मंगलवार, 27 जुलाई 2010

१० ग्रामीण जगत

हरित शौचालय से जल मितव्ययता
रोहिणी निलेकणी
गांवो में स्वच्छता को ध्यान में रखते हुए खुले में शौच करने को बंद करने को लेकर सरकार अभियान छेड़े हुए है ।टोटल सेनिटेशन कैम्पेन का सपना हर घर में शौचालय का है, ताकि गांव के गली-कूचों को साफ रखा जा सके । ऐसे में किस्म-किस्म के आधुनिक शौचालय, व फ्लश वाले शौचालय पानी के लिए एक दु:स्वप्न साबित न हों इसलिए हमें इसका रास्ता तलाशना होगा कि शौचालय से पैदा हुई हर वस्तु को काम में लाया जा सके । मानव अपशिष्ट (शौच) को उपयोगी संसाधन में बदलना ही नये युग का प्रतिमान गढ़ना है । आजकल सामान्य तौर पर उपयोग में आने वाले आधुनिक फ्लश शौचालय का अविष्कार हुए सम्भवत: सौ वर्ष हो चुके हैं । बहरहाल, करोड़ों लोग है जिन्हें रोजमर्रा के जीवन में यह फ्लश शौचालय की सुविधा आसानी से हासिल है और करोड़ों ऐसे भी है जिन्हें यह आधुनिक सुविधा हासिल नहीं है । ये सभी के लिए सोचने का अवसर है कि प्रतिदिन उत्पन्न होने वाले लाखों टन मानवजनित अपशिष्ट के उपयोग के बारे में चिंता की जाए । क्या फ्लश शौचालय उस स्थिति में उपयुक्त हैं जबकि हमें यह पता हो कि थोड़ें से अपशिष्ट को भी ठिकाने लगाने के लिए बड़ी मात्रा में पानी का उपयोग करना पड़ता है । इसका उत्तर अलग-अलग हो सकता है । अद्वितीय सुविधा प्रदान करने के बावजूद ये शौचालय, पर्यावरण स्वच्छता और आर्थिक बोझ के रूप मेंएक बुरा सपना ही साबित हुए हैं । इस मानव अपशिष्ट को उपचार संयंत्रोे तक ले जाने वाली, पानीदार विशालकाय संरचनायें एक तरफ जहाँ निर्माण में बर्बादी की कगार तक महंगी हैं वहीं दूसरी और उनका रखरखाव भी बहुत खर्चीला है । इससे भी बद्तर स्थिति यह है कि प्राय: बिजली की कमी के कारण और अचानक आए हुए तूफानों और बाढ़ के समय भी सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (मलजल उपचार संयंत्र) पानी की अधिकता के कारण काम करना बन्द कर देते हैं । उस स्थिति में मलजल को बिना उपचार के नदियों अथवा समुद्र में अनुपचारित छोड़ने के अलावा कोई और रास्ता शेष नहीं होता है । इस बारे में भारत की मौजूदा व्यवस्था के बारे में कुछ भी कहना बेकार ही है । बिना उपचारित किया हुआ मलजल का प्रदूषण, जमीन और भूमिगत जल पर गहरा असर डालता है । यह न सिर्फ हमारे कुँआें, बावड़ियों, नहरों और नदियों के पानी को नइट्रेट और पैथोजन्स से प्रदूषित करता है, वरन जब यह समुद्र में पहुँचता है ब समुद्री जल-जीवन और मूंगा की चट्टाने को घातक रूप से प्रभावित करता है । हम सब जानते हैं कि दिल्ली के नजदीक से बहने वाली पवित्र यमुना नदी को हमने कैसे एक राष्ट्रीय नाला बनाकर रख दिया है । विडम्बना यह है कि जिसे हम अपशिष्ट या बेकार समझकर दूर-दूर नदियों और समुद्रों में छोड़ देते हैं, बहा आते हैं, वैज्ञानिक शोधों द्वारा अब यह साबित हो चुका है कि असल में वह अपशिष्ट मिट्टी और जमीन के स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा के लिए उपयोगी मित्र साबित हो सकता है । चाहे तरल हो या ठोस रूप में, मानव अपशिष्ट के द्वारा एक उत्तम किस्म का उर्वरक बनाया जा सकता है । इसी प्रकार मानव मूत्र जिसे वैज्ञानिक भाषा में एंथ्रोपोजेनिक लिक्विड वेस्ट (एएलडब्लू) कहा जाता है, अपने एंटीबैक्टीरियल गुणों के लिए जाना जाता है । बजाय इसके कि इस बेेहतरीन उर्वरक का उपयोग मानव प्रजाति की खाद्य सुरक्षा में किया जाये, हमने करोड़ों डालर कृत्रिम उर्वरक बनाने के कारखानों में लगा दिेये हैं । जाहिर है कि हमें इस समस्या को नये सिरे से देखने की आवश्यकता है । क्या अब हम पुराने चेम्बर पॉट सिस्टम पर लौट सकते हैं ? क्या शहरी जनता की सुविधा को तकलीफ में न बदलते हुए भी इस दिशा में कुछ किया जा सकता है ? आर्थिक योजनाकारों, नीतिनियंताआें और यहाँ तक कि बड़े-बड़े पर्यावरणविदों के लिए भी जनता को, कि अब वे लोग फ्लश शौचालय का उपयोग बन्द करके पुराने तरीके पर लौटें । अब जबकि राष्ट्र एक नई शताब्दी में प्रवेश कर चुका है, सुरक्षित रूप से कचरा निपटना नहीं करने के कारण, सार्वजनिक स्वास्थ्य की समस्याआें पर पकड़ बनाने और स्वच्छता अभियान के विभिन्न लक्ष्यों को प्राप्त् करने के लिए हमें आर्थिक रूप से सक्षम और पर्यावरण की दृष्टि से स्थाई व्यवस्था का निर्माण करना होगा । साथ ही इस सच का सामना करना ही होगा मुहैया नहीं है, के लिए भी पहल करनी होगी । हमारे पास विकल्प मौजूद हैं, बस उन पर काम करने की आवश्यकता है । प्राकृतिक स्वच्छता एक प्रकार का विशिष्ट प्रतिमान है जो अपशिष्ट को एक संसाधन में बदल सकता है । अधिक विस्तार में न जाते हुए सिर्फ यह कहाना कि ईको-सैन पद्धति में पानी के उपयोग के बिना ही अपशिष्ट को उसके मूल स्रोत पर ही ठोस और तरल रूप में अलग-अलग कर दिया जाता है, और फिर उस अपशिष्ट को उपयोग करने लायक खाद में बदला जाता है । ग्रामीण क्षेत्रों में इस ईको-सैन कार्ययोजना को लागू करने और उसे लोकप्रिय करने में संस्था अर्घ्यम ने विशिष्ट कार्य किया है । इसी के साथ यह संस्था विभिन्न कृषि विश्वविद्यालयों को इस सिलसिले में शोध और ट्रेनिंग देने का कार्य भी कर रही है । संस्था का लक्ष्य सामान्य तौर पर ऐसेे छोटे किसान हैं जिनके पास पारम्परिक शौचालय नहीं हैं और उन्हें महंगे उर्वरक खरीदने में भी कठिनाई होती है । केले की खेती पर एएलडब्ल्यू के बहुत अच्छे परिणाम निकले हैं । एक किसान को आसानी से एक बार में ही इस ईको-सैन तकनीक के बारे में समझाया जा सकता है । इससे वह उर्वरकों पर खर्च के हजारों रूपये तो बचायेगा ही साथ ही वह अपनी मिट्टी के उपजाऊपन को भी बरकरार रखेगा । यदि यह इतना ही आसान और प्रभावशाली हल है तो फिर इसे तेजी से पूरे देश वे विश्व में लागू किया क्यों नहीं जा सकता ? लेकिन इस राह में कई चुनौतियाँ हैं, जैसे जागरूकता, अच्छी डिजाइन, सरकार की नीतियाँ, आर्थिक और अन्य प्रोत्साहनों के साथ-साथ भारत जैसे देश में संस्कृति और जात-पात से भी जूझना पड़ेगा । ईको-सैन छोटे ग्रामीण इलाकों में स्वच्छता प्रबन्धना का समाधान प्रस्तुत करने में सक्षम है । हालांकि कोई भी व्यवस्था पूर्ण नहीं है, लेकिन हमें नई हरित अर्थव्यवस्था बनाने हेतु प्रयोगधर्मियों की आवश्यकता है । ***चिपको संदेशक्या है जंगल के उपकार,मिट्टी, पानी और बयार ।मिट्टी, पानी और बयार,ये है जिंदा रहने के आधार ।।

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