सर्वाधिक गंधवाला मसाला
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
तमिल में एक मशहूर मुहावरा है पेरूंगायम बैठा पांडम अर्थात हींग की डिबिया। इसकी विशेषता यह होती है कि मसाला खत्म होने के बाद भी गंध रह जाती है । यह मुहावरा लगभग वही बात व्यक्त करता है जो रस्सी जल गई मगर बल नहीं नए में है । हींग हमारे भोजन का एक प्रमुख घटक रही है । और अब इसी हींग का एक नया उद्योग बताया जा रहा है-कि यह परजीवियों और रोगकारकों का सफाया करके पौधों की वृद्धि को बढ़ावा देती है । भारतीय भोजन के बारे में डॉ.टी.के. अचया की पुस्तक इण्डियन फूड-ए हिस्टॉरिकल कंपेनियन में बताया गया है कि प्राचीन काल से ही हींग का आयात अफगानिस्तान से किया जा रहा है। हींग वैदिक काल में भी ज्ञात थी । महाभारत में एक पिकनिक के दौरान मांस को काली मिर्च, संेधा नमक, अनारदाना, नींबू और हींग में पकाने का वर्णन आता है । सुगंधित गोंद फेरूला कुल (अम्बेेलीफेरी, दूसरा नाम एपिएसी) के तीन पौधों की जड़ों से निकलने वाला यह सुगंधित गोंद रेज़िननुमा होता है । फेरूला कुल में ही गाजर भी आती है । हींग दो किस्म की होती है - एक पानी में घुलनशील होती है जबकि दूसरी तेल में । डॉ. चिप रोसेटी इसे दुनिया का सर्वाधिक गंधवाला मसाला कहते हैं । वे बताते हैं कि किसान पौधे के आसपास की मिट्टी हटाकर उसकी मोटी गाजरनुमा जड़ के ऊपरी हिस्से में एक चीरा लगा देते हैं । इस चीरे लगे स्थान से अगले करीब तीन महीनों तक एक दूधिया रेज़िन निकलता रहता है । इस अवधि में लगभग एक किलोग्राम रेज़िन निकलता है । हवा के संपर्क में आकर यह सख्त हो जाता है कत्थई पड़ने लगता है । मुख्य घटक इसकी तेज़ गंध का स्रोत क्या है? गंध का स्रोत सल्फाइड नामक यौगिक है । इनमें से एक तो वहीं है जो हाई स्कूल केमेस्ट्री की प्रयोगशाला में किप्स उपकरण से निकलता है - हाइड्रोजन सल्फाईड या एचटूएस । हींग के मुख्य घटक (२-ब्यूटाइल १-प्रोपेनिल डाईसल्फाइड) की गंध तो इतनी तेज़ होती है कि युरोपीय लोग इसे एसाफेटीडा कहते हैं। फारसी में एसा का मतलब होता है रेज़िन और लैटिन में फेटीडा मतलब गंधयुक्त । एसाफेटीडा शब्द सबसे पहले इतालवी लोगों ने प्रचलित किया था । और भी ज़्यादा रंगीन नाम तो डेविल्स डंग यानी शैतान की विष्ठा है - जो इसके रंग और आकार दानों को समेटता है । फैरूला एसाफेटीडा भारत में नहीं उगाया जाता । यह अफगानिस्तान, ईरान, तुर्कमेनिस्तान और मध्य एशिया क्षेत्र का वासी है । ज़बर्दस्त निर्यात इस क्षेत्र से इस गोंद का निर्यात सदियों से दुनिया भर में होता आया है । इसका निर्यात मसाले के रूप में भी होता है और औषधि के रूप में भी । रोसेटी बताते हैं कि जब उन्होंने काहिरा में हींग खरीदी तो उसकी गंध खाद और अत्यधिक पकाए गए पत्ता गोभी की मिली-जुली गंध जैसी थी । मगर जब उन्होंने इसे तेल में डालकर गर्म किया तो एक लज़ीज़, खुशनुमा गंध निकलने लगी, जिसने प्याज़और लहसून की याद दिला दी । प्याज़ और लहसून में अपेक्षाकृत बेहतर खूशबू वाले डाईएलाइल सल्फाइड्स पाए जाते हैं । इनका उपयोग सीज़निंग और शोरबों में किया जाता है । हींग का व्यापार हेरात से उत्तर-पश्चिम की ओर ईरान में मसहाद की ओर बढ़ता है और वहां से यह मशहूर रेशम मार्ग मंगोलिया और मध्य एशिया से कैस्पियन सागर के तट तथा तुर्की से होकर भूमध्यसागर क्षेत्र तक फैला हुआ था । इस तरह से रेशम मार्ग मसाला मार्ग भी थी । एक ओर तो यह गंधयुक्त गोंदयुक्त गोंद पश्चिम की तरफ यूरोप पहुंचा, वहीं पूर्व की ओर मुगल भारत तक भी पहुंचा और भारतीय पकवान पहले से ज़्यादा ज़ायकेदार हो गए । यह अस्वाभाविक नहीं था कि इस गोंद को औषधीय गुणों की खान भी माना गया । इसका सबसे आम उपयोग उपच और पैट फूलने के संदर्भ में किया जाता है । आज भी शिशु के पेट पर नाभि के आसपास हींग मली जाती है । माना जाता है कि इससे पेट मेें फंसी वायु निकल जाएगी और पाचन में मदद मिलेगी । शायद यही कारण है कि इसे दालों और बीन्स (सोमनुमा चीज़ों ) में डाला जाता है । दालों और बीन्स में कार्बोनिक एनहाइड्रेस नामक एक एंज़ाइम पाया जाता है जो गैस बनाने में मदद करता है । और हींग डालने से इस प्रभाव से राहत मिलती है, कम से कम कहा तो यही जाता है । अन्य मान्यताएं वास्तव में हींग के औषधीय व स्वास्थ्य संबंधी असर को लेकर यूनानी व आयुर्वेद चिकित्सा पद्धतियों में कई मान्यताएं हैं जिनकी जांच की जानी चाहिए। मटेरिया मेडिका में कहा गया है कि हींग घेंघा (आयोडीन चयापचय) ब्रोंकाइटिस (संक्रमण-राधी?), गंजेपन (फॉलिकल प्रेरक?) में उपयोगी है । कहा तो यह भी जाता है कि यह स्त्रियों में मासिक स्राव शुरू करने में सहायक होती है या, दूसरे शब्दों में, हींग हार्मोन के नियमन में सहायक है । वाष्पशील तेलों के अलावा हींग के अन्य घटकों में कुमेरिन्स पाए जाते हैं। इनमें अम्बेलीफेरोन, एसारेनिनोटेैनोल्स और फेरूलिक एसिड प्रमुख हैं । हम इन पदार्थोंा के जैव रासायनिक गुणों को कुछ हद तक समझते हैं । इनमें से कुछ पदार्थ तो कीटनाशकों के रूप में काम करते हैं और कृमियों की वृद्धि को अस्त-व्यस्त करते हैं । फेरूलिक एसिड फफूंद-रोधी के रूप में काम करता है । इसके अलावा यह भी पता चला है कि यह वनस्पतियों के पोषण संतुलन में गड़बड़ी पैदा करता है और वनस्पति हारमोन्स के असर को रोकता है । अर्थात इन अलग-अलग प्रभावों का एक संतुलन होता होगा जिससे पौधे को लाभ प्राप्त् होता होगा । कोडुमुडी के एक किसान श्री चेल्लामुतु कहते हैं कि यदि वे सिंचाई की नाली में हींग की एक थैली रख दें, तो उनके खेतों में सब्ज़ियों की वृद्धि अच्छी होती है और वे संक्रमण मुक्त रहती है । उनसे बात करने पर पता चला कि पानी में हींग मिलाने से इल्लियों का सफाया हो जाता है और इससे पौधों की वृद्धि बढ़िया होती है । यह बहुत खुशी की बात है कि कोयंबटूर के पादप सुरक्षा अध्ययन केंद्र ने चेल्लामुतु के इन दावों के अध्ययन का एक कार्यक्रम हाथ में लिया हैं । ***
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