मंगलवार, 27 जुलाई 2010

१ सामयिक

आपदाआें को निमंत्रित करता समाज
चंडीप्रसाद भट्टफ
दुनिया में पर्यावरण को लेकर चेतना में वृद्धि तो हो रही है परन्तु वास्तविक धरातल पर उसकी परिणति होती दिखाई नहीं दे रही है । चारों ओर पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर लीपा-पोती हो रही है । पर्यावरण आज एक चर्चित और महत्वपूर्ण विषय है जिस पर पिछले दो-तीन दशकों से काफी बातें हो रहीं हैं । हमारे देश और दुनियाभर में पर्यावरण के असंतुलन और उससे व्यक्ति समाज और राष्ट्र के जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों की चर्चा भी बहुत हो रही है और काफी चिंता भी व्यक्त की जा रही है लेकिन पर्यावरण असंतुलन अथवा बिगाड को कम करने की कोशिशें उतनी प्रभावपूर्ण नहीं हैं, जितनी अपेक्षित और आवश्यक हैं । पर्यावरण के पक्ष में काफी बातें कहीं जा चुकी हैं । मैं इसके बिगाड़ से बढ़ रही प्राकृतिक आपदाआें के कारण जन-धन की हानि के लगातार बढ़ते आंकड़ों पर आपका ध्यान दिलाना चाहूंगा ताकि आप अनुभव कर सकें कि पर्यावरण असंतुलन तथा प्राकृतिक प्रकोपों की कितनी कीमत भारत तथा अन्य देशों को चुकानी पड़ रही है । पर्यावरण के असंतुलन के दो प्रमुख कारण हैं । एक है बढ़ती जनसंख्या और दूसरा बढ़ती मानवीय आवश्यकताएं तथा उपभोक्तावृत्ति । इन दोनों का असर प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ता है और उनकी वहनीय क्षमता लगातार कम हो रही है । पेड़ों के कटने, भूमि के खनन, जल के दुरूपयोग और वायु मंडल के प्रदूषण ने पर्यावरण को गभीर खतरा पैदा किया है । इससे प्राकृतिक आपदाएं भी बढ़ी हैं । पेड़ोंे के कटने से धरती नंगी हो रही है और उसकी मिट्टी को बांधे रखने, वर्षा की तीक्ष्ण बूदों में मिट्टी को बचाने, हवा को शुद्ध करने और वर्षा जल को भूमि में रिसाने की शक्ति लगातार क्षीण हो रही है । इसी का परिणाम है कि भूक्षरण, भूस्खलन और भूमि का कटाव बढ़ रहा है जिससे मिट्टी अनियंत्रित होकर बह रही है । इससे पहाड़ों ओर ऊँचाई वाले इलाकों की उर्वरता समाप्त् हो रही है तथा मैदानों में यह मिट्टी पा नी का घनत्व बढ़ाकर और नदी तल को ऊपर उठाकर बाढ़ की विभीषिका को बढ़ा रही है। खनन की वजह से भी मिट्टी का बहाव तेजी से बढ़ रहा है । उद्योगों और उन्नत कृषि ने पानी की खपत को बेतहाशा बढ़ाया है । पानी की बढ़ती जरूरत भूजल के स्तर को लगातार कम कर रही है, वहीं उद्योगों के विषैले घोलों तथा गंदी नालियों के निकास ने नदियों को विकृत करके रख दिया है और उनकी शुद्धिकरण की आत्मशक्ति समाप्त् हो गई है । कारखानों और वाहनों के गंदे धुएं और ग्रीन हाउस गैसों ने वायु मंडल को प्रदूषित कर दिया है । यह स्थिति जिस मात्रा में बिगड़ेगी, पृथ्वी पर प्राणियों का जीवन उसी मात्रा में दूभर होता चला जाएगा । प्राकृतिक आपदा से हो रही जन-धन की हानि के आंकड़े चौंकाने वाले ही नहीं बल्कि गंभीर चिंता का विषय भी हैं । स्वीडिश रेडक्रास ने प्रिवेन्शन इज बेटर देन क्योर नामक अपनी रिपोर्ट में कुछ देशों में १९६० से १९८१ के बीच प्राकृतिक आपदाआें से हुई भारी जनहानि के आंकड़े दिए हैं । इनके अनुसार इन बीस वर्षोंा में अकेले बांग्लादेश में ६३३००० लोगों की जानें गई, जिनमें ३८६२०० व्यक्ति समुद्री तूफान से तथा ३९९०० बाढ़ से मारे गए । इसी अवधि में चीन में २.४७ लाख, निकारगुआ में १.०६ लाख, इथोपिया में १.०३ लाख, पेरू में ९१ हजार तथा भारत में समूद्री तूफान से २४९३० तथा बाढ़ से १४७०० व्यक्तियों की जानें गई । बाढ़ से पाकिस्तान में २१०० तथा नेपाल में १५०० लोग उक्त काल-खण्ड में मारे गए । उल्लेखनीय तथ्य यह रहा कि प्राकृतिक आपदाआें में मरने वाले लोगों में बड़ी संख्या उन निर्बल-निर्धन लोगों की रही, जो अपने लिए सुरक्षित आवास नहीं बना सकते थे अथवा जो स्वयं को सुरक्षित स्थान उपलब्ध नहीं करा सकते थे । फिर वे चाहे समुद्र तटीय मछुआरे हों या वनों-पहाड़ों में रहने वाले गरीब लोग । बीसवीं सदी का अंतिम दशक भूकम्पों का त्रासदी का दशक भी रहा है । दुनियां में अनेक भागों में भूकम्प के झटकों ने जन-जीवन में भरी तबाही मचाई है ।भारत में भी १९९१ में उत्तरकाशी भूकम्प के बाद १९९३ में लातूर-उस्मानाबाद ओर १९९९ में गढ़वाल में भूकम्प के झटकों ने व्यापक विनाश किया । १९९८ में उत्तराखंड में भूस्खलनों की भी व्यापक विनाश-लीला रही । यह तथ्य भी प्रकाश में आया है कि प्राकृतिक आपदाआें और उनसे प्रभावित होने वालों की संख्या इन वर्षोंा में तेजी से बढी है। भारत में हिमालय से सह्याद्रि और दण्डकारण्य तथा पूर्वी और पश्चिमी घाटों तक में मिट्टी का कटाव-बहाव तेज होने और उनसे उद्गमित होने वाली नदियों की बौखलाहट बड़ी तेजी से बढ़ी है । हम देख रहे हैं कि हिमालय क्षेत्र में इसके लिए हमारी विकास की अवधारणाएं और क्रियाकलाप भी दोषी हैं। विकास के नाम पर नाजुक क्षेत्रों में भी मोटर मार्ग तथा अन्य निर्माण कार्य किए गए जिनमें भारी विस्फोटकों का उपयोग किया गया । मिट्टी बेतरतीब ढंग से काटी गई और जंगलों का बेतहाशा कटाव किया गया। इस कारण बड़ी संख्या में नए-नए भूस्खलन उभरे ओर नदियों की बौखलाट बढ़ी । इनमें लाखों टन मिट्टी बह रही है, जिसका दुष्प्रभाव न केवल हिमालयवासियों पर पड़ रहा है बल्कि मैदानी प्रदेश भी बाढ़ की विभीषिका से बुरी तरह संत्रस्त हैं । यही सही है कि प्राकृतिक आपदाआें को हम पूरी तरह रोकने में समर्थ नहीं हैं किंतु उन्हें उत्तेजित करने एवं बढ़ाने में निश्चित ही हमारी भागीदारी रही है । इसके लिए हमें तात्कालिक लाभ वाले कार्यक्रमोंका मोह छोड़ना होगा । क्षेत्रों में स्थाई विकास की योजनाआें को प्राथमिकता दी जानी चाहिए । पर्यावरण के विचार केन्द्र में उस आदमी को प्रतिष्ठापित किया जाना चाहिए जिसके चारों और यह घटित हो रहा है और जो बड़ी सीमा तक इसका कारक एवं परिणामभोक्ता दोनों हैं। उस क्षेत्र की धरती, पेड़, वनस्पति, जल एवं जानवरों के साथ उनके अंर्तसंबंधों को विश्लेषित करके ही कार्यक्रम बनाए जाने चाहिए। उनको इसके साथ प्रमुखता से जोड़ जाना चाहिए । यह भी जरूरी है कि ऐसे नाजुक क्षेत्रों में आपदाआें के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए उपग्रह के आंकड़ों का अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क आपदाआें की सूचना (डिजास्टर फोरकास्ट) के लिए तैयार किया जाए । इन सूचनाआें का बिना रोक-टोक आदान-प्रदान किया जाना चाहिए । प्राकृतिक आपदाआें से संबंधित संवेदनशील क्षेत्रों को चिन्हित किया जाना चाहिए । ऐसे क्षेत्रों की मॉनिटिरिंग एवं निगाह रखने के लिए स्थाई व्यवस्था हो । साथ ही बाढ़ एवं भूकम्प से प्रभावित क्षेत्रों का विकास कार्योंा को शुरू करने से पूर्व विस्तृत अध्ययन किया जाना चाहिए । ***

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