंसान को अमरत्व देने के तरीके खोज लिए जांएंगे । लेकिन फिलहाल ऑस्ट्रिया के वैज्ञानिकों ने एक अहम् कामयाबी हासिल की है । उनका दावा है कि वह एक ऐसी गोली खोजने के करीब हैं, जो इंसान की उम्र २५ साल तक बढ़ा देगी । वैज्ञनिकों का कहना है कि इस वंडर पिल की वजह से भविष्य में विकसित देशों मे पैदा होने वाले आधे से ज्यादा बच्च्े १०० साल से भी ज्यादा उम्र तक जीएंगे । इस दवा को उन्होंने अमरत्व की दवा करार दिया है । यह स्पर्मीडीन अणुआें के आधार पर काम करती है, जो फ्री रैडिकल्स नाम के नुकसानदायक रासायनों से शरीर की सुरक्षा करने मं मदद करते हैं । आस्ट्रिया की ग्रैज यूनिसवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने डॉ. फ्रैंक मैडियो के नेतृत्व में यह अहम् खोज की है । मैडियों ने उम्मीद जताई कि अब ऐसी दवाएं ढूंढने में कामयाबी मिल सकती है, जिससे उम्र बढ़ना नाटकीय ढंग से धीमा हो जाएगा और लोग लंबे समय तक स्वस्थ रहेंगे । शोध में कहा गया है कि ब्रिटेन में फिलहाल औसत आयु ८१ वर्ष है । लेकिन इस दवा से यह १०० के पार जा सकती है । उम्र बढ़ना एक जटिल प्रक्रिया का परिणाम है, जिसमें अंतत: कोशिकाएं मर जाती है । स्पर्मीडीन की मात्रा घटने से ही उम्र बढती है । यह पदार्थ कोशिकाआें के विकास के लिए जरूरी है । शोधकार्ताआें ने पाया कि स्पर्मीडीन की डोज देने से कोशिकाआें की उम्र चर गुना तक बढ़ गई । उनके एक प्रयोग में मानव प्रतिरक्षा तंत्र की१५ फीसदी कोशिकांए ही लैब में १२ दिन के बाद जिंदा रह सकी, जबकि इन्हें स्पर्मीडीन दिया गया तो ५० फीसदी तक कोशिकाएं जिंदा रहीं । इसी तरह चूहों को जब २०० दिन तक स्पर्मीडीन पानी के साथ पिलाया गया तो उनमें फ्री रैडिकल की मात्रा ३० फीसदी तक घट गई ।पर्यावरण और नौकर शाही का खेल दिल्ली हाई कोर्ट ने पर्यावरण से संबंधित एक शीर्ष संस्था पर जो टिप्पणी की है, उसे गंभीरता से लेने की जरूरतहैं । कोर्ट ने नैशनल एनवायरनमेंट अपेलेट अथॉलिटी (एनईएए) के बारे में एक याचिका पर सुनवाई के दौरान इस बात पर हैरानी प्रकट की है कि आखिर इसमें पर्यावरण विशेषज्ञों की बजाय केवल नौकरशाहों को क्यों रखा गया है । इसके सदस्यों ने अपने निजी कार्यक्रमों को ध्यान में रखकर अनेक दौरे किए और बैठकों का न तो कोई ब्योरा दिया और न ही अपने दौरों के नतीजों के बारे में कोई खास जानकारी दी । अथॉरिटी की स्थापना १९९७ में हुई थी, जिसका काम विभिन्न उद्योगों को एनवायरनमेंट क्लियरेंस देना है, लेकिन इसके कई निर्णयों को अदालत में चुनौती दी गई । संभवत ऐसे ही तमाम मुद्दों पर विचार करने के बाद सरकार ने इसकी जगह ग्रीन ट्रिब्यूनल के गठन का निर्णय किया है लेकिन इसकी भी क्या गारंटी है कि वह एनईएए से अलग होगी? सच तो यह है कि सरकार द्वारा गठित ज्यादातर ट्रिब्यूनलों, बोडों और कमिशनों का हाल कमोबेश इसी जैसा है । जैसे कि इस एक उदाहरण से समझा जा सकता है कि सरकार की तमाम कवायदों के बावजूद अब तक पर्यावरण का संकट दूर होता क्यों नजर नहीं आ रहा है । दरअसल हमारे राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही के लिए पर्यावरण का मुद्दा एक दुधारू गाय की तरह है, क्योंकि इसमें कोई जोखिम नहीं है । इससे वोट बैंक नहीं बनते-बिगड़ते हैं । हां, बीच-बीच में कभी-कभी अदालत का डंडा बरसता है जैसे पिछले साल यमुना प्रदूषण के मामले में हाई कोर्ट ने दिल्ली जल बोर्ड के कुछ अधिकारियों को जेल और जुर्माने की सजा सुनाई थी ।प्रदूषण दूर करने के मामलें में सरकारें क्या कर रही हैं, उन्होंने कितने पैसे खर्च किए ,उसका हिसाब मांगने वाला आमतौर पर कोई नहीं हैं और अगर इसका हिसाब मांगा भी जाए तो यह मामला इतना तकनीकी है कि सरकारी बाबू तरह-तरह के बहाने बना कर आसानी से निकल जाते हैं । बहुत हुआ तो सारा दोष पूर्ववर्ती सरकार की नीतियों पर मढ़ देते हैं । आज पर्यावरण पर बने तमाम सरकारी अपने मनचाहे वाली औद्योगिक इकाइयों की पहचान कई बार की गई, पर कभी उन पर शिकंजा नहीं कसा गया । क्या प्रदूषण जैसे संकट का सामना कागजी घोड़ो से किया जा सकता है ? जब तक हमारे देश में भी पर्यावरण को लेकर जागरूकता नहीं होगी अब तक इसके नाम पर बने तमाम सरकारी बोर्ड मनचाहे नौकरशाहों को उपकृत करने का जरिया बने हुए हैं ये नौकरशाह और उद्योगपतियों के मधुर रिश्तों के कारण प्रदूषण करने वाली औद्योगिक इकाइयों की पहचान कई बार की गई पर कभी उन पर शिकंजा नहंी कसा गया । क्या प्रदूषण जैसे संकट का सामना कागजी घाड़ों से किया जा सकता हैै । जब तक हमारे देश में भी पर्यावरण को लेकर जागरूकता नहीं होगी तब तक इसके नाम पर सरकार के भीतर और उसके बाहर का एक तबका अपने हित ही साधता रहेगा । ***
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