घृणित परम्परा और आधुनिक समाज
दयाशंकर मिश्र
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था - `` मैं अस्पृश्यता को हिंदू धर्म का सबसे बड़ा कलंक मानता हूं । लेकिन मैं हिंदू धर्म तत्व को समझ लेने का दावा करता हूं । अस्पृश्यता की अनुमति देकर हिंदू धर्म ने पाप किया है । इससे हमारा पतन हुआ है ।'' वहीं मनुस्मृति कहती है नीची जाति के व्यक्ति को जूठन और पुराने कपड़े ही दिए जाने चाहिए । अनाज भी उसे छांटन और सामान भी पुराना ही दिया जाए । हमारे इतिहास और समाज पर गांधी और मनुस्मृति दोनों का ही गहरा प्रभाव रहा है लेकिन दुर्भाग्य से हम आजादी के बाद गांधी के विचारों को इस तरह भूले कि वह केवल अवधारणा बन कर रह गए । जबकि मनुस्मृति हमारी आचार संहिता बन गई । किसी समाज की सहिष्णुता और प्रगतिशीलता का पैमाना संभवत: यही होता है कि वह अंतिम कतार के अंतिम व्यक्ति से किस तरह पेश आता है । हमारे संविधान, किताबों और मंचो पर तो हम उदारमना नज़र आते हैं लेकिन यथार्थ जीवन में हम अपने ही लोगों के प्रति बेहद दोगला और कठोर व्यवहार करते हैं । देश में बहुत से लोग इस बात पर यकीन नहीं करेंगे कि यहां अभी भी कमाऊ शौचालय रोजगार का एक साधन ह । (कमाऊ शौचालय शब्द का तात्पर्य भारत की परंपरागत शौचालय प्रणाली से है ।) कमाऊ इसलिए क्योंकि इससे नामनात्र की ही सही पर आय होती है । मध्यप्रदेश भी देश के उन १३ राज्यों में से एक है जहां मैला कमाने या ढोने की जागीर प्रथा आज भी जारी है । सरकारें इसे मानने को कभी तैयार नहीं होतीं । कलेक्टर से बात करें तो वह आपके पुन: से उस स्थान तक पहुंचने से पहले ही सब कुछ ठीक करा देते हैा । मैला ढोने के काम में देशभर में कितने लोग लगे हुए हैं, इसका सटीक आंकड़ा मिलना तो मुश्किल है । मध्यप्रदेश में मैला उन्मूलन के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम करने वाली संस्था जन साहस के अनुसार इस समय प्रदेश में मैला ढोने वालों की संख्या ३८४२ हैं, जिसमें से मात्र २२८ पुरूष हैं मैला ढोने के काम में हिंदुआें के वाल्मीकी और मुस्लिम समुदाय के हैला लगे हुए है । इस हैला समाज की मस्जिदें अलग है । जहां नहीं हैं, वहां इनको सबके साथ नमाज पड़ने तक की इजाजत नहीं हैं । कुछ विशेष अवसरों जैसे ईद पर इनकी अलग से व्यवस्था की जाती है लेकिन उसमें भी उनको जकात के लिए घर से सामान नहीं लाने का फरमान जारी होता है । रोटी-बेटी का व्यवहार तो बहुत दूर की बात है । उज्जैन में इनकी एक पूरी बस्ती है जिसे हैलावाड़ी कहा जाता है । देशभर में हैला परिवार बहिष्कृत जीवन जीने को अभिशप्त् हैं । मुस्लिम हैला की तरह हिंदुआें के वाल्मीकि भी सदियों से अब तक इस काम में जुटे हुए हैं । वाल्मीकि समाज के लोगों को आज भी कई जगह हिंदुआें के साथ बैठकर खाना तो दूर मंदिरों तक में जाने नहीं देते । मध्यप्रदेश के मंदसौर के भील्याखेड़ी के वाल्मीकि आजाद भारत में पहली बार २००८ में पुलिसबल के साथ राम मंदिर में प्रवेश कर पाए । वाल्मीकियों के बच्चें को स्कूल में सबसे पीछे बैठने, छोटे बच्चें की गंदगी उठाने और मरे हुए जानवरों को फेंकने के काम में भी लगाया जात है । मैला ढोने के विरोध में गरिमा अभियान चलाने वाले मोहम्मद आसिफ बताते हैं कि सामाजिक दायरे इतने जटिल हैं कि वहां लगभग गुलामी का जीवन जीने वाले सामाजिक बहिष्कार के डर से नारकीय जीवन को नहीं छोड़ पाते । आंबेडकर जिस पानी के मटके से पानी लेने पर पीटे जाते रहे वह पिटाई आज तक जारी है । वाल्मीकि और हैला भले ही अलग-अलग धर्मोंा से संबंध रखते हों लेकिन वस्तुत: दोनों ही समुदाय मेहतर या भंगी के रूप में ही पुकारे और जाने जाते हैं । इस संदर्भ में साहित्यकार अमृतलाल नागर ने लिखा है मेहतर समुदाय पर काम करते हुए मुझे क्रमश: यह अनुभव होने लगा है कि भंगी जाति नहीं है और यदि है भी तो केवल गुलामों की जाति हैं। श्री नागर के अनुभवों को लगभग पचास बरस हो गए हैं लेकिन अंदर की तस्वीर आज तक नही बदली । स्कूटर पर जाते हुए हैला या वाल्मीकि से अगर गांवों में मारपीट नहीं होती तो इसका कारण कोई परिवर्तन नहीं बल्कि कुछ हद तक कानून और उच्च्वर्ग की मजबूरियां हैं । जैसे ही कानून की रेखा पार होती है लोग अपनी उच्च् जाति प्रकट कर देते हैं । वैसे मनुस्मृति समेत हमारे ज्यादातर ग्रंथों में दास दासी नीची जाति के ही हैं । नारदीय संहिता में दासों के पंद्रह कर्म बताए गए हैं, जिनमें से एक मल-मूत्र उठाना भी ह। शहरों में संडासों का चलन बहुत पुराना है। उस समय कथित निम्न जाति के लोग और विजेताआें से पराजित लोग ही इस काम के लिए विवश किए गए होंगे । राजशाही, सामंतवाद जिसमें यह सब शुरू हुआ व चला उसका दौर तो काफी हद तक बीत चुका है । हम लोक तंत्र में ६० से अधिक बरस बिता चुके हैं, असली चुनौती तो यही है कि मैला ढोने जैसी प्रथा आज भी अस्तित्व में क्यों हैं ? क्या यह हमारे संविधान एवं संसद के लोकतांत्रिक ढांचे को चुनौती नहीं हैं ? लोकतंत्र का मूल दायित्व है, हर मनुष्य की अभिव्यक्ति और मानवाधिकार की रक्षा ! एक राष्ट्र के रूप में हम अभी तक यह सुनिश्चित नहीं कर पाए हैं कि समाज धर्मशास्त्रों के अनुकूल नहीं, बल्कि संविधान और नागरिकों के मूल अधिकारोंके तहत आचरण करे । दुर्भाग्य से हमारे अधिकांश धर्मशास्त्र समता और समानता की बात ही नहीं करते हैं । वाल्मीकि और हैला लाखों में हैं। लेकिन वे बिखरे-बिखरे हैं इसलिए उनके साथ हो रहे विषमतापूर्ण आचरण के लिए कौन जिम्मेदारी ले ? समाजशास्त्री व विश्लेषक कह रहे हैं कि समाज बदल रहा है । परिवर्तन आ रहा है । इसमंे समय लगता है, लेकिन ओर कितना समय लगेगा? भौतिक रूप से अब मैला ढोने का काम सिमट रहा है । कच्च्े शोचालय हट रहे हैं लेकिन इस निर्मम व्यवहार में हम कब मुक्त हांगे । इसके लिए क्या प्रयास होना चाहिए ? क्योंकि यह किसी राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा नहीं है । आधुनिक नेताआें में गांधी संभवत: पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होने मेला ढोने वालों की पीड़ा को समझा । गांधी ने कोलकाता में हुए राष्ट्रीय कांगे्रस के अधिवेशन में स्वयंसेवकों से सफाईकर्मियों से काम नहीं करवाने को कहा था । हालांकि स्वयंसेवकों द्वारा इस बारे में खुद को असमर्थ बताने के बाद गांधीजी ने स्वयं ही मैला साफ करने की पहल की थी । १९१८ में जब उन्होंने साबरमती आश्रम की स्थापना की तो भी आश्रमवासियों को स्वयं मैला साफ करने की सलाह दी । दुर्भाग्य से हमने अपने नेताआें के अनुकरणीय कामों को ठीक से प्रचारित नहीं किया । गांधीजी ने एक बार कहा था संभव है कि मैं पुन: जन्म लूं । अगर ऐसा होता है तो मैं चाहूंगा कि किसी सफाईकर्मी के परिवार में जन्म लूं ऐसा करके मैं उन्हें सिर पर मैला ढोने की अमानवीय, अस्वस्थकर और घृणित प्रथा से मुक्ति दिला सकूंगा । संविधान निर्माताआें ने हम भारत के लोगों की तरफ से जो शपथ ली थी, उसे एक-एक करके उनके उत्तराधिकारियों ने तार-तार कर दिया । एक राष्ट्र के रूप में हमें बहिष्कृत और अस्पृश्य जीवन जीने वाले लोगों का शुक्रगुजार होना चाहिए जिन्होंने अब तक शांति, सब्र से वह सबकुछ सहा है । जिसके बारे में सोचकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं । आधुनिक समय में जब मायावती जेसे लोग शक्तिशाली हुए तो वे भी सवर्ण बन गए । वे सोशल इंजीनियरिंग ले आये जिससे उनको बहुमत तो मिलता हैं, लेकिन दलितों पर अत्याचारों में कोई कमी नहीं आती । दरअसल हमें एक ऐसे नेतृत्व की जरूरत है जो जाति से आगे की बात कह सके । जाति के सवाल की फिक्र लोकतंत्र के तीन स्तंभो ने तो पहले ही भुला दी थी । इसके चौथे स्तंभ यानी मीडिया के टार्गेट रीडर में भी ये समुदाय नहीं आते । ऐसे में बदलाव के रास्ते की खोज के लिए शायद किसी पांचवे स्तंभ की खोज आवश्यक हो गयी है। ***पहली बार पक्षियों के डीएनए की जाँच दुनिया में ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी देश की वायुसेना को अपने आकाश में उड़ते पक्षियों की डीएनए जाँच करानी पड़ी है । इससे बेहत ऊँचाई पर उड़ते विमानों से टकराने वाले पक्षियों की मानसिकता का पूरा खाका तैयार किया जा सके । मिग २७ और मिराज जैसे एक इंजन वाले विमानों की चपेट में अगर कोई पक्षी आ जाए तो वह उसके इंजन में जा फँसता है और विमान दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है । भारतीय वायुसेना को यह नायाब तरकीब इसलिए सूझी क्योंकि वह ऊँचाई पर उड़ने वाले पक्षियों से होने वाली विमान दुर्घटनाआें से हैरान-परेशानी थी। उन पक्षियों के बारे में पता नहीं था जो कहीं अधिक ऊँचाई पर उड़ते हैं और हादसों का कारण बनते हैं ।
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