मंगलवार, 27 जुलाई 2010

११ ज्ञान विज्ञान

बिना ऑक्सीजन के जीने वाले जीव
वैज्ञानिकों ने पहली बार ऐसे जीवों की खोज की है जो बिना ऑक्सीजन के जी सकते है । और प्रजनन कथर सकते है । ये जीव भूमण्ध्य सागर के तल पर मिले है । इटली के मार्श पॉलीटेकनिक विश्वविद्यालय में कार्यरत रॉबर्तोंा दोनोवारों और उनके दल ने इन कवचधारी जीवों की तीन प्रजातियों की खोज की है ।दोनोवारों ने बताया कि इन जीवों का आकार करीब एक किलोमीटर है ये देखने में कवच युक्तजेलीफिश जैसे लगते है । प्रो रॉबतो दोनोवारो ने कहा कि ये गूढ रहस्य ही है कि ये जीव बिना ऑक्सीजन के कैसे जी रहे है क्योंकि अब तक हम यही जानते थे कि केवल बैक्टीरिया ही बगैर ऑक्सीजन के जी सकते हे भूमध्यसागर की ला अटलाटा घाटी की तलछट में जीवोंं की खोज करे के लिए पिदले दशक में तीन समुद्री अभियान हुए है । इसी दोरोन इन नन्हे जीवधारीयों कि खोज हूई । यह घाटी र्क्रिट द्वीप के पश्चिीमी तट से करीब २०० किलोमिटर दूर भूमध्यसागर के भीतर साढ़े तीन किलोमीटर की गहराई में है । जहाँ ऑक्सीजन बिलकुल नही है । प्रो. दोनोवारो ने बताया कि इससे पहले भी बिना ऑक्सीजन वाने क्षेत्र से निकाले गए तलछट में बहुुकोशिय जीव मिले है, लेकिन तब ये माना गया कि ये जीवों के अवशेष है जो पास के ऑक्सीजनयुक्त क्षेत्र से वहाँ आकर डूब गए । हमारे दल ने ला अटलांटा में ती नजीवित प्रजातियॉ पाई है जिनमे से दो के भितर अंडे भी थे । हालाँकि इन्हें जीवित बाहर लाना संभव नहीं था, लेकिन टीम ने जहाज पर ऑक्सीजन रहित परिस्थितियाँ तैयार करकेे अंडों को सेने की प्रक्रिया पूरी की। उल्लेखनीय है कि इस ऑक्सीजन रहित वातावरण में इन अंडो से जीव भी निकले । दानोवारों ने कहाँ की यह खोज इस बात का प्रमाण है कि जीव में अपने पर्यावरण के साथ समायोजन करने की असीम क्षमता होती है उन्होने कहा कि दुनियाभर के समुद्रो में मृत क्षेत्र फैलते जा रहे है जहाँ भारी मात्रा में नमक है और ऑक्सीजन नहीं है स्क्रिप्सइंस्टीट्युशन ऑफ ओशनोग्राफी की लीसा लेविन कहती है । कि अभी तक किसी ने ऐसे जीव नहीं खोंजे जो बिना ऑक्सीजन के जी सकते हो और प्रजनन कर सकते हों । उन्होने कहाँ कि समुद्रों के इन कठोर परिवेशों में जाकर और अध्ययन करने की जरूरत है । इन जीवों की खोज के बाद लगता है कि अन्य ग्रहों पर भी किसी रूप मं जीवन हो सकता है, जहाँ का वातानरण हमारी पृथ्वी से भिन्न है । आबादी के लिहाज से दुनिया के दूसरे सबसे बड़े देश भारत में मोबाईल फोन की संख्या शौचालयों से ज्यादा है । संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वच्छता को लेकर किए गए एक ताजा अध्ययन से इस बात का खुलासा हुआ है । संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय के जल, पर्यावरण और स्वास्थ्य संस्थान के निदेशक जफल आदिल कहते हैं कि भारत जैसा देश जो अब पर्याप्त् धनी है कि, के लिए यह एक दु:खद विडंबना है कि यहाँ की आधी आबादी अभी भी शौचालयों जैसी मूलभूत आवश्यकता से वंचित है । भारत में करीब ५४.५० करोड़ मोबाईल फोन है अर्थात ४५ प्रतिशत जनसंख्या इस सेवा का उपयोग कर रही है जबकि २००८ के अध्ययन के अनुसार देश में ३६.६० करोड़ लोगों या कुल आबादी के ३ प्रतिशत को ही शौचालय सुविधा उपलब्ध थी । पिछले दिनों जारी इस रिर्पोट लक्ष्य लोगों के लिए स्वच्छ जल और बुनियादी स्वच्छता की सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए तय सहस््रााब्दी विकास लक्ष्य पाने के लिए प्रयास तेज करना है अगर वर्तमान वैश्विक रूझान जारी रहा तो विश्व स्वास्थ्य संगठन और युनिसेफ के अनुसार सहस््रााब्दी विकास लक्ष्य की तय तारिख २०१५ तक करीब एक लाख लोग इन बुनियादी सुविधाआें से महरूम होंगे । श्री आदिल ने कहा कि करीब १५ लाख बच्च्े और कई अन्य लोग हर साल दूषित जल और अस्वच्छता के कारण जान गवाँ देते है । सहस्राब्दी विकास लक्ष्य पाने के लिए दिए गऐ नौ प्रस्तावों पर अमल करके २०१५ तक इस स्थिति में ५० सुधार किया जा सकता है और २०२५ तक लक्ष्य को पाना संभव है ।
गुबरैला से प्रेरित एडहेसिव
एक गुबरैला या भृंग होता है जों पत्तियों पर बहुत कसकर चिपक जाता है इसे देखकर कुछ वैज्ञानिकोंको खयाल आया कि वे इसका अनुकरण करके बढ़िया एडहेसिव बना सकते है इस गुबरैलों का वैज्ञानिक नाम है हेमीस्फेरोटा सायने ।वैसे तो गोह भी किसी सतह से चिपकने में माहिर होती है मगर गोह के चिपकने और गुबरैलों के चिपकने में बहुत अंतर है । गोह किसी भी सतह से चिपकने के लिए अपने पंजों पर मौजूद अत्यंत महीन रेंशों और सतह के बीच वांडरवॉल बल लगाती है । दूसरी और गुबरैलों सतह पर चिपकन के लिए सैकड़ों-हजारों अत्यंत बारीक बुंदों का सहारा लेता है वह अपनी टांगों की निचती सतह से एक द्रव पदार्थ बहुत महीन बुंदों के रूप में छोड़ता है । ये बुंदें सतह से एक बल के दम पर चिपकती है जिसे पृष्ठ तनाव कहते है यह बल वांडरवॉल बल से अधिक शक्तिशाली होता है । और तो और पानी की बूंदों की साईज कम होते जाने से उनकी समह का क्षेत्रफल अपेक्षाक्रत ज्यादा तेज़ी से बढ़ता है इसलिए जितनी बारीक बुंदें होंगी ।बल उतना ही अधिक होगा । इस तकनीक का अध्ययन करने के बाद कॉर्नेल विश्वविद्यालय के माइकेल वोगेल और पॉल स्टीन पे इसकी एक अनकृति बनाने का प्रयास किया है । और उनका मत है कि जल्दी ही वे एक कामकाजी एडहेसिव बना पाएंगे । मॉडल में उन्होंने पानी का उपयोग करने पर यह समस्या तो दूर हो गई मगर अब प्रमुख समस्या है कि पर्याप्त् बल हासिल करने के लिए उन्हे बहुत बारीक बूंदें बनाना होंगी । अभी के मॉडल में करीब १५० माइक्रोमिटर व्यास की बुंदें बनती है इससे भी काफी वज़न उठाया जा सकता है मगर शोधकर्ता चाहते है कि बूंदों का आकार ०.१ माइक्रोमिटर रहे । इतने बारीक छिद्र बना पाना इंजीनियरी की एक चुनौती है । मगर वोगेल व स्टीन को यकीन है कि वे जल्दी ही यह काम करेगा ।
फूलों के परागण में खमीर की भूमिका
कई सारे फूलों में पराग कणों को एक से दुसरे फुल तक ले जाने का काम कीट करते है । परागण की इस सेवा के बदले में उन्हे फूलों का मकरंद मेवा स्वरूप मिलता है मगर ताज़ा अनुसंधान से पता चला है कि शायद यह रिश्ता मात्र दो जीवों का नहीं बल्कि तीन जीवों का है । परागण की इस क्रिया में खमीर की भूमिका सामने आई है । यह तो पहले से पता था कि फूलों के मकरंद में खमीर यानी यीस्ट की कई प्रजातियाँ निवास करती है । मकरंद को पचारक पोषण प्राप्त् करती है । इसका स्वाभाविक परिणाम तो यह होता है कि मकरंद में शर्करा की थोड़ी कमी हो जाती है और कीटों को मकंरद से उतना पोषण प्राप्त् नही हो पाता । मगर स्पेन के डोनाना बायोंलॉजिकल स्टेशन के कार्लोस हरेरा और मारिया पोज़ों ने अपने अध्ययन से बताया है कि जब खमीर मकरंद का पाचन करते है । तो काफी गर्मी पैदा होती है इससे ठंडे वातावरण में फूल गर्म बने रहते है । यह गर्मी कीटों को ज़्यादा आर्कर्षित करती है । और फलस्वरूप इन फुलों के परागण में मदद मिलती है । परागण बेहतर होता है, तो फल भी ज्यादा लगते है । इस तरह से खमीर इन पोधों के प्रजनन में सहायक साबित होता है प्रोसरडिंग्स ऑफ दी रॉयल बी में प्रकाशित इस अध्ययन में हेलेबोरस फेटिडस नामक फूल का अध्ययन किया गया था । इकॉलॉजी की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण अध्ययन है क्योंकि इसमें दो जीवों के परस्पर सम्बंध और निर्भरता में एक तीसरा जीव जुड़ जाता है । वैसे अभी इस संर्दभ में और अध्ययन की आवश्यकता है क्योंकि यह तो स्पष्ट हैकि खमीर की मौजुदगी से फुलों का तापमान अधिक रहता है, मगर यह स्पष्ट नहीं है कि बढ़ा हुआ तापमान कितनी मदद करता है क्योंकि तापमान बढ़ने के साथ-साथ मकरंद में शर्करा की मात्रा कम भी होती हे । सवाल उठता है कि क्या कीट कम मकरंद वाले गर्म फूलों की और ज़्यादा आकर्षित होंगे ।

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