औद्योगिक विकास और प्रदूषण
डॉ. अर्जुन सोलंकी/डॉ. सुनीता बकावले
पर्यावरण शब्द से उस परिवेश का ज्ञान होता है, जिसके अन्तर्गत एक निश्चित भौतिक एवं जैविक व्यवस्था के तहत जीवधारी रहते हैं, बढ़ते, पनपते एवं स्वाभाविक प्रवृतियों का विकास करते हैं । इस विषय का ज्ञान आज के मानव को ही नहीं अपितु आदिम मनुष्य को भी था । इसलिए प्राचीन धर्म ग्रंथों एवं पौरणिक गाथाआें में पर्यावरण के सम्बंध में तथ्य मिलते हैं । आदिम मनुष्य भी अपने और पृथ्वी के सम्बंध को जानता था इसलिए उसने पृथ्वी को माँ की संज्ञा दी और स्वयं को उसका पुत्र कहा । पृथ्वी से मनुष्य का रिश्ता इतना ही नहीं कि वह उस पर रहता है और पोषित होता है । बल्कि पृथ्वी उसे एक पर्यावरण भी प्रदान करती है । जिसमें जीने वाले विभिन्न जीवधारियों और उगने वाले पेड़-पौधों से भी वह आत्मीय सम्बंध सूत्र में जुड़ा है । हमारे आसपास जो कुछ भी है, जो हमें घेरे हुए है वह हमारा पर्यावरण है । यह पर्यावरण न केवल मानव अपितु विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तु एवं वनस्पति के उद्भव विकास एवं अस्तित्व का भी आधार है । सभ्यता के विकास से वर्तमान युग तक मानव ने जो प्रगति की है । उसमें पर्यावरण की महत्वपूर्ण भूमिका रही है और यह कहना अतिश्योक्ति न होगा कि मानव सभ्यता एवं संस्कृति का विकास मानव पर्यावरण के समानुकूलन एवं सामंजस्य का परिणाम है । आदिम युग से लेकर आज तक के युग में मनुष्य एवं अन्य जीवधारियों का अस्तित्व उसके भौतिक पर्यावरण पर ही निर्भर रहा है । जैसे-जैसे मनुष्य ज्ञान, विज्ञान, संस्कृति और सभ्यता का संचय करता गया वैसे-वैसे अपने प्राकृतिक पर्यावरण को भी अपने अनुरूप ढालने की चेष्टा की । जिसके परिणामस्वरूप प्राकृतिक सम्पदाआें में उसका हस्तक्षेप दिन-प्रतिदिन बढ़ता चला गया । औद्योगिक क्रांति के बाद विश्व में औद्योगीकरण के बढ़ते चरण ने तीव्र गति से मनुष्य को कम्प्यूटर युग में पहँुचा दिया । कल-कारखाने की भीड़ लग गई एक के बाद एक डीजल एवं पेट्रोल से चलने वाले वाहनों का निर्माण होता चला गया । वैज्ञानिक चिकित्सा सुविधा ने मृत्यु दर कम कर दी, जनसंख्या की आवासीय समस्याआें के समाधान के लिए आसपास की कृषि योग्य भूमि आवासीय समस्याआें के समाधान के लिए आसपास की कृषि योग्य भूमि आवासीय भूमि में परिवर्तित हो गई । भीमकाय जनसंख्या की बढ़ती दर को स्थान देने के लिए वृक्षों की कटाई दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी । इन सबका परिणाम यह हुआ कि वाहनों से निकले हुए इंर्धन, एक साथ छोटी सी जगह में जनसंख्या की भीड़भाड़ ने मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक दशाआें को भी धीरे-धीरे खत्म किया । वर्तमान में औद्योगिक विकास के साथ प्राकृतिक साधनों का बड़ी तेजी से दोहन होता जा रहा है । जनसंख्याा वृद्धि, संसाधनों की निरन्तर घटती स्थिति, प्रदूषण और कृषि-उत्पादन की सीमा पर्यावरण क्षति के कुछ ऐसे तत्व हैं जिनकी और ध्यान जाता है तो ऐसा लगता है कि अगली सदी में हम लोग कैसे जीयेंगे ? आज धरती पर लाखों कारखाने वातावरण में विषैली गैसों का विसर्जन कर उसे गंदा बना रहे हैं । १९वीं सदी के अंत में मोटर उद्योग की शुरूआत ने इस समस्या को और भी जटिल बना दिया । विभिन्न सर्वेक्षण के अनुसार मोटर उद्योग आज वातावरण प्रदूषण का प्रमुख कारण है । अज विश्व में लगभग २२ करोड़ मोटर वाहन चल रहे है एक मोटर कार को १००० कि.मी. चलाने के लिए १४ हजार लीटर शुद्ध और ताजा ऑक्सीजन युक्त वायु की आवश्यकता होती है । मोटर के इंर्धन के रूप में पेट्रोल का उपयोग किया जाता है । पेट्रोल में सीसा होता है जो अत्यंत घातक प्रभाव डालता है । कारखानों और मोटर वाहनों से विसर्जित जहरीली गैसों के कारण पृथ्वी का वायुमण्डल गर्म होता जा रहा है । प्रदूषण अगर इसी तरह बढ़ता गया तो वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सन् २१०० तक वायुमण्डल में कार्बनडाई आक्साइड की मात्रा अब से चार गुना हो जयेगी । ऐसी स्थिति में ध्रुवीय क्षेत्रों की बर्फ पिघल जायेगी जिससे समुद्र तल ऊँचा हो जाएगा और अनेक समुद्रतटीय नगर डूब जायेंगे । बाढ़ आयेगी, धरती की उर्वरा शक्ति कम हो जायेगी और अनेक प्रकार के रोग तथा महामारियाँ फैलेगी । २० वीं सदी से प्रारम्भ में परमाणु शक्ति के अविष्कार ने प्रदूषण के खतरे को चरम सीमा पर पहुँचा दिया है । पिछले ४० वर्षोंा के दौरान विश्व में लगभग १२०० परमाणु विस्फोट किए जा चुके हैं । इनके रेडियोधर्मी प्रदूषण से कितनी हानि हो चुकी, कितनी हो रही है और भविष्य में कितनी हानि होगी, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है । इन परमाणु विस्फोटों से ऋतुआें का संतुलन भी डगमगा गया है । मौसमों का बदलाव इन परमाणु विस्फोटों का ही दुष्परिणाम है । भारतीय परिप्रेक्ष्य में यदि अलग से विचार किया जाये तो अन्य कई विकासशील राष्ट्रों के समान ही हमारे देश में भी पर्यावरण को हो रही क्षति दिनोदिन बढ़ती जा रही है । हमारी अर्थव्यवस्था और व्यवसायों का फैलाव और नित नये उद्योगों की स्थापना जहाँ एक ओर विकास का साधना है वहीं वे देश में व्याप्त् प्रदूषण में भी वृद्धि कर रहे हैं । यह स्थिति नगरीय क्षेत्रों में तो चिंताजनक है ही, ग्रामीण क्षेत्रो में भी विशेषकर जहाँ औद्योगिक इकाईयाँ घनीभूत रूप में स्थापित है, यह एक विकट समस्या का रूप धारण करती जा रही है । यह सम्भव है कि अभी प्रदूषण का स्तर विकसित राष्ट्रों के दृष्किोण से उतना अधिक न हो फिर भी इस देश की विशेष परिस्थितियों जैसे सभी समस्याआें से निपटने हेतु वैधानिक दृष्टि, उपकरण, उचित व्यावहारिक शिक्षण/प्रशिक्षण तथा सम्बंधित नियमों, प्रतिबंधों आदि के पालन में कमी, यहाँ इस समस्या को एक विशेष आयाम प्रदान करती है । हम अभी भी सौभाग्यशाली है कि हमारा पर्यावरण उस सीमा तक नहीं बिगड़ा जहाँ से वापस लौटना असम्भव है । इसलिए आज आवश्यकता इस बात की है कि हम पर्यावरण सम्बंधी हर कार्य को बड़ी सोच, समझ तथा सुनियोजित तरीके से करें ताकि हम भावी दुनिया को एक सुंदर और स्वास्थ्य पर्यावरण सौंप सकें । यह राष्ट्र तथा आने वाली पीढ़ीयों के लिए बहुत बड़ा योगदान सिद्ध हो सकता है । आइये हम सब मिलकर संकल्प लें कि हम अपने पर्यावरण को स्वस्थ और सुरक्षित रखने में हर सम्भव प्रयास करेंगे ।***जहरीली नहीं होने देंगे आबोहवा पिछले दिनों केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की स्वीकारोक्ति के बाद कि युनियन कार्बाइड के अपशिष्ट के प्रभाव से भोपाल का भूजल जहरीला हो रहा है । इस कचरे को पीथमपुर लाकर जलाने का विरोध और भी तेज हो गया । पहले से ही कचरे को इंदौर ना लाने की पैरवी कर रहे शहर के वरिष्ठ नागिरिकों, समाजसेवियों और पर्यावरण प्रेमियों ने यहां तक कह दिया चाहे कुछ भी हो जाए, हम मालवा की आबोहवा मेें जहर को घुलने नहीं देंगे ।
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