बढ़ता ताप सिकुड़ते पक्षी
पर्यावरण में हो रहे बदलाव की वजह से शारीरिक रूप से सिकुड़ती जा रही प्रजातियों की सूची लंबी होती जा रही है । धरती का तापमान बढ़ने से लगातार दुबले-पतले होते जा रहे पेड़ों और भेड़ों की जमात में अब पक्षी भी शामिल हो गए हैं । बीती शताब्दी के दौरान क्या पक्षियों के आकार में कोई परिवर्तन हुआ है, यह पता लगाने के लिए ऑस्ट्रेलियन नेशनल युनिवर्सिटी, कैनबरा के लिए ऑस्ट्रेलियन नेशनल यनिवर्सिटी, कैनबरा के जेनेट गार्डनर और उनके नेशनल युनिवर्सिटी, कैनबरा के जनेट गार्डनर और उनके सहयोगियों ने एक संग्रहालय में रखे ५१७ पक्षियों के डैनों का फैलाव नापा । मूल रूप से ऑस्ट्रेलिया में पाए जाने वाले पक्षियों की इन ८ प्रजातियों का संग्रह सन् १८६० से २००१ के दौरान किया गया था । प्रोसीडिंग ऑफ दी रॉयल सोसायटी बी में उन्होंने बताया है कि इनमें से ४ प्रजातियों का आकार पिछले १०० वर्षोंा में ४ प्रतिशत तक कम हो गया है । इस घटती साइज़ की व्याख्या दो कारकों द्वारा की जा सकती है । हो सकता है कि पर्यावरण में लगातार आ रही गिरावट ने पक्षियों का आहार कम कर दिया है । दूसरा कारण यह हो सकता है कि बढ़ते तापमान में छोटे आकार के पक्षियों को फायदा मिलता है । छोटा आकार शरीर को असानी से ठंडा रखने की सुविधा देता हो । यदि परों की लम्बाई को पोषण का द्योतक माना जाए, तो शोधकर्ताआें का निष्कर्ष है कि छोटे पक्षी अपने पूर्वजों की अपेक्षा कम पोषित तो नहीं हैं यानी वैश्विक तपन ही इसका कारण हो सकता है।मस्तिष्क से रोबोट का संचालन जल्द ही मानव मस्तिष्क की कोशिकाआें से नियंत्रित रोबोट ब्रिटिश लैब में टहलते नज़र आएंगे । युनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग, यू.के. के केविन वारविक और बेन व्हेली ने चूहे के मस्तिष्क की कोशिकाआें का प्रयोग कर साधारण पहिए वाले रोबोट पर नियंत्रण पाने में सफलता भी प्राप्त् की है चूहे के लगभग ३ लाख न्यूरांस को पोषक द्रव्य में विकसित किया गयाथा । ये विद्युत संकेत पैदा कर रहे थे । इन्हें रोबोट के संकेत-ग्राही सेंसर से जोड़ दिया गया । तंत्रिकाआें ने रोबोट का एक छोटे दायरे में संचालित करने में अपनी क्षमता साबित की है । शोध में जुटी टीम का कहना है कि इन तंत्रिकाओ की उद्दीपन के प्रति प्रतिक्रिया को देखकर मिरगी जैसी बीमारियों में तंत्रिका की अवस्था की समझ बढ़ेगी । उदाहरण के लिए कभी-कभी बड़ी संख्या में तंत्रिकाएं एक साथ एक ही लय मं विद्युत संकेत उत्पन्न करती हैं । संभवत: मिर्गी के दौरे के समय ऐसा ही होता है । यदि संवर्धन माध्यम में रासायनिक, विद्युतीय या भौतिक परिवर्तन के द्वारा इस व्यवहार को बदला जा सका तो यह इस रोग के इलाज की संभव चिकित्सा पद्धति हो सकती है । इस व्यवस्था को मानवीय बीमारियों का बेहतर मॉडल बनाने के लिए आवश्यक होगा कि मनुष्य की तंत्रिकाआें को उसी प्रकार रोबोट से जोड़ा जा सके चूहे की तंत्रिकाआें के साथ किया गया है । यह मनुष्य की कोशिकाआें द्वारा रोबोट संचालित करने का पहला उदाहरण होगा । इसका एक उद्देश्य इंसान और चूहे की तंत्रिकाआें द्वारा संचालित रोबोट के व्यवहार में अंतर का पता लागाना भी है । श्री वारविक का कहना है कि हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि क्या दोंनों में सीखने और याददाश्त के पहलू एक समान हैं । वारविक और उनके सहकर्मी आने काम को तेज़ी से आगे बढ़ा सकते हैं क्योंकि उन्हें मानवीय तंत्रिका कोशिकाआें पर प्रयोग की नैतिक इजाज़त लेने की ज़रूरत ही नहीं हैं । क्या लेडयुक्त पेट्रोल ही बेहतर था ? वॉशिंगटन की पैसिफिक नॉर्थवेस्ट नेशनल लैबोरटरी के डैन ज़िक्ज़ों ने अनुमान व्यक्त किया है कि यदि हम लेडयुक्त पेट्रोल का उपयोग करें तो धरती थोड़ी कम गर्म होगी । यह अनुमान उन्होंने बादल बनने की क्रिया के अध्ययन के आधार पर लगाया है। इससे तो ऐसा लगता है कि अतीत में हम जो काम कर रहे थे (यानी पेट्रोल में लेड मिला रहे थे ) वह कम से कम जलवायु की दृष्टि से तो बेहतर ही था । शद्ध पानी की भाप धूल के कणों, पराग कणों और यहां तक कि बैक्टीरिया के आसपास भी अपेक्षाकृत अधिक तापमान पर बर्फ के रूप में जम जाती है । यदि ऐसे कण न हों, तो इसे बर्फ बनने के लिए और ठंडा करना पड़ेगा । कणों की उपस्थिति का फायदा यह होता है कि अपेक्षाकृत गर्म बादल हैं जो धरती की ज़्यादा गर्मी को अंतरिक्ष में बिखेर देते हैं । यदि वातावरण में ऐसे कण न हों तो बादल कम तापमान पर बनते हैं । ज़िक्ज़ो और उनके साथियों ने स्विटज़रलैण्ड की हवा से ऐसे लंबित कण प्राप्त् किए । इनकी मदद से उन्होंने कृत्रिम बादलों का निर्माण किया । उन्होंने पहले ही विश्लेषण किया था कि इनमें मात्र ८ प्रतिशत कणों में लेड उपस्थित था । मगर जब बादलों का विश्लेषण किया गया तो देखने में आया कि जिन कणों के आसपास बादल बने हैं उनमें से ४४ प्रतिशत में लेड है । इस मामले में उक्त शोधकर्ताआें का मत है कि लेड की उपस्थिति में धूल के कण `अति-आवेशित' हो जाते हैं, इसलिए बादल बनाने में ज़्यादा सहायक होते हैं । टीम ने गणना की है कि यदि पृथ्वी के वायुमंडल में बनने वाले बर्फ के हर रवे में लेड हो, तो प्रति वर्ग मीटर ०.८ वॉट अधिक ऊष्मा अंतरिक्ष में विकसित होगी । तुलना के लिए यह देखा जा सकता है कि मानव निर्मित कार्बन डाईआक्साइड की वजह से प्रति वर्ग मीटर १.५ वॉट कम ऊष्मा आकाश में बिखरती है । जब पूरी दुनिया में पेट्रोल में से लेड हटा दिया गया, उससे पहले वायुमंडल में कहीं अधिक लेडयुक्त कण होते थे और ये गर्म बादल बनाकर धरती को ठंडा रखने में मददगार होते थे । मगर यह नहीं भूलना चाहिए कि लेड स्वास्थ्य के लिए घातक था ।पौधों का बारकोड खबरों से पता चलता है कि जीव वैज्ञानिक समुदाय जल्दी ही दुनिया भर की वनस्पति प्रजातियों के लिए एक बारकोड निर्धारित करने पर सहमत हो जाएगा । बराकोड वही चीज़ है जिससे हर वस्तु को एक अनूठी पहचान प्रदान की जाती है । यही प्रक्रिया वनस्पति जगत के बारे में करना आसान काम नहीं है । इस तरह के बारकोड की ज़रूरत प्रजातियोंं की स्पष्ट पहचान के लिए है । खास तौर से जंतु अंगों की उत्पत्ति को पहचानने और संरक्षण के प्रयासों में इसका काफी महत्व होगा । मगर सवाल यह है कि वनस्पति जिनेटिक श्रृंखला में से किस हिस्से का उपयोग यह बारकोड बनाने में किया जाए ताकि हर प्रजाति को एकदम अलग पहचानने योग्य कोड मिले । कई समूह इस दिशा में प्रयास करते रहे हैं । वैसे जंतुआें के बारे में ऐसे कोड पर सहमति पहले ही हो चुकी है । अब लग रहा है कि ५२ शोधकर्ताआें द्वारा लिखे गए एक शोध पत्र में सुझाई गई बारकोड प्रणाली पर सहमति बनने को है । यह समूह इंटरनेशनल कंसॉर्शियम फॉर दी बारकोड ऑफ लाइफ (सीबीओएल) के पादप कार्यकारी समूह के तहत कार्यकारी समूह के तहत कार्यरत है । इस शोध पत्र में सुझाया गया है कि बारकोड में जिनेटिक श्रंृखला के दो हिस्सोंं को शामिल किया जाए । समूह का मत है कि इन दो हिस्सों का उपयोग करके जिन प्रजातियों की जांच की गई उनमें से ७२ प्रतिशत को अनूठी पहचान प्राप्त् हुई जबकि शेष प्रजातियों के मामले में सही प्रजातियों के मामले में सही प्रजाति समूह पहचाने जा सके । अब यह प्रणाली सीबीओएल के पादप कार्यकारी समूह के समक्ष प्रस्तुत की जाएगी जो इसकी समीक्षा की व्यवस्था करेगा । समीक्षा के बाद जल्दी ही अंतिम निर्णय होने की उम्मीद है । वैसे कुछ अन्य समूहों ने अन्य सुझाव भी दिए हैं और सबकी तुलना के बाद ही कोई फैसला होगा । उदाहरण के लिए कनाडा में एक समूह काम कर रहा है जिसका उद्देश्य है कि सारे युकेरियोट्स के लिए एक बारकोड विकसित किया जाए । युकेरियोट्स का मतलब होता है वे सारे जीव जिनकी कोशिका में एक सुस्पष्ट केंन्द्रक पाया जाता है । शेष जीव प्रोकेरियोट्स कहलाते हैं । इसी प्रकार का एक समूह है इन्टरनेशनल बारकोड ऑफ लाइफ (आईबोल) । वैसे एक बात साफ है कि जीव वैज्ञानिकों का अंतर्राष्ट्रीय समुदाय बारकोड के बारे में जल्द से जल्द किसी सहमति पर पहुंचने को उत्सुक है । इसके अभाव में शोध कार्य व संरक्षण में कई दिक्कतें आ रही हैं । लिहाज़ा उम्मीद की जानी चाहिए कि निकट भविष्य में हर वनस्पति प्रजाति को एक अनूठे बारकोड से पहचाना जाएगा । एक सुझाव यह भी आया है कि सूक्ष्मजीवों के संदर्भ में भी इस तरह के प्रयास ज़रूरी हैं क्योंकि उनमें प्रजाति पहचान एक मुश्किल काम है ।***
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